कहीं पानी भी हाथ न जला दे

हमारे लिए इन सबसे सबक लेना जरूरी है। इन्दौर हो या बंगलौर, हमें निजीकरण के रास्ते पर चलने से पहले आज की जल समस्याओं के कारणों और समस्त वैकल्पिक तरीकों का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन विदेशी सलाहकारों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने यहाँ के विशेषज्ञों, कर्मचारियों और आम लोगों के प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी से होना चाहिए। इसके साथ ही इस विषय पर व्यापक बहस भी चलाई जानी चाहिए, वरना कहीं ऐसा न हो कि कूचाम्बा के साथ-साथ इन्दौर या बंगलौर का नाम भी जुड़ जाए। हाल ही के अखबारों में समाचार प्रकाशित हुआ था कि देश के कुछ शहरों में पानी की उपलब्धता एवं आपूर्ति का काम निजी कम्पनियों को सौंपे जाने पर विचार हो रहा है। इनमें इन्दौर शहर भी शामिल है और एक ब्रिटिश कम्पनी 'टीम्स वाटर' के साथ विचार-विमर्श भी शुरू हुआ है। इस रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। हमारे देश के लिए पानी की उपलब्धता का निजीकरण शायद नई पहल होगी, मगर अफ्रिका, लैटिन अमेरिका और पूर्वी एशिया में पिछले दशक से ऐसी कई परियोजनाएँ चलाई गई हैं। यह अत्यावश्यक है कि आगे बढ़ने से पहले हम इन देशों के अनुभवों पर विचार करें और हमारे अपने देश में भी अन्य क्षेत्रों के निजीकरण के अनुभवों का अध्ययन और समीक्षा करें।

1991 में भारत में विद्युत क्षेत्र के निजीकरण का आरम्भ हुआ था। निजी कम्पनियों के साथ लगभग 90 हजार मेगावाट बिजली बनाने के समझौते पर हस्ताक्षर हुए। बड़ी गोपनीय कार्यशैली, जल्दबाजी और किसी भी जन-विमर्श का अभाव इस युग के विशेष लक्षण थे। इन कम्पनियों में से कई बहुराष्ट्रीय विदेशी कम्पनियाँ थीं। विद्युत क्षेत्र के निजीकरण के जो कारण बताए गए थे, वह थे - गम्भीर आर्थिक संकट और पूँजी का अभाव, सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षमता, सुप्रशासन का अभाव, भ्रष्टाचार और तकनीकी समस्याएँ आदि। कहा गया कि विदेशी कम्पनियों के आने से ये सारी समस्याएँ दूर हो जाएँगी। आज दस साल बाद केवल निराशा ही हाथ लगी है और यह बात स्पष्ट हो गई है कि विद्युत क्षेत्र के निजीकरण की प्रक्रिया नितान्त अपरिपक्व और बिना सोचे-समझे उठाया गया कदम था।

अब लग रहा है कि हम वही गलती दुहराने जा रहे हैं। पानी की उपलब्धता के निजीकरण और विद्युत क्षेत्र के निजीकरण में समानता है। आज पानी और बिजली ही विकास के मुख्य स्रोत बन गए हैं। दोनों का निर्माण, प्रशासन एवं आपूर्ति आदि समाज का एक नैतिक दायित्व बन गया है। अत: दोनों पर अच्छी-खासी सबसिडी भी है और दोनों का प्रबन्धन अब तक सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहा है। दोनों ही क्षेत्रों में निजीकरण के लिए वही पुराने कारण बताए जा रहे हैं, इसलिए जरूरी है कि विद्युत क्षेत्र के निजीकरण की गलतियों, उसमें उत्पन्न होने वाली समस्याओं आदि का गहराई से अध्ययन करके जल क्षेत्र के लिए सबक हासिल किया जाए।

यों तो कई दशकों से हमारे देश में पानी की उपलब्धता का एक हिस्सा निजी हाथो में ही है, लेकिन यह सब अनौपचारिक रूप से चल रहा है। जैसे टैंकर, ट्रैक्टर आदि के जरिए पानी की आपूर्ति। प्राय: यह सरकारी ठेके पर ही चलते हैं और शायद निजी क्षेत्र का हिस्सा ही माने जाएँगे। मुख्य बात यह है कि जल क्षेत्र का दायित्व या नियन्त्रण कभी इन अनौपचारिक स्रोतों के हाथ में नहीं रहा। अब जो निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई है, वह मूल रूप से अलग ढंग की है। इसमें पानी के पूरे प्रबन्धन या इसके मुख्य भागों पर निजी कम्पनियों का नियन्त्रण रहेगा।

नागरिक जल की उपलब्धता के निजीकरण का सबसे कुख्यात उदाहरण है - बोलिविया देश के कुचाम्बा शहर का। पहाड़ियों में बसी आठ लाख लोगों की आबादी के इस शहर के पानी के प्रबन्धन का ठेका 1999 में 'एगोइस देल तनारी ग्रुप ऑफ कम्पनीज' को दिया गया था। इसमें एक प्रसिद्ध कम्पनी थी अमेरिका की बैकटेल (जो एनरॉन की दाभोल परियोजना में भी हिस्सेदार है)।

