कहाँ गुम होते जा रहे हैं -हम

3 Jan 2016
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इस योजना का प्रमुख अंग था हिमालय के समानान्तर एक बड़ी नहर का निर्माण करके उसे मध्य देश और दक्षिण में दो गोलाकार ‘गार्लेन्ड’ नहरों से जोड़ना और फिर इनमें बहते हुए पानी को छोटी-छोटी नहरों के द्वारा जगह-जगह ले जाना। दस्तूर ने इस पर कुल 7000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया था जो किसी भी राष्ट्रीय बैंक की सहायता से प्राप्त हो सकते थे। इस योजना का मूल उद्देश्य उस लाखों क्यूसेक पानी का भण्डारण और वितरण करना था जो पिघलते हिमखण्ड प्रतिवर्ष हमारी नदियों को देते हैं और जो इन नदियों के माध्यम से समुद्र के पेट में चला जाता है।

इस पुस्तक की वस्तु और पहले रखे गए उसके नाम (कहाँ गुम होते जा रहे हैं तालाब) से मुझे अचानक कैप्टन जे.एफ. दस्तूर के द्वारा कई वर्ष पूर्व लिखी गई पुस्तक ‘दिस आॅर एल्स’ की याद आ गई जिसमें ऊपर ही यह नारा लिखा गया था- ‘इण्डिया हैज मोर वेल्थ इन वाटर दैन अरेबिया हैज इन आॅइल’। कुछ लोगों की जानकारी के लिये बतलाना उचित होगा कि कैप्टन जे.एफ. दस्तूर एक इंजीनियर-कन्सल्टेंट थे जिनकी फर्म ‘दस्तूर एण्ड कम्पनी’ ने बोकारो स्टील प्लांट की प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई थी। परन्तु यह रिपोर्ट रूसी सरकार को पसन्द नहीं आई जो प्रोजेक्ट के लिये ऋण दे रही थी और रूस के दबाव में आकर भारत सरकार ने उसे दरकिनार करके रूस द्वारा तैयार की गई प्रोजेक्ट रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया। दस्तूर एण्ड कम्पनी की प्रोजेक्ट रिपोर्ट में उस समय के अखबारों के अनुसार प्रोजेक्ट की लागत काफी कम आँकी गई थी। ‘ऋणम कृत्वा घृतम पिवेत’ की हमारी जवाहरलाल नेहरू कालीन आर्थिक नीति के तहत जब पैसा रूसी सरकार से ही आना था तो प्रोजेक्ट की लागत कम हो या ज्यादा हमको क्या फर्क वाला था?

दस्तूर की उपरोक्त पुस्तक में भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट और उसकी पतनशीलता का कुछ विश्लेषण था और देश के विकास एवं अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित कुछ सुझाव। कभी-कभी बहुत बड़ी-बड़ी समस्याओं के बहुत सीधे-सादे छोटे-छोटे हल होते हैं। परन्तु जिन समस्याओं को हम बड़ी और जटिल मान लेते हैं उनके छोटे और सीधे-सादे हलों को हमारा मानस स्वीकार करने से घबराता है या उन पर यकीन नहीं ला पाता। यह भी है कि पहले तो हम अपने कामकाज को व्यवस्थित और दक्षतापूर्वक चलाने के लिये प्रणालियाँ बनाते हैं जो धीरे-धीरे एक तंत्र बन जाती हैं और कालान्तर में तंत्र इतना प्रबल हो जाता है कि उसकी रक्षा हमारी प्राथमिकता बन जाती है- कामकाज गौण हो जाता है। हमारी राज व्यवस्था का हर पहलू इतना तंत्र आधारित हो चुका है कि व्यवस्था पूरी तरह से जड़ हो चुकी है। फिर भी स्थापित तंत्र को तोड़ने का साहस हम में नहीं है। दस्तूर के सुझावों पर हमारी इसी मानसिक जड़ता के कारण ठीक से विचार भी नहीं हो सका।

दस्तूर का एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव था भारत के उत्तराखण्ड के पिघलते हुए हिमखण्डों से प्राप्त होने वाली विशाल जल धाराओं को बड़ी-बड़ी नहरों द्वारा एक वृहत ‘राष्ट्रीय-ग्रिड’ में ले जाना जिसके द्वारा आवश्यकतानुसार उसका वितरण किया जा सके। इस योजना का प्रमुख अंग था हिमालय के समानान्तर एक बड़ी नहर का निर्माण करके उसे मध्य देश और दक्षिण में दो गोलाकार ‘गार्लेन्ड’ नहरों से जोड़ना और फिर इनमें बहते हुए पानी को छोटी-छोटी नहरों के द्वारा जगह-जगह ले जाना। दस्तूर ने इस पर कुल 7000 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान लगाया था जो किसी भी राष्ट्रीय बैंक की सहायता से प्राप्त हो सकते थे। इस योजना का मूल उद्देश्य उस लाखों क्यूसेक पानी का भण्डारण और वितरण करना था जो पिघलते हिमखण्ड प्रतिवर्ष हमारी नदियों को देते हैं और जो इन नदियों के माध्यम से समुद्र के पेट में चला जाता है।

