कचरे से कमाई, बचपन की तबाही

11 Mar 2011
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लैंडफिल
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अधिकांश बच्चे या तो स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं या फिर अपने ही माता-पिता द्वारा जबरन कचरा बीनने में लगा दिए जाते हैं। नन्ही-सी उम्र में ही उनके द्वारा कमाई गई छोटी रकम भी उन्हें बेहद बड़ी लगती है। वे छोटी उम्र में ही बड़े सपने देखते हुए मानसिक रूप से बड़े हो जाते हैं और जल्द ही कई बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं।

मुंबई में देवनार के 110 हेक्टेयर भूमि में फैले विशाल डंपिंग ग्राउंड के कचरे को दूर से देखेंगे तो लगेगा कि कोई पहाड़ है। दरअसल, यह सात मंजिली इमारत जितनी ऊंची एक मानव निर्मित कचरे का पहाड़ ही है। मुंबई में 140 लाख नागरिक प्रतिदिन 6 हजार टन से भी ज्यादा कचरा पैदा करते हैं, जिसका अधिकांश हिस्सा देवनार में इकट्ठा होता है। वर्ष 1927 के आस-पास इस भूखंड को डंपिंग ग्राउंड के लिए चुना गया था और तब से ही यह मुंबई के डंपिंग ग्राउंड के रूप में प्रसिद्ध है। इसके चलते कई झोपड़ी निवासी व फुटपाथ निवासी लखपति बन चुके हैं। पर इसी के साथ इस मैदान ने कई घातक बीमारियों को भी जन्म दिया है और बलि भी लिया है।

अक्सर कचरा बीनने वाले नालियों और नालों में कीमती कचरे को ढूंढ़ते फिरते हैं पर आपने इन्हें नालों और गटर में कुछ ढूंढ़ते हुए बहुत कम देखा होगा, क्योंकि ये आपके जीवन का हिस्सा ही नहीं हैं। पूरे विश्व में कचरे को इकठ्ठा करना, फेंकना और उसे नष्ट करना एक सामान्य दैनिक कार्य है। हर देश में कचरे के निबटारे का तरीका भी अलग-अलग है। आज कचरे को नष्ट करना एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। कचरे के संग्रह व निबटारे के गलत तौर-तरीके के चलते ग्लोबल वार्मिंग में भी बढ़ोतरी हो रही है। विकसित और औद्योगिक देशों में कचरे को परिष्कृत तरीके से नष्ट किया जाता है और दोबारा उपयोग के लायक बनाया जाता है। कचरे के इस काले पहाड़ पर बच्चों की सेना बड़ी खुशी से खेलती हुई नजर आती है। ये बच्चे कोई और नहीं बल्कि उन्हीं कचरा बीनने वालों की संतानें हैं।

हालांकि, यह चित्र भारत के किसी भी बड़े शहर में आसानी से देखी जा सकती है। एक ही समय में भारत कई शताब्दियों का जीवन एक साथ जीता है। भारत के हर शहर में मौजूद झोपड़-पट्टियां सीधे आपके चेहरे को घूरती हैं। प्लास्टिक, कागज के गत्तों, टिन की चादरों, लकड़ियों, पॉलीथीन शीट, टूटे ईट के टुकड़ों तथा मिट्टी के लेप से बनी झुग्गियों-झोपड़ियों में रहने वाले यह लोग बहुत मुश्किल से गर्मी और वर्षा से अपनी रक्षा करते हैं। भीषण गरीबी, निरक्षरता, शोषण और कमाने के बेहद कम विकल्पों से गांव की गरीब आबादी बड़े शहरों की तरफ पलायन करती है। इन्हें कोई सहारा या आसरा नहीं होता। खूब भटकने के बाद अंतत: ये कचरा बीनने वालों की जमात में शामिल हो जाते हैं। असली मेहनत तो ये बच्चे करते हैं, पर असली कमाई दलाल खा जाते हैं। आज कचरा बीनने का काम एक संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। कचरे अक्सर खुले में या सड़क किनारे फेंके जाते हैं, लेकिन कचरा बीनने वाले पुन: उपयोग में आने वाली हर उस वस्तु को उठा लेते हैं, जिसकी मांग होती है। इनमें से तो कुछ वस्तुएं शरीर के लिए अत्यंत ही नुकसानदायक होती हैं।

ये अक्सर नंगे पैर, नंगे चेहरे व हाथ के साथ ही अत्यंत घातक और बीमारियों से युक्त कचरे के ढेर में दिन भर भटकते रहते हैं। इनमें से अधिकांश बच्चे या तो स्कूल छोड़ देने वाले होते हैं या फिर अपने ही माता-पिता द्वारा जबरन कचरा बीनने में लगा दिए जाते हैं। नन्ही-सी उम्र में ही उनके द्वारा कमाई गई छोटी रकम भी उन्हें बेहद बड़ी लगती है। वे छोटी उम्र में ही बड़े सपने देखते हुए मानसिक रूप से बड़े हो जाते हैं और जल्द ही कई बुरी आदतों के शिकार हो जाते हैं। वे नाजुक उम्र में ही बीड़ी, सिगरेट व गुटखे आदि का सेवन करने लगते हैं। छोटी उम्र में देखे गए बड़े-बड़े सपने जब पूरे नहीं होते तो ये जाने-अनजाने स्थानीय गुंडों के चंगुल में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। आगे चलकर यही बच्चे समाजद्रोही और अपराधी बन जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन बच्चों के लिए समय-समय पर अनिवार्य शिक्षा के कानून बनते हैं, अरबों रुपये की योजनाएं बनती हैं तथा ढेरों वादे किए जाते हैं, वही बच्चे बेहद विपरीत परिस्थितियों में कचरा बीनने और अन्य क्षेत्रों में मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। इतनी मेहनत करके भी उन्हें उनके हक का हिस्सा नहीं मिलता है। मुंबई समेत पूरे देश के फेंके हुए कचरे में से पुन: उपयोग में आने लायक वस्तुओं को बीनने के बाद भी कचरा बीनने वाले बच्चे धन्यवाद जैसे शब्द के भी मोहताज हैं। आज तक सरकार ने न तो इन बच्चों की सेवाओं के महत्व को स्वीकार किया है और न ही उन्हें किसी तरह की सुविधा ही उपलब्ध कराई गई है।
 

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