ठेका देने के बाद कुछ ही दिनों में पानी का मूल्य दोगुना और तिगुना हो गया। इसके साथ ही लोगों के द्वारा कई बर्ष पूर्व गठित जल वितरण की सरकारी समितियों के पानी पर भी कम्पनी का कब्जा हो गया। मजदूर वर्ग के कई लोगों को मासिक आय का चौथा भाग सिर्फ पानी के बिल पर खर्च करना पड़ा। कम्पनी के अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि जो लोग बिल नहीं भरेंगे-हम उनका पानी बन्द कर देंगे। कम्पनी ऐसी खुली धमकी देने में जरा भी नहीं हिचकिचाई। फलस्वरूप जनता में आक्रोश बढ़ता गया और लोग सड़कों पर उतर आए। शहर के मुख्य चौराहों पर हजारों लोगों ने कब्जा कर लिया। सरकार ने बीच-बचाव करने के बजाय लोगों के सामने सेना उतार दी। मुख्य नेता गिरफ्तार किए गए। संघर्ष लम्बा और तेज होता गया। एक दिन क्रुद्ध जनता पर गोली चलाई गई और एक 17 वर्षीय लड़का मारा गया। आन्दोलन के लिए यह निर्णायक मोड़ था। फिर आन्दोलन ने जोर पकड़ा और उसके सामने किसी की नहीं चली। कम्पनी को बोलिविया छोड़ना पड़ा, लेकिन अब उसने विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में बोलिविया सरकार पर 250 करोड़ रुपये का दावा ठोका है।

यह कोई असाधारण घटना नहीं है, किन्तु कई स्थानों पर क्या हो सकता है इसका एक संकेत मात्र है। जहाँ कहीं पानी की उपलब्धता का निजीकरण हुआ है, वहाँ इस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

कुछ बर्ष पूर्व एशियाई विकास बैंक ने, जो एशिया में पानी की उपलब्धता के निजीकरण के लिए सरकारों पर भारी दबाव डाल रहा है, एशिया के दस शहरों के अनुभवों का अध्ययन कराया। इसमें मनीला, जकार्ता, कराची, कोलम्बो जैसे कई शहर शामिल हैं। इस अध्ययन के निष्कर्ष काफी महत्वपूर्ण हैं। अधिकांश शहरों में पानी का मूल्य बढ़ गया। हो ची मिन्ह सिटी में पानी के मूल्य में सात गुना तक की वृद्धि हुई है। कई शहरों में सरकार और निजी कम्पनी के बीच गम्भीर विवाद खड़े हो गए हैं। अध्ययन करने वालों ने पाया कि अधिकांश शहरों में निजीकरण की प्रक्रिया पूर्णत: अपारदर्शी थी और यह ज़न-विमर्श के बिना आगे बढ़ा दी गई थी। उन्होंने यह भी पाया कि अधिकांश शहरों में निजीकरण की प्रक्रिया को विदेशी वित्तीय संस्थाओं और ठेकेदारों ने आगे बढ़ाया था न कि आम लोगों या सरकार ने। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष शायद यही रहा कि अभी तक निजीकरण की सफलता पर निर्णय तो शेष है, लेकिन दुनिया में कई जगह सरकारी संस्थाओं ने भी आदर्श तरीकों से पानी का प्रबन्धन किया है। शहरों को निजीकरण की प्रक्रिया में ढ़केलने से पहले न तो सरकारी या सार्वजनिक संस्थाओं को बेहतर तरीके से अपना काम करने का अवसर दिया गया और न ही विदेशी निजी कम्पनियों को ऐसे अवसर प्रदान किए गए।

ब्रिटेन की एक संस्था के द्वारा कराए गए अध्ययन में पाया गया कि सार्वजनिक उपक्रम की कई संस्थाओं ने काफी बढ़िया काम किया है। निजी कम्पनियाँ आर्थिक दृष्टिकोण से ज्यादा अच्छी हो सकती है, लेकिन इस बात का भी अभी ठोस प्रमाण नहीं मिला है।

एशियाई विकास बैंक के लिए किया गया अध्ययन यह अनुशंसा करता है कि सरकारी या जन-संस्थाओं और आम लोगों को निजीकरण के अलावा अन्य विकल्पों की भी पूरी जानकारी होनी चाहिए और व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही इसे आगे बढ़ाना चाहिए।

हमारे लिए इन सबसे सबक लेना जरूरी है। इन्दौर हो या बंगलौर, हमें निजीकरण के रास्ते पर चलने से पहले आज की जल समस्याओं के कारणों और समस्त वैकल्पिक तरीकों का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन विदेशी सलाहकारों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने यहाँ के विशेषज्ञों, कर्मचारियों और आम लोगों के प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी से होना चाहिए। इसके साथ ही इस विषय पर व्यापक बहस भी चलाई जानी चाहिए, वरना कहीं ऐसा न हो कि कूचाम्बा के साथ-साथ इन्दौर या बंगलौर का नाम भी जुड़ जाए।

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