एक तरफ भीषण बाढ़ों से प्रतिवर्ष होने वाली जान-माल की हानि और दूसरी तरफ सूखे से होने वाली कृषि की हानि तथा पीने और निस्तार के लिये पानी की भारी कमी से उत्पन्न त्रासद स्थितियों की विडम्बना के निवारण की धारणा भी इसके पीछे थी। एक छोटी सी किताब में योजना की खास-खास बातें ही दे सकना सम्भव था। सिंचाई के लिये पानी के अलावा पेयजल और निस्तार के पानी की प्रतिपूर्ति करने वाली नहरों का देश भर में फैला हुआ एक जाल, नहरों में चलते हुए यात्री और भारवाहक जलयान, नहरों के किनारे बड़ी-बड़ी सड़कें और स्थान-स्थान पर बने जल विद्युत गृहों से प्रचुर मात्रा में प्राप्त होने वाली बिजली तथा पूरे निर्माण कार्य के दौरान हमारी विशाल, गरीब जनसंख्या को बड़े पैमाने पर रोजी-मजूरी सब कुछ एक अविश्वसनीय स्वप्न जैसा था। परन्तु गौर से देखने पर इसमें ऐसा कुछ नहीं था जिसे दृढ़ संकल्प से पूरा न किया जा सके।

परन्तु दस्तूर की योजना पर छोटी-मोटी, हल्के-फुल्के अन्दाज की बहस हुई और विशेषज्ञों की एक समिति ने उसे अव्यावहारिक बतलाकर दफन कर दिया। ऐसी योजना के यद्यपि गहन परीक्षण की आवश्यकता थी और उस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस भी होना जरूरी था परन्तु यह सब कुछ नहीं हुआ। अपनी अर्थव्यवस्था की जीर्ण-शीर्ण होती जा रही चादर में हम थेगड़े ही लगाते रहे और समय की जलधारा काल-समुद्र के विशाल पेट में जाती रही। ‘सोने की चिड़िया’ कहे जाने वाले देश की ‘मास पावर्टी’ की तरह, विशाल भौतिक।

अपने इलाके में परम्परागत जलस्रोतों की उपेक्षा और पानी के बढ़ते संकट पर विस्तार से लिखने का ख्याल श्री अनुपम मिश्र की पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के पढ़ने के बाद आया। उन्होंने तालाबों के निर्माण और संरक्षण की परम्परा पर बहुत बारीकी से लिखा है। उनकी पुस्तक से सूत्र पकड़कर अपने इलाके में तालाबों और दूसरे जलस्रोतों से उनके अन्तर्सम्बन्ध और तालाब नष्ट हो जाने से पैदा जल-समस्या को उनकी शैली में समझने की कोशिश इस पुस्तक में मैंने की है।

पानी की चिन्ता जिन्हें सताती हो, उन्हें श्री अनुपम मिश्र की दूसरी पुस्तक ‘राजस्थान की रजत बूँदे’ भी जरूर पढ़नी चाहिए। दोनों पुस्तकों के प्रकाशक हैं, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, 221 दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली-110002

इस पुस्तक की आधारभूत सामग्री जुटाने में अनगिनत हाथ लगे हैं। जाने-अनजाने सैकड़ों लोगों ने इलाके भर के तालाबों के बारे में किस्से, कहानियाँ और संरक्षण की परम्पराओं के बारे में न केवल बताया, बल्कि ले जाकर बदहाल तालाब दिखाए भी।

विदिशा के नीमताल और ‘गिग्गिक’ का किस्सा वर्षों पहले वकील स्व. श्री राजकुमार जैन और शिक्षक श्री रमेश यादव ने सुनाया था। नैनाताल के विनाश की कहानी सिंचाई विभाग के उपयंत्री जे.एन. पौराणिक ने बताई जबकि विदिशा के तालाबों के बारे में अनेक सूचनाएँ श्री राजेन्द्र सिंह राजपूत और वकील रामशंकर मिश्र ने उपलब्ध कराई। बेतवा नदी के लिये समर्पित बुजुर्ग पंडित मदनलाल शर्मा ने वर्षों पहले नीमताल की बर्बादी पर एक लम्बी कविता सुनाई थी। कुछ अंश हैं-

‘‘ओ मेरे प्यारे नीमताल, क्यों तेरी बिगड़ी हालत है
जब पास बनी है अस्पताल, ओ मेरे
तुझको क्या रोग समाया है, किसको तूने बतलाया है
अब नहीं है चिन्ता जनता को, हमको चिन्ता है आज-कल
ओ मेरे प्यारे.....’’


यह कविता उन्होंने तीस बरस पहले तब लिखी थी, जब नीमताल को नष्ट करने का काम शुरू किया गया था। जरा-सा मौका मिलते ही वे यह कविता सुनाने से आज भी नहीं चूकते।

विदिशा के कुएँ-बावड़ियों के बारे में प्रमाणिक सूचनाएँ लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय के पूर्व कार्यपालन यंत्री आर. के. असाटी से मिली जब कि उन्हें विदिशा के श्री सुनील जैन के सौजन्य से देखा।

