किनारों को खाते समुद्र

Mangrove
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देश के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु में समुद्र तट पर हजारों गांवों पर इन दिनों सागर की अथाह लहरों का आतंक मंडरा रहा है। समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते-ही-देखते आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है। किनारे की बस्तियों में रहने वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे कर लेते हैं।

कुछ ही महीनों में वे कई किलोमीटर पीछे खिसक आए हैं। अब आगे समुद्र है और पीछे जाने को जगह नहीं बची है। कई जगह पर तो समुद्र में मिलने वाली छोटी-बड़ी नदियों को सागर का खारा पानी हड़प कर गया है, सो इलाके में पीने, खेती और अन्य उपयोग के लिए पानी का टोटा हो गया है।

कर्नाटक में उल्लाल के पास स्थित मछुआरों का गांव काटेपुरा गत् तीन-चार सालों में कोई एक किमी पीछे खिसक चुका है। वहां बहने वाली नेत्रवती नदी से सागर की दूरी बमुश्किल सौ मीटर बची है। मरावंथे गांव किसी भी दिन समुद्र के उदरस्थ हो जाएगा। यहां उमड़ते समुद्र और नदी के बीच की महज एक पतली सी सड़क बची है।

समुद्र की जल सीमा में हो रहे फैलाव का अभी तक कोई ठोस कारण नहीं खोजा जा सका है। कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार की गई ‘राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिर्पोट’ में कहा गया है कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है। इसके अलावा हवा का रुख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं।

कई भौगोलिक परिस्थतियां जैसे- बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार है। ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है।

राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिर्पोट में भी चिंता जताई गई है कि समस्या को एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर मोड़ देने से दीर्घजीवी निदान की उम्मीद नहीं की जा सकती है। समुद्र के विस्तार की समस्या केवल कर्नाटक या दक्षिणी राज्यों तक सीमित नहीं है, इसका असर मुंबई, कोलकाता, पुरी और द्वीप समूहों में भी देखा जा रहा है। वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है। ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही त्वरित सोचना होगा।

पुरी के समुद्र तट को देश के सबसे खूबसूरत समुद्र तटों में गिना जाता था। आज वहां की हरियाली गायब है, सारे कायदे-कानून तोड़ कर तट से सट कर बने होटलों व शहर की बढ़ती आबादी की नालियां सीधे समुद्र में गिर रही हैं। सरकार ने पानी के करीब सुलभ शौचालय बना दिया है तो कुछ आगे चलकर आंध्रप्रदेश से विस्थापित हुए हजारों मछुआरों ने अपनी बस्ती बना ली है। कुल मिलाकर अब यहां बैठना मुश्किल होता जा रहा है। यह दुर्दशा अकेले पुरी की ही नहीं है, गोवा चले जाएं या फिर दक्षिणी राज्यों के किसी तट पर या फिर बंगाल में गंगा सागर; अनियोजित विकास, अंधाधुंध पर्यटन और समुद्र तट संरक्षण के कानूनों के प्रति उदासीनता के चलते देश के समुद्र तटों पर गंभीर पर्यावरण खतरा मंडरा रहा है।पुरी के समुद्र तट को देश के सबसे खूबसूरत समुद्र तटों में गिना जाता था। आज वहां की हरियाली गायब है, सारे कायदे-कानून तोड़ कर तट से सट कर बने होटलों व शहर की बढ़ती आबादी की नालियां सीधे समुद्र में गिर रही हैं। सरकार ने पानी के करीब सुलभ शौचालय बना दिया है तो कुछ आगे चलकर आंध्रप्रदेश से विस्थापित हुए हजारों मछुआरों ने अपनी बस्ती बना ली है।

कुल मिलाकर अब यहां बैठना मुश्किल होता जा रहा है। यह दुर्दशा अकेले पुरी की ही नहीं है, गोवा चले जाएं या फिर दक्षिणी राज्यों के किसी तट पर या फिर बंगाल में गंगा सागर; अनियोजित विकास, अंधाधुंध पर्यटन और समुद्र तट संरक्षण के कानूनों के प्रति उदासीनता के चलते देश के समुद्र तटों पर गंभीर पर्यावरण खतरा मंडरा रहा है। गोवा तो पूरी तरह समुद्र के तट पर ही बसा है और यहां कई जगह समुद्र की लहरें जमीन के काट कर बस्ती में घुसती दिखती हैं।

समुद्र के किनारे रहने वाले ही नहीं, वहां के स्थानीय प्रशासन के बहुत कम अफसरान को यह जानकारी है कि सन् 1991 में एक समुद्र तट बंदोबस्त क्षेत्र (कोस्टल रेगुलेशन जोन यानि सीआरजेड) कानून लागू किया गया था। तटों पर लगातार हो रहे निर्माण कार्यों के चलते वहां का पर्यावरण प्रभावित हो रहा है, इसी को ध्यान में रख कर इस कानून में प्रावधान रखा गया था कि समुद्र तट के 500 मीटर के भीतर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी। साथ ही समुद्र में शहरी या औद्योगिक कचरे को फेंकने पर पाबंदी का भी इसमें प्रावधान था। दुर्भाग्य है कि शायद ही कहीं इसका पालन हो रहा है।

