कहीं बाढ़ कहीं सूखा फिर भी मानव न सीखा
आज मानव जितना विकास करता जा रहा है वह उतना ही स्वार्थी, लालची, विवेकहीन तथा अन्य चीजों से लापरवाह होता जा रहा है। उसे सिर्फ अपनी पड़ी रहती है। दूसरों की नहीं। यही कारण है कि आज मानव की गलत हरकतों की वजह से पूरे पर्यावरण में असंतुलन पैदा होता जा रहा है। सारे प्राकृतिक संसाधन क्षीण अथवा प्रदूषित होते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप आँधी तूफान, चक्रवात, सूनामी, बादल फटना तथा बाढ़ व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की होने वाली घटनाओं में इजाफा होता जा रहा है और लोग तिल-तिल कर मरते जा रहे हैं। बाढ़ व सूखा दो ऐसी प्राकृतिक आपदाएं हैं जिनसे पूरे विश्व में प्रतिवर्ष भारी मात्रा में जान-माल का नुकसान होता है। बाढ़ व सूखा वास्तव में मानसून पवनों की अनिश्चितता, अनियमितता, परिवर्तिता तथा मानव की अवांछनीय गतिविधियों का परिणाम हैं। अन्य देशों का क्या कहें खुद हमारे देश में वर्षा के वितरण और प्राप्त मात्रा में भारी असमानताएं मिलती हैं।
जिसकी वजह से किसी क्षेत्र में अतिवृष्टि से बाढ़ आ जाती है और किसी क्षेत्र में अनावृष्टि से सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही कारण है कि भारत में बाढ़ और सूखे की समस्याएं कुछ ज्यादा ही देखने को मिलती हैं। यहां हर साल कुल क्षेत्रफल का लगभग 12 प्रतिशत भाग बाढ़ से तथा 70 प्रतिशत भाग सूखे से प्रभावित रहता है। हाल के वर्षों में इन प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं में काफी वृद्धि हुई है जिसका मुख्य कारण मानव तथा उसकी अवांछनीय गतिविधियाँ हैं।
मनुष्यों द्वारा जैसे-जैसे प्राकृतिक वस्तुओं के विनाश में तेजी आती जा रही है, वैसे-वैसे इन प्राकृतिक घटनाओं में भी तेजी आती जा रही है। अब इन प्राकृतिक घटनाओं को बढ़ाने के लिए कौन-कौन से मानवीय कारक जिम्मेदार हैं उनमें से कुछ का वर्णन नीचे किया जा रहा है :
1. वनों की अंधाधुंध कटाई :
वनस्पतियाँ धरती पर प्रकृति द्वारा बनाई गई सबसे बहुमूल्य निधि है। इनसे प्राणियों को न सिर्फ भोजन, आवास, सुरक्षा तथा शुद्ध वायु मिलती है बल्कि ये बाढ़ व सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाओं से हमारी रक्षा भी करती है। ये न सिर्फ मानसूनी हवाओं को रोककर वर्षा करवाती हैं, बल्कि वर्षा जल की तीव्र बहने वाली धारा को मंद करती हैं तथा वर्षा जल को सोखकर भूगर्भीय जल की मात्रा को बढ़ाती हैं।
वनस्पतियों की वजह से ही वर्षा जल ऊँचे-ऊँचे पर्वतों, टीलों, पहाड़ियों तथा मैदानी क्षेत्रों की भूमि के नीचे संरक्षित हो जाता है। यह संरक्षित जल खुद वनस्पतियों के काम तो आता ही है साथ ही साथ यह संरक्षित जल वर्षा के अलावा वर्ष के अन्य महीनों में भी स्रोतों व झरनों द्वारा नदियों-नालों, झीलों, कुओं, तालाबों, आदि में रिसता रहता है। इससे ये जलाशय पूरे वर्ष भरे रहते हैं। वे सूखते नहीं हैं। इसके अलावा वनस्पतियां अपनी जड़ों द्वारा मिट्टी को कसकर बांधे रहती हैं जिससे वर्षा के समय मिट्टी का बहाव तथा भूस्खलन जैसी समस्याएं कम उत्पन्न होती हैं। इससे हमारे जलाशय पटते नहीं हैं।