विदिशा के मोहनगिरि के तालाब पर दो दशक पहले तक आषाढ़ में मेला लगता था। यह तालाब खदान से पत्थर निकालने से बन गया था। बस्ती के लोग तालाब किनारे के महामाई के मन्दिर के बगीचे में दाल-बाटी बनाते, फिर अषाढ़ी माता की पूजा करके, वहीं खाना खाते थे। तालाब में अब शहर की नालियाँ गन्दगी उड़ेलती हैं। इसके बावजूद, तालाब किनारे के मोहनगिरि के कुएँ पर अब भी सुबह-शाम पनिहारिनों की भीड़ लगी रहती है। पहले कभी वैद्य-हकीम इस कुएँ के पानी को पाचक बताते हुए पेट के मरीजों को इसी कुएँ का पानी पीने की सलाह देते थे।

महामाई का मन्दिर अब पहले से भी भव्य बन गया है, पर तालाब बर्बाद हो जाने के बाद वहाँ अषाढ़ी माता पूजने के परम्परागत तरीके में अन्तर आया है। अब श्रद्धालु घर से खाना बनाकर टिफिन में लाते हैं, माता को भोग लगाते हैं और घर जाकर ही खाते हैं। मोहनगिरि तालाब से जुड़ी ये जानकारियाँ श्री नरेन्द्र ताम्रकार, श्री प्रीतम भारती गोस्वामी और डॉ. सुरेश गर्ग के सौजन्य से मिल सकी हैं।

पत्थर की या लकड़ी की चाट, चरई या चुरई अंचल भर में पुराने कुएँ-बावड़ियों पर देखने को मिलती हैं पर ऐसी सबसे बड़ी चुरई श्री भरत लढ्ढा की मदद से उदयगिरि की पहाड़ी पर देखी। करीब बीस फुट लम्बी, तीन फुट चौड़ी और तीन फुट से ज्यादा मोटी एक ही शिला को कोलकर बनाई गई इस चुरई को देखकर गुजरात विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. भोलाभाई पटेल हैरत में पड़ गए थे। गुजराती में लिखी अपनी पुस्तक ‘विदिशा, तेषां दिक्षु प्रथित विदिशा...’ में उन्होंने इसे पत्थर की नाव समझकर सवाल उठाया है कि यह पहाड़ी पर कहाँ से आई होगी? यह तैरती भी होगी? हिन्दी में अनूदित यह पुस्तक श्री राघवजी के सौजन्य से पढ़ने को मिली। उदयगिरि पहाड़ी पर चौथी-पाँचवीं सदी की गुफाओं मूर्तिओं और मन्दिरों के अवशेष हैं। यह विशालतम चुरई भी शायद उसी दौर में बनाई गई थी।

ऐसी ही एक विशाल चुरई उदयगिरि के नीचे भी आड़ी पड़ी है। पत्थर की चाट-चुरई भी बनाना मामूली काम नहीं था। पत्थर की शिला को महीनों इंच-इंच खोदकर चुरई बनाई जाती थी। निश्चित ही इसका मूल्य तब कम नहीं आता होगा।

बड़ोह के तालाब निर्माता गड़रिए की कहानी पुरातत्ववेत्ता श्री एम.डी. खरे की पुस्तक ‘विदिशा’ में आई है। बाकी जानकारी श्री गुलजारीलाल जैन बड़ोह वालों की कृपा से मिली। गड़रिए के परिवार की बलि का असली मतलब श्री अनुपम मिश्र ने समझाया। इस पुरानी बस्ती के साथ-साथ, पास में बसे पठारी के तालाब, कुएँ-बावड़ियाँ और पखी श्री लतीफखान की मदद से देख-समझ सके। अब भी गर्मियों में इस विशाल तालाब के एक छोटे- से हिस्से में ही पानी बचता है।

पठारी के तालाब की सफाई-परम्परा और मंगला सिलावट का किस्सा पठारी के चौधरी गुलाब चन्द जैन ने सुनाया था। कभी वे भी बच्चों की उस भीड़ का एक हिस्सा हुआ करते थे, जो पठारी के निवासियों की पीछे-पीछे ‘पखी’ साफ करने जाया करती थी। पठारी की यह अनमोल धरोहर, बस अब कुछ ही दिनों की मेहमान है। पठारी की धुबयाऊ तलैया, गोला तलैया, कंचन तलैया, मिठयातला, गोह तलैया, मट्यातला और गुजरया ताल नाम के सात तालाबों के बार में श्री रफीकखान ने बताया। ये तालाब दरअसल खेत ही थे, जो एक ही शृंखला में इस तरह बने थे कि उनमें हर एक से निकला अतिरिक्त पानी नीचे वाले तालाब में जमा हो जाता था। जरूरत पड़ने पर इन्हें एक-एक करके कुछ दिनों के अन्तराल से इस तरह खोला जाता था कि निकले हुए पानी का इस्तेमाल नीचे के खेत में हो जाता था। यह उन दिनों की बात है जब इस इलाके में धान की खेती होती थी।

ग्यारसपुर के मानसरोवर तालाब के बारे में ‘विदिशा गजेटियर’, एक रिपोर्ट (श्री पी.एन. श्रीवास्तव, डॉ. राजेन्द्र वर्मा) दर्शाण दर्शन (श्री निरंजन वर्मा) और विदिशा (श्री एम.डी. खरे) आदि कई पुस्तकों में जिक्र आया है। पूर्व ग्वालियर स्टेट की एक रिपोर्ट में अमर्रा तालाब की मरम्मत का उल्लेख है। पुरातत्त्व विभाग ने ग्यारसपुर थाने के ठीक सामने दर्शनीय स्थलों की जो सूची लम्बे-चौड़े शिलाखण्ड पर खुदवाई है, उसमें ग्यारसपुर के दर्शनीय स्थल के रूप में मानसरोवर तालाब का नाम है, लेकिन मानसरोवर और अमर्राताल की जगह अब सैकड़ों बीघे के खेत हैं।

