‘कड़वी हवा’ का जिक्र एक मीठा एहसास

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64वें राष्ट्रीय पुरस्कार में फिल्म कड़वी हवा की सराहना

कड़वी हवा
नील माधब पांडा
‘कौन कितने पानी में’
‘यह फिल्म महज एक कपोल कल्पना नहीं है बल्कि यह जलवायु परिवर्तन को झेल रहे लोगों की दयनीय हालत बयाँ करता है। यह समाज के लिये वेकअप कॉल है जो जलवायु परिवर्तन के सम्भावित खतरों से निबटने के लिये तैयार नहीं हुआ है।’
‘फिल्म का जिक्र कर उसे सराहा गया यह उनके लिये बड़ी बात है।’
‘मैं इससे अधिक उम्मीद भी नहीं करता।’
‘वह अपने किरदार में इस कदर ढल गए कि पूरी शूटिंग के दौरान वह कभी भी पंखे के नीचे नहीं बैठे।’
‘पर्यावरण या पानी के मुद्दे पर बनी किसी हिन्दी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला हो, ऐसे मुझे ज्ञात नहीं है। अलबत्ता क्षेत्रीय भाषाओं में इन मुद्दों पर बनी फिल्म को पुरस्कार मिला हो, तो मिला हो।’
‘इस तरह के मुद्दे पर फिल्म बनाना जोखिम भरा है और आजकल एक-एक फिल्म बनाने में करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। दूसरी बात यह है कि अब स्टारडम का जमाना है। ऐसे में कोई भी डायरेक्टर ऐसे विषय पर फिल्म बनाना नहीं चाहेगा, जो बहुत गम्भीर हो।’
‘आप देखिए न! सामाजिक मुद्दों पर ही कितनी फिल्में आजकल बन रही हैं?’
‘आजकल ऐसे पटकथा लेखक भी नहीं हैं जो इस तरह के मुद्दों पर रोचक पटकथा लिख सकें।’
‘अमेरिका में अगर किसी फिल्म को पुरस्कार मिलता है, तो वहाँ के दर्शकों में उस फिल्म को लेकर उत्सुकता बढ़ जाती है जिससे फिल्म अच्छी कमाई कर लेती है। अपने देश में ऐसा नहीं है। यहाँ अवार्ड से फिल्म के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन पर कोई असर नहीं पड़ता है।’
‘देखिए, अभी बॉलीवुड के 99 प्रतिशत प्रोड्यूसर पैसा कमाने के लिये पैसा लगाते हैं, प्रोत्साहन के लिये नहीं। इसलिये उम्मीद करना बेमानी है कि सराहना मिलने से इस तरह के फिल्में बनाने के प्रति रुचि बढ़ेगी।’

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