लेकिन वनों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा जल के साथ भारी मात्रा में मिट्टी बहकर जलाशयों को पाट देती है जिसकी वजह से उन जलाशयों की जलधारण क्षमता कम हो जाती है। ऐसे में तनिक भी वर्षा होेने पर वर्षा का जल उन जलाशयों के किनारों को पार करके उसके आस-पास के इलाकों में बाढ़ का रूप ले लेता है और वर्षा के समाप्त होते ही पटे हुए जलाशय सूख जाते हैं। इतना ही नहीं वनस्पतियां सूनामी, तूफान तथा चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं की गति को भी कम करने में मदद करती हैं।
कुछ वर्ष पहले इस धरती पर जहाँ 50 प्रतिशत क्षेत्रफल में वन पाए जाते थे वहीं पर अब महज 30 प्रतिशत क्षेत्रफल में ही वन पाए जाते हैं। भारत जैसे जनसंख्या बाहुल्य देश में तो यह आंकड़ा और भी कम है। यहां के कुल क्षेत्रफल के लगभग 20-21 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन रह गए हैं और जो बचे भी हैं उनका भी तेजी से विनाश जारी है।
एक आंकड़े के अनुसार हमारे देश में कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने, सड़कों-रेलमार्गों का निर्माण करने, भवन बनाने, ईंधन हेतु लकड़ी प्राप्त करने आदि कारणों से प्रतिवर्ष लगभग 13 लाख हेक्टेयर वन समाप्त कर दिए जाते हैं जो बहुत ही शर्मनाक बात है।
2. नदियों, नालों, झीलों के कगारों तथा टीलों की जुताई-बुवाई करना :
नदियों, नालों, झीलों तथा तालाबों के ऊँचे-ऊँचे कगारों, टीलों पर अनेक प्रकार की वनस्पतियों (पादप) पाई जाती हैं। जिनसे हम सबको परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से काफी लाभ मिलता है। ये वनस्पतियाँ प्राणियों के लिए न सिर्फ शरण स्थल हैं, उनका भोजन हैं बल्कि अपनी जड़ों से मिट्टी को बाँधकर रखती हैं जिसकी वजह से कगारों, टीलों की मिट्टी जलाशयों में नहीं जा पाती और जलाशय की पर्याप्त जलधारण की क्षमता बनी रहती है। लेकिन अब ऐसा नहीं है।
अब लोग कगारों तथा टीलों की वनस्पतियों को साफकर वहां बुआई-जुताई करने लगे हैं जिससे प्रतिवर्ष वर्षाजल के साथ हजारों-लाखों टन मिट्टी बहकर उन जलाशयों को पाटती जा रही है। ऊपर से ऐसे स्थानों से वनस्पतियों के रहते जितना आर्थिक लाभ होता था उसका चौथाई भाग भी फसलोत्पादन से नहीं मिल पाता। फिर भी लोग कगारों, टीलों की जुताई-बुआई करना बंद नहीं कर रहे हैं।
3. वन्य प्राणियों की हत्या :
मनुष्य आजकल इतना स्वार्थी, लालची व दयाहीन हो गया है कि वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के चक्कर में कुछ भी आगा-पीछा नहीं देखता। उसमें वन्य प्राणियों के लिए तो नाममात्र का भी दया भाव नहीं रह गया है। वह अकारण ही वन्य प्राणियों का वध कर देता है। यही कारण है कि धीरे-धीरे करके आज हमारे वनों से वन्य प्राणी समाप्त होते जा रहे हैं। कई तो इस धरती से विलुप्त भी हो चुके हैं। ये वन्य प्राणी हमारे पारितंत्र के प्रमुख घटक हैं।
जिस तरह से वनस्पतियां वन्य प्राणियों के लिए आवश्यक हैं ठीक उसी तरह वन्य प्राणी भी वनस्पतियों के लिए आवश्यक हैं। शेर, बाघ, चीता, तेंदुआ, मगरमच्छ, घड़ियाल, अजगर आदि मांसाहारी वन्य प्राणी जहाँ हमारे जंगलों के रखवाले हैं, उनके डर से लोग जंगलों की लकड़ियाँ नहीं काटते वहीं हिरण, सेंही, ऊँट, जेब्रा, नील गाय, साँभर आदि शाकाहारी वन्य प्राणी पादपों की पत्तियों, टहनियों आदि को खाकर माली का काम करते हैं जिससे वनस्पतियों में नए-नए पत्ते व कल्ले निकलते हैं। इससे उनका तेजी से विकास होता है।