घटेरा के तालाब के निर्माण और फुरतला से उसके सम्बन्ध के बारे में वहाँ के पटेल श्री तुलाराम लोधी और गुरुगादी के महन्त श्री प्रभुदास जी ने जानकारी उपलब्ध कराई। इस तालाब के साइफन सिस्टम को वहाँ पदस्थ सिंचाई विभाग के उपयंत्री श्री जे.एन. पौराणिक ने समझाया। तालाबों पर भोइयों की निर्भरता और तालाबों के नष्ट हो जाने के बाद उनकी दुर्दशा के बारे में घटेरा के ही 90 वर्षीय श्री पन्नालाल भोई ने ध्यान दिलाया। उन्होंने ही सिंघाड़ी की खेती समझाई।

सिरोंज की तालाब सम्बन्धी जानकारी वहाँ के पुरातत्त्व प्रेमी साहित्यकार श्री वीरनारायण शर्मा वकील और शिक्षक श्री सादिक अली खान ने उपलब्ध कराई। उन्होंने ही तालाब के किनारे बने कुओं के नए-पुराने उपयोग के बारे में बतलाया। तालाब पर 1992-93 में लाखों रुपए खर्च किये जाने के बावजूद, अब गर्मियों में बूँद-भर पानी भी नहीं बचता है।

सिरोंज के श्री अवधनारायण श्रीवास्तव ने ‘सरोवर हमारी धरोहर’ योजना की इन खामियों की ओर ध्यान दिलाया। सिरोंज के तालाब के बारे में लिखते समय श्री घनश्याम शरण भार्गव की पुस्तक ‘सिरोंज का इतिहास’ से भी सहारा मिला। चूनगरों के बारे में मो. याकूब खां (मुन्ने भाई) ने काफी जानकारी उपलब्ध कराई। पहले उन्होंने और फिर श्री सुकमाल जैन ने चूनगरों के मोहल्ले में ले जाकर चूनगरों से मिलवाया भी।

सिरोंज की पच-कुइयाँ वहाँ के पुराने निवासी श्री सुकमाल जैन ने ही दिखाई और उन्होंने तथा श्री उमाकान्त शर्मा ने उनके उपयोग के बारे में काफी विस्तार से बताया।

पुराने लेखकों ने सिरोंज के वस्त्र उद्योग के बारे में काफी कुछ लिखा हैं। फ्रांसिसी यात्री ट्रेवेनियर ने तो सिरोंज की मलमल की यह कहते हुए तारीफ की है कि वह इतनी बारीक़ होती थी कि पहनने वाला निरावृत्त दिखता था। फूलों और दूसरे देशी तरीकों से बनाए गए रंगों के इस्तेमाल से सिरोंज में निर्मित कपड़े ज्यादा चटखदार नजर आते थे।

उस दौर में कपड़े-सेमल, छेबले, अडूसा, साल, नीलबर्री और धबई के फूलों को गोंद, फिटकरी और गेरूई से मिलाकर बनाये गए रंगों से रंगे और छापे जाते थे। इस तरह से छापे गए कपड़ों के थान, नदी की रेत पर फैला कर बार-बार सुखाए जाते थे और पूरा सूखने से पहले उन्हें फिर से भिगोया जाता था। बाद में उनका एक सिरा नदी किनारे खूंटी से बाँध कर थान को बहते हुए पानी में छोड़ दिया जाता था। इससे कपड़े का कच्चा रंग जल-प्रवाह के साथ खुद बहकर निकल जाता था और छापे तथा रंग चटखदार होकर उभर आते थे। छपाई के इस पुराने तरीके में पानी की बहुत बड़ी मात्रा में जरूरत होती थी। कई नदियों के पानी में मौजूद तत्वों की वजह से उनमें रंगे गए पकड़े एक अलग किस्म का असर छोड़ते थे। तब ऐसी नदियों के किनारे की बस्तियों में कपड़ों की रंगाई और छपाई का काम केन्द्रित हो गया था। सिरोंज की कैथन नदी के बारे में यही बात मानी जाती रही है और इसका जिक्र ट्रेवेनियर ने भी किया है।

निर्यात करने के लिये बड़ी मात्रा में निर्मित कपड़ों की धुलाई और उसकी रंगाई-छपाई, फिर कागज उद्योग और उस पर भी भारवाहक पशुओं के काफिलों की लगातार आवाजाही! अनुमान लगाया जा सकता है कि छोटी सी कैथन नदी के पानी पर इस सबका क्या असर पड़ता होगा? ऐसे में शहर के उद्योग-धंधे भी चलते रहें और लोगों को पीने के लिये साफ और मीठा पानी भी मिलता रहे, इसीलिये सिरोंज की कैथन नदी के तल में जल प्रवाह से अलग-अलग ऊँचाइयों पर पाट बनाकर कुएँ-कुइयों का निर्माण किया गया था।

आज भी जब किसी वजह से सिरोंज की आधुनिक पेयजल व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है तो तालाब किनारे और नदी तल के मीठे जल के स्रोतों पर भीड़ उमड़ पड़ती है। नदी तल के कुएँ-कुइयों पर सामग्री जुटाने में श्री उमाकान्त शर्मा, श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा, श्री सुकमाल जैन, श्री वीरारायण शर्मा, श्री रमेश यादव सहित श्री घनश्याम शरण भार्गव की पुस्तक ‘सिरोंज का इतिहास’ से बहुत मदद मिली। फूल पत्तों से रंग बनाने और देशी तरीके से कपड़े छापने की पुरानी तकनीक के बारे में गंजबासौदा के सौ वर्षीय रंगरेज श्री अब्दुल हमीद ने बहुत बारीकी से समझाया।

सिरोंज के श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने निखट्टू नाम के उस कुएँ के बारे में दिलचस्प जानकारी दी जिसमें पानी तो बहुत है, लेकिन खारा है तो उसका नाम धरा गया निखट्टू, यानि की किसी काम का नहीं। लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि पहले जब गर्मियों में शहर के तमाम खारे पानी के कुएँ सूख जाते थे तो फिर निस्तारी पानी की जरूरतें ‘निखट्टू’ ही पूरी करता था। अब सिरोंज की ‘निखट्टू’ नगरपालिका न उस कुएँ की देखभाल कर पा रही है और न ही मीठे पानी के दूसरे दर्जनों जल-स्रोतों की।

लटेरी के तालाबों के बारे में हमे अनेक सूचनाएँ श्री श्याम चतुर्वेदी और श्री दिनेश पाराशर से मिली। श्री चतुर्वेदी ने हमे ले जाकर लटेरी का न केवल हनुमान ताल दिखाया, बल्कि तालाब के किनारे बसे मोहल्ले बरबटपुरा की दर्जन-भर वे कुइयाँ भी दिखाई, जिनकी गहराई कुल जमा पन्द्रह फुट होती है, जिनमें दस फुट पानी भरा रहता है। यह पानी तब तक भरा रहता है जब तक हनुमान ताल नहीं रीतता, लेकिन हनुमान ताल, लटेरी इलाके में अकेला तालाब नहीं था- जल संकट से जूझती इस बस्ती और आसपास हनुमान ताल सहित सात तालाब हुआ करते थे। बाकी के तालाबों के नाम श्री दिनेश पाराशर ने धनाताल, दाऊ ताल, गुरजिया ताल, काकरताल, मोतिया ताल गिनाए। ये सब तालाब अब खेतों में बदल दिये गए हैं, बाकी बची है, तो गोपी तलाई, सो इसलिये, क्योंकि सगड़ा-धगड़ा नाम के पहाड़ों से उतरा पानी, गोपी तलाई से ही सेन (फिर सिंध) नदी और सगड़ नदी बन कर बहता है।

पानी के लिये सिरोंज-लटेरी का पूरा इलाका अभिशप्त सा है। ज़मीन में बहुत नीचे तक पानी नहीं है, सो कुएँ-बावड़ियों की असफलता से सबक लेकर पुराने लोगों ने इलाके-भर में अनगिनत तालाब बनवाए थे। ऐसा ही एक तालाब बड़ी रुसल्ली में है। इस तालाब और वहाँ के जल-संकट के बारे में श्री रणधीर सिंह बघेल ने काफी दिलचस्प जानकारी उपलब्ध कराई।

‘‘धरम-करम को महुआ खेड़ो, पाप की पगरानी,
बड़ी रुसल्ली कोई मत जइयो, छौंछन नईयाँ पानी’’


जल-संसाधनों युक्त इस देश में दिन-प्रतिदिन व्यापक और तीव्र होता जा रहा जल संकट! इससे बड़ी बिडम्बना और क्या होगी? जिस अदूरदर्शिता का परिचय हमारी राष्ट्रीय सरकारों ने अपनी योजनाओं के बनाने और उनके क्रियान्वयन में दिया, वही हमने प्रादेशिक, नागरिक, ग्रामीण और घरेलू स्तर पर दिया। लुप्त होते गए जंगल और गुम होते गए तालाब हमारी अदूरदर्शिता और लापवाही के नतीजे हैं। हमारी आर्थिक दुर्दशा का सूत्रपात भले ही अंग्रेजी राज ने किया हो परन्तु उसको और भी व्यापक और गहन बनाने का काम हमने स्वयं ही किया है।

हमारी प्रमुख समस्या है आज़ादी के बाद बहुत तेजी से बढ़ने वाली केन्द्रीयकरण और सरकारीकरण की प्रवृत्ति जिसके कारण न केवल आय के स्रोत बल्कि सभी प्रकार के उत्तरदायित्व भी सरकार के पाले में चले गए। स्थानीय संस्थाएँ पंगु हो गई और इस प्रवृत्ति ने स्थानीय समस्याओं को गौण बना दिया। विशाल राष्ट्रीय फलक पर बनाई जाने वाली योजनाओं में छोटे-मोटे शहरों और गाँवों की स्थानीय समस्याओं को खुर्दबीन से भी देख पाना कठिन है। किसी बड़ी परियोजना के लिये जब हजारों एकड़ भूमि डूब में आना और वन सम्पत्ति का सम्पूर्ण विनाश हो जाना या, हजारों-लाखों परिवारों को अपनी ज़मीन से उखाड़ कर सड़क पर या बियावनों में फेंक देना, हमें विचलित नहीं करता तो किसी शहर या गाँव के तलाबों, पेड़-पौधों या पशु-पक्षियों की क्या बिसात?