तीतर पक्षी एक दिन में लाखों-करोड़ों की संख्या में दीमकों का भक्षण कर जहाँ दीमकों से वनस्पतियों की रक्षा करता है वहीं पर सर्प चूहों को खाकर, छिपकलियाँ तथा मेढ़क कीड़े-मकोड़ों को खाकर उनसे वनस्पतियों की रक्षा करते हैं। इस तरह प्राणी व पादप दोनों एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति करते रहते हैं।
4. बांधों व मेड़ों को तोड़ना :
जल संकट आज का कोई नया संकट नहीं है। वह धरती पर बहुत पहले से ही व्याप्त था, तभी तो पुराने जमाने में भी लोगों द्वारा बड़े-बड़े बांधों व तालाबों के बनाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। महाभारत कालीन तालाबों में ब्रह्मसरोवर, कर्णझील, शुक्र तालाब तथा ग्यारहवीं सदी में राजा भोज द्वारा बनवाया गया भोपाल का विशालतम तालाब जल संकट समाधान केे बहुत ही पुराने और उम्दा उदाहरण रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमारे देश में अनेक छोटे-बड़े बांधों व तालाबों का निर्माण किया गया था जिससे बाढ़ व सूखे से कुछ हद तक निजात मिल गई थी। लेकिन अब लोग लोभ-लालच में पड़कर उनको तोड़कर उस पर खेती करने लगे हैं तथा उसकी मिट्टी से घर-द्वार, स्कूल, कालेज आदि की जमीन पाटने लगे हैं। इससे पुराने बाँधों व तालाबों में वर्षा का पानी नहीं टिक पाता जिसकी वजह से सूखे की स्थिति दिन-प्रतिदिन और बढ़ती जा रही है।
5. तालाबों, पोखरों, बावड़ियों आदि को पाटना तथा उनमें वर्षा जल को न आने देना :
प्राचीन काल से ही तालाब तथा पोखर हमारे देश में फसलों की सिंचाई करने तथा पीने के लिए शुद्ध पानी के स्रोत रहे हैं। ये जल स्रोत वर्षा जल को सुरक्षित रखने के सबसे सरल व उपयोगी स्रोत रहे हैं। ये जलाशय भूगर्भीय जल को बढ़ाने में भी काफी मददगार होते हैं। ये ऐसे स्थानों में बनाए जाते थे जहाँ पर कम से कम दो-तीन भागों से वर्षा का जल बहकर जरूर आता था। कहते हैं भोपाल के विशालतम तालाब में कुल 365 नदी-नालों का पानी इकट्ठा होता था, परंतु अब ऐसा नहीं है।
अब लोग पुराने बने तालाबों, पोखरों को अवैध रूप से कब्जाकर उस पर अपना मकान, ऑफिस, कारखानें आदि बनाने में लगे हैं तथा उनमें आने वाले वर्षा जल के रास्ते में मेड़ें, सड़कें आदि बनाकर अथवा कूड़ा-करकट डालकर पाटते जा रहे हैं जिसकी वजह से वर्षा का पानी उन जलाशयों में आने के बजाए दूसरी तरफ नदी-नालों में चला जाता है। ऐसे तालाब वर्ष भर सूखे रहते हैं। यही कारण है कि हर गाँव में 2-4 तालाब व पोखरें होने के बावजूद भी लोग पानी के लिए तरसते रहते हैं।
6. भूगर्भीय जल का अंधाधुंध दोहन :
अधिक सिंचाई वाली फसलों को बोने, भूगर्भीय जल को निकालने के नए-नए तरीकों का विकास होने तथा नहाने व धोने में पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने आदि कारणों से आज लोग आवश्यकता से ज्यादा जल का दोहन करने लगे हैं। चूंकि अब ज्यादातर जलाशय सूखे ही पड़े रहते हैं, इसलिए लोग भूगर्भीय जल से अपना काम चलाते हैं।