पर्यावरण का एक आध्यात्म भी है। हमारी आर्ष संस्कृति में प्रकृति और पुरुष की अवधारणा थी। अतएव प्रकृति से मानव का सम्बन्ध रागात्मक था। पाश्चात्य विज्ञानजनित संस्कृति में प्रकृति को मनुष्य की दासी और भोग्या मानकर उसके शोषण का सिद्धान्त पनपा और मानव जनसंख्या की अनाप-शनाप वृद्धि के साथ-साथ प्रकृतिक संसाधनों का ऐसा दोहन हुआ कि प्रकृति अब रक्त-रस विहीन और रुग्ण हो चुकी है। अब हम उसकी मांस-मज्जा चूसकर अपनी भूख मिटाने में लगे हुए हैं। यह क्रम कब तक चल सकता है? वैज्ञानिकों के अनुसार मात्र दो-तीन दशक और। विकास द्वारा विनाश की आधारशिला रखने वाले हमारे वैज्ञानिक, योजना शिल्पी, राजनेता और अर्थशास्त्री अब इस स्वरचित बीहड़ में हाँक लगाकर हमे शेर के आने की सूचना ही दे पा रहे हैं। शेर का सामना करने के लिये कोई अस्त्र-शस्त्र दे पाना शायद अब उनके लिये भी बहुत मुश्किल हो गया है।

प्रश्न अब केवल यह है कि हम कितनी जल्दी जागते हैं? समय कम है परन्तु अभी भी समय है। पर अपने संकटों का निवारण अथवा समस्याओं का समाधान हर व्यक्ति, हर मोहल्ले, हर गाँव और हर कस्बे को अपने-अपने स्तर पर भी ढूँढना सबसे ज्यादा जरूरी है।

कहावत उन्होंने ही सुनाई थी। बड़ी रुसल्ली में लम्बा-चौड़ा तालाब होने के बावजूद, यह कहावत बनी और चली, तो इसलिये कि पहले कभी, तालाब के फूटते ही गाँव के दूसरे जलस्रोत भी सूख गए। फिर तो, हालत यह रही कि गर्मियों मे नहाने-धोने की कौन कहे, नित्य क्रियाओं के लिये भी पानी के लाले पड़ जाते थे। गर्मियों में परेशान ग्रामीण सूखे तालाब में झिरियाँ खोदते। सात हाथ की गहराई पर पानी मिलता, लेकिन बस इतना कि एक ही परिवार का काम चलता।

हर परिवार की अलग झिरिया होती। पानी की चोरी भी हो जाती। ग्रामीण अपनी झिरियों के इर्द-गिर्द काँटों की बागड़ लगा देते। कई घरों के बूढ़े-पुराने तो गर्मियों में झिरियों के पास ही खटियाँ डाल कर सोते। यह हालक चंद सालों पहले तक रही, फिर नलकूप खुद गया। सरकार ने तालाब की भी मरम्मत करवा दी, सो कुछ राहत मिल गई है।

जिले का मशहूर पर्यटन स्थल उदयपुर, राजा भोज के वंशज उदयादित्य परमार ने बसाया था। इस विशाल नगर के साथ उन्होंने उदयेश्वर मन्दिर और उदय समुद्र नाम का विशाल तालाब भी बनवाया। ये सभी निर्माण संवत 1116 के आसपास हुए थे। इसी के कुछ समय बाद राजा नरवर्मन के शासन काल में विक्रम नामक ब्राह्मण ने पास ही अमेरा गाँव में एक विशाल तालाब बनवाया था। तालाब तो अब रहा नहीं बस बची हैं उसकी ऊँची-ऊँची पाल या बचा है संग्रहालय में सुरक्षित वहाँ मिला शिलालेख जो आज भी तालाब निर्माता की कीर्तिगाथा सुनाता है। इन सबके बार में ‘विदिशा गजेटियर’ समेत अनेक पुस्तकों में सामग्री उपलब्ध है।

उदयपुर के कुओं-बावड़ियों और तालाबों के बारे में उदयपुर के मनमौजी साहेब कुंजीदास ने पता नहीं कितने कहानी-किस्से सुनाए। ‘साहेब’ से ही माता के उस ‘जस’ को सुना और श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा से उसका मतलब समझा, जिसे पहले पता नहीं कितनी बार सुना था। पूरे बुन्देलखण्ड में नवरात्रि पर गाया जाने वाला माता का ‘जस’ अंचल के गाँवों में शायद ही कोई ऐसा हो, जिसने न सुना हो। साहेब कुंजीदास का तो पक्का विश्वास था कि ‘जस’ में उदयपुर पर हुए हमले की ही गाथा है।

‘जस’ में कहीं की भी कथा कही गई हो, पर उसमें तत्कालीन राजनैतिक उथल-पुथल और उसकी वजह से जलस्रोतों और बाग-बगीचों के नष्ट होने का उल्लेख इस तरह आया है :

इकलख चढ़े तुरकिया रे, दुई लाख पठान
फौजें चढ़ी मुगल की, दिल्ली सुल्तान
कटन लगे तेरे आम, नीम, महुआ, गुलजार
बेला, चमेली, रस केवड़ा, लौंगन के झाड़, लटकारे अनार
पुरन लगे तेरे कुआँ-बावड़ी, गौ मरे प्यास, वामन अस्नान
राजा जगत सेवा करी ओ माय…


उदयपुर में पिछले बरसों नल-जल योजना डाल दी गई है, लेकिन देश भर की तमाम नल-जल योजनाओं की तरह वहाँ भी हाल-बेहाल है। उसकी हकीक़त वहाँ के श्री प्रकाशपाल ने बताई। तालाब नष्ट हो जाने से वहाँ के कुएँ-बावड़ियाँ भी सूख गए हैं। फिर भी, गर्मियों में ग्रामीणों को बचे-खुचे कुएँ-बावड़ियों का ही सहारा रहता है।

गुलाबरी गाँव के पक्के, शानदार, संरक्षित कर देने लायक तालाब को देखने से भी पहले मजदूरी चुकाने की ‘कुड़याब’ व्यवस्था के बारे में पहली बार वहाँ के श्री बाबूलाल लोधी से सुना था। तालाब की मरम्मत 80-90 साल पहले हुई थी। तालाब देखकर लौटने के बाद ‘कुड़याब’ के गणित के बार में गंजबासौदा के पुरातत्व प्रेमी श्री रतन चंद मेहता ने समझाया। दूसरी कई बहुमूल्य जानकारियों के साथ श्री मेहता के संग्रहालय में मौजूद पुरानी पुस्तकों से भी बहुत मदद मिली।

गुलाबरी से कुछ ही दूर है अनवई गाँव का तालाब, जहाँ के लोगों को पिछले कुछ बरसों में आये ऐसे तीन मौके याद हैं, जब खलिहानों में आग लगी तो गाँव वालों ने तालाब से पानी उलीचकर खलिहान बचाए थे। यही वजह है कि अब तालाब की पाल के ठीक नीचे ही गाँव भर के खलिहान बनाए जाते हैं। तालाब दक्षिण की तरफ से तो पहले से ही पुरता चला आ रहा है। अब 1995 में उत्तर की तरफ की पाल भी फूट गई है। आने वाले दिनों में खलिहान भले ही तालाब किनारे बनाए जाते रहें, लेकिन तालाब में पानी नहीं रहेगा।

हैदरगढ़ का जल-प्रबन्ध इस इलाके में अपनी तरह का अकेला है। इस तरह की व्यवस्था जल-संकटग्रस्त रहे राजस्थान में ‘टांका’ परम्परा के रूप में जगह-जगह मिलती है। फिजूल बह जाने वाले बारिश के पानी को समेटकर पेयजल जुटाने का यह आदर्श-तंत्र वहाँ के नौजवान श्री गुलाबचंद भावसार की मदद से देख-समझ सके। वहाँ के पूर्व नवाब परिवार के श्री बख्तियार अली ने भी इस जल-प्रबन्ध के बारे में कई दिलचस्प जानकारियाँ उपलब्ध कराई। अब विदेशी मदद से हैदरगढ़ में पीने के पानी का आधुनिक इन्तजाम किया जा रहा है। श्री भावसार के मुताबिक विशेष मशीनों से किये गए चौदह इंच के नलकूप में पानी तो खूब निकला है लेकिन उसकी वजह से आसपास के करीब बीस कुएँ सूख गए हैं और कछवाड़े बर्बाद हो गए हैं।

हैदरगढ़ का किला जिस पहाड़ पर बना है उसी के ठीक नीचे है तालवैड़ तालाब, जो इस सोच के साथ बनाया गया था कि इससे हैदरगढ़-मोहम्मदगढ़ का सीमा सम्बन्धी विवाद तो सुलझे ही, जो पक्की दीवाल बने उससे तालाब भी बन जाये। तालवैड़ तालाब को अब मृगननाथ तालाब कहा जाता है। इसका जिक्र ग्वालियर स्टेट की दुर्लभ तालाब-रिपोर्ट में भी है।

अटारी खेजड़ा गाँव में मूक पशुओं के लिये चालीस साल तक लड़कर हारने के बावजूद जीती गई लड़ाई की प्रेरक कहानी के बारे में पहली दफा वहाँ पदस्थ सरकारी डॉक्टर आनन्द गोरे ने बताया था। बाद में डॉ. गोरे ने कहानी के नायकों से भी मिलवाया। गाँव के हरिसिंह पटेल, बाबूलाल रघुवंशी और दूसरे कई बुजुर्गों ने लम्बी लड़ाई की पुरी कहानी सुनाने के साथ-साथ सरकारी ठंडे रवैये के बारे में भी बताया। लेकिन अटारी खेजड़ा के ग्रामीण सरकार के भरोसे नहीं बैठे हैं, वे अब तालाब की उपजाऊ मिट्टी खोद-खोद कर अपने खेतों में डाल रहे हैं ताकि तालाब गहरा हो जाये।