पहले जहाँ रस्सी, बाल्टी से कुंओं द्वारा पानी खींच कर लोग 10-12 लीटर में ही संपूर्ण स्नान कर लेते थे वहीं पर अब पंपों, ट्यूबवेलों, समर्सिबल आदि से लोग भूगर्भीय जल को निकालते हैं तथा 10-12 लीटर पानी से नहाने की बजाए सैंकड़ों लीटर पानी से नहाते हैं और हजारों लीटर पानी को व्यर्थ में बहा देते हैं।
इतना ही नहीं पहले जहाँ सूखे हुए खेतों की लोग सिंचाई किया करते थे वहीं पर अब विद्युत से चलने वाली पंपों के लग जाने से पानी से भरे हुए धान के खेतों में भी बारिश का पानी भरते रहते हैं। मजे की बात देखिए अब लोग अपने विद्युत पंपों के स्विच ऑफ नहीं करते ताकि लाइट कटने व आने पर मोटर चलाने का बार-बार का झंझट न रहे। इन तमाम कारणों से भूगर्भीय जल प्रतिवर्ष नीचे खिसकता जा रहा है।
7. कहीं भी घर बना लेना :
पुराने जमाने के लोग जब घर मकान बनाते थे तो काफी सोच विचार के बाद बनाते थे। ताकि बाढ़, सूखा, चक्रवाती तूफान आदि से उनका वह आशियाना बचा रहे। लेकिन अब ऐसा नहीं है, लोग घर/मकान बनाते वक्त तनिक भी विचार नहीं करते। उनको जहाँ भी खाली जगह दिखी वहीं पर अपना घर बना लेते हैं ऐसे में चोटी पर घर बनाकर रहने वाले लोग जहाँ पूरे वर्ष भर पानी के लिए तरसते रहते हैं वहीं पर निचले इलाकों में जलाशयों के किनारे घर बनाकर रहने वाले लोग तनिक भी वर्षा होने पर बाढ़ की चपेट में आज जाते हैं। फिर भी ऐसे लोग अपने आपको इन आपदाओं के लिए जिम्मेदार नहीं मानते और न ही इन आपदाओं से बचने का कोई रास्ता खोजते हैं।
8. बाँधों व तालाबों का प्रचुर मात्रा में निर्माण न करना :
धरातल की विभिन्नता, जलवायु व मिट्टी के गुणों में असमानता आदि कारणों से जल राशि का ज्यादातर हिस्सा ढाल की ओर बहकर नदियों-नालों से होता हुआ सागरों तथा महासागरों में चला जाता है। वह हम लोगों के किसी काम का नहीं रहता। ऐसे में वर्षा जल रोकने का सबसे कारगर तरीका बांधों व तालाबों का निर्माण करना है। इनका निर्माण हो जाने से वर्षा जल को जगह-जगह रोककर न सिर्फ सूखे से निजात पाई जा सकती है, बल्कि निचले इलाकों में आवश्यकता से ज्यादा वर्षा जल के एकाएक पहुँच जाने से होने वाली भयंकर बाढ़ों से भी निजात मिलेगी।
कहने का तात्पर्य यह है कि आज मानव जितना विकास करता जा रहा है वह उतना ही स्वार्थी, लालची, विवेकहीन तथा अन्य चीजों से लापरवाह होता जा रहा है। उसे सिर्फ अपनी पड़ी रहती है। दूसरों की नहीं। यही कारण है कि आज मानव की गलत हरकतों की वजह से पूरे पर्यावरण में असंतुलन पैदा होता जा रहा है।
सारे प्राकृतिक संसाधन क्षीण अथवा प्रदूषित होते जा रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप आँधी तूफान, चक्रवात, सूनामी, बादल फटना तथा बाढ़ व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की होने वाली घटनाओं में इजाफा होता जा रहा है और लोग तिल-तिल कर मरते जा रहे हैं। अगर बहुत जल्द ही मनुष्य ने अपने आपको न सुधारा तो धरती से अन्य जीव तो मरेंगे ही वह स्वयं भी अपने आपको मरने से नहीं बचा पाएगा।
संपर्क
श्री सुरेश कुमार कुशवाहा, ग्राम+पोस्ट - चिरांव, थाना-कोरांव, जिला इलाहाबाद- 212306
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