‘कहाँ गुम होते जा रहे हैं ये तालाब’ अध्याय का आधार पूर्व ग्वालियर राज्य द्वारा प्रकाशित एक दुर्लभ रिपोर्ट है। तब के भेलसा जिले के तालाबों पर यह रिपोर्ट सन् 1916 में छापी गई थी। तकनीकी शब्दावली को समझना कठिन था, सो उसे इंजीनियर श्री विजय महाजन और सब इंजीनियर श्री एम.एल. कोरी ने समझाया। उनके द्वारा उपलब्ध कराए गए अपेक्षाकृत कम जटिल आँकड़ों को बोधगम्य बनाने में श्री दीपकराज दुबे की बड़ी मदद रही।छप्पनियाँ काल के बारे में फुटकर चर्चाएँ जगह-जगह सुनने को मिलती है, लेकिन उसके बारे में विस्तार से गंजबासौदा के श्री लालता प्रसाद श्रीवास्तव और श्री रतनचन्द मेहता ने बतलाया।

गंजबासौदा के ही श्री भईया लाल नामदेव ने उस दुष्काल की भयावहता पर बनी कहावत यत्नपूर्वक याद करके सुनाई कि-

छप्पनिया के काल में समय कहे कि देख,
बेर-करौंदा यों कहें मरन न दैहें एक।


ऐसे में लोगों का पलायन रोकने के लिये तत्कालीन रियासत ने तालाबों की मरम्मत और निर्माण का लम्बा सिलसिला चलाया था।

तालाबों के सिलसिले में खमतला का जिक्र जरूरी है जो श्री भरत लढ्ढा और श्री जेठाभाई के सौजन्य से देखने को मिला। मोटी शिलाओं से बना खमतला का खम (खम्ब) शायद तालाब की गहराई नापने के लिये बनाया गया था। खम अ‍ैर तालाब किनारे पड़ी मूर्तियाँ चौथी-पाँचवी सदी की जान पड़ती हैं। साँची के स्तूप और उदयगिरी की गुफाओं से कुछ ही फासले पर बसे गाँव खमतला में तालाब की सफाई की अपनी व्यवस्था थी। तालाब पर निर्भर प्रत्येक ग्रामीण परिवार को जरूरत पड़ने पर अपनी खेती के अनुपात में तालाब की सफाई करानी होती थी। कौन कितनी मिट्टी निकालेगा यह मन्दिर के गुरू महाराज तय करते थे आखिरी दफा इसकी सफाई गुरू महाराज ने तीस बरस पहले कराई थी और बिना हुकम-हजूरी और मदद के ग्रामीणों ने बातों-ही-बातों में गहरा कर डाला था। इस पुरानी परम्परा के बारे में गाँव के श्री लक्ष्मण सिंह ने बताया और वहीं के श्री गोविंद चौबे ने समझाया।

खमतला गाँव से जब अपने दम पर तालाब साफ करने का चलन खत्म हो गया तो यह शानदार तालाब भी अब सूख जाता है। गाँव का पशुधन अब दो किलोमीटर दूर बेस नदी पर पानी पीने जाता है।

गहरे हैण्डपम्पों के पानी में फ्लोराइड और आर्सेनिक से पैदा समस्या पर चर्चा के दौरान डॉ. विजय शिरढौणकर ने सत्तर के दशक में झाबुआ में जगह-जगह लिखे गए उस सरकारी नारे, ‘कुएँ-बावड़ियों का छोड़ो साथ, हैण्डपम्पों का पकड़ो हाथ’ के बारे में बताया। वे जब झाबुआ में डॉक्टर थे, तब इस नारे का वहाँ खूब प्रचार हुआ। उन्होंने याद दिलाया कि तीस वर्ष बाद झाबुआ में भी अब हैण्डपम्पों से फ्लोराइडयुक्त पानी निकल रहा है और लोग अपाहिज हो रहे हैं।

दूरस्थ अंचल के सूखे और बदहाल तालाबों तक पहुँचने की यात्रा को सुखद बनाने और उनके बारे में पूरक जानकारियाँ उपलब्ध कराने में गंजबासौदा के सर्वश्री सुरेंद्र सिंह दांगी, डॉ. पुष्पेंद्र जैन, यशपाल यादव, जगदीश गुप्ता, चन्द्र शेखर चौरसिया ने बहुत मेहनत की, जबकि इस विषय पर लिखते सुय कुल्हार ग्राम के श्री वीरेन्द्र मोहन शर्मा, विदिशा के श्री धीरज शाहू, श्री आर. के. श्रीवास्तव और डॉ. के.डी. मिश्रा के साथ समय-समय पर हुई चर्चा से बड़ी मदद मिली। पुस्तक को सँवारने में गंजबासौदा के नवांकुर विद्यापीठ परिवार, खासकर श्री शैलेन्द्र दीक्षित, श्री शैलेन्द्र पिंगले और नम्रता यादव के साथ ही जिला पर्यावरण वाहिनी के साथियों के सुझाव बहुत उपयोगी रहे।

पुस्तक इस रूप में आ ही नहीं सकती थी यदि सम्राट अशोक अभियांत्रिकीय महाविद्यालय के संचालक और प्राचार्य श्री हरिवंश नारायण सिलाकारी ने सम्पूर्ण सामग्री को कई बार पढ़कर खुद ग़लतियाँ न सुधारी होतीं। परम्परागत जल प्रबन्ध में उनकी दिलचस्पी की वजह से ही लेखों की शृंखला ने पुस्तक का रूप लिया है।

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