समुद्र तटों का कटाव कई जगह गंभीर रूप ले चुका है। दक्षिण में तो कई स्थानों पर कई-कई किलोमीटर तक मिट्टी के कटाव के चलते जनजीवन प्रभावित हो रहा है। कानून में प्रावधान है कि समुद्र तटों की रेत में उगने वाले प्राकृतिक पेड़-पौघों को उगने का सही वातावरण उपलब्ध करवाने के लिए कदम उठाना चाहिए। पुरी में तो ठीक इसके विपरीत हुआ, कोई आठ साल पहले कुछ स्थानीय होटल मालिकों व पर्यटन विभाग ने मिलकर तट पर पुरी उत्सव शुरू किया। इसकेे लिए समुद्र तट पर लगे खजरी के सभी पेड़ काट दिए गए।

पुरी का समुद्र तटवहां जिस तरह के सांस्कृतिक दूषित कार्यक्रम हो रहे हैं, वहां एक अलग मसला है, लेकिन तब से पुरी तट से हरियाली पूरी तरह गायब हो गई। मुंबई में भी समुद्र तट से हरियाली गायब हो कर वहां खाने-पीने के खाली पैकेट, मिनरल वाटर की बोतलों और पॉलीथिन का भंडार समुद्र की खूबसूरती पर ग्रहण लगा रहा है।

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से 500 मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है। इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है। ज्वार यानि समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के 500 मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानि नो डेवलपमेंट जोन (किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया। इसे सीआरजेड-1 भी कहा गया।

सीआरजेड-2 के तहत ऐसे नगरपालिका क्षेत्रों को रखा गया है, जो कि पहले से ही विकसित हैं। सीआरजेड-3 किस्म के क्षेत्र में वह समुद्र तट आता है जो कि सीआरजेड -1 या 2 के तहत् नहीं आता है। यहां किसी भी तरह के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति आवश्यक है। सीआरजेड-4 में अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप की पट्टी को रखा गया है। सन् 1998 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण और इसकी राज्य ईकाइयों का भी गठन किया, ताकि सीआरजेड कानून को लागू किया जा सके।

सीआरजेड कानून लागू होने के बाद भी समुद्र तटों के गांवों में नए मकान बनना और जमीन की खरीद-बिक्री जारी है।

कर्नाटक और केरल में कुछ जगहों पर गांव वालों व प्राधिकरण के अधिकारियों के टकराव भी हुए। गांव वालों ने जब मकान बनाए तो उन्हें रोका गया। लोगों ने पंचायत से मिली अनुमति व उस पर चुकाए जाने वाले टैक्स की रसीदें दिखा दीं। पंचायत का कहना है कि निर्माण कार्य नया नहीं है, वह तो पुराने मकानों की मरम्मत है। अधिकारियों के पास सेटेलाईट से तैयार नक्शे हैं। इस पर लोगों का कहना है कि सेटेलाईट से नारियल के पेड़ तो आ जाते हैं, लेकिन उसके बीच बने छोटे झोपड़ों की फोटो बनाना संभव नहीं होता है।

लेकिन विडंबना यह है कि समुद्र संरक्षण कानून की मार अकेले गांव वालों पर ही पड़ रही है। पर्यटन या व्यावसायिक दृष्टि से महंगे इलाकों में लोग धड़ल्ले से कानून तोड़ रहे हैं। पुरी में समुद्र तट संरक्षण समिति तो हाईकोर्ट तक गई।

अदालत ने समुद्र तट के करीब निर्माण करने वालों के खिलाफ आदेश भी सुनाए, लेकिन उनको लागू करवाने के लिए जिम्मेदार स्थानीय प्रशासन का रवैया निहायत संवेदनहीन रहा। ऐसा ही मुंबई और गोवा के समुद्र तटों का पर्यावरण सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत गैरसरकारी संगठनों के साथ भी हुआ।

कनार्टक में एक स्वयंसेवी संस्था नागरिक सेवा ट्रस्ट ने दक्षिण कन्नड़ा, उडुपी और उत्तरी कन्नड़ा जिले के 320 किलोमीटर के समुद्र तट पर सीआरजेड क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन किया। पाया गया कि राज्य सरकार ने ही इस कानून की खूब धज्जियां उड़ाई हैं। दक्षिण कन्नड़ा जिले में 10 स्थानों पर, उडिपी में 24 और उत्तरी कन्नड़ा में 11 मामलों में सरकार के निर्माण कार्य ही सीआरजेड के प्रावधानों का उल्लंघन थे।

भीतरकनिका मैंग्रोवकई स्थानों पर सड़कें, होटल, मकानों को बनवाते समय सरकार ने ही कानून की परवाह नहीं की। हां, एक बात और जानना जरूरी है कि सीआरजेड कानून में पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर इतनी गुंजाईश जरूर छोड़ी गई है, जिसका दुरूपयोग रूतबेदार लोगों के लिए किया जा सके। यदि शहरी क्षेत्रों में सीआरजेड कानून को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्वच्छ निर्मल समुद्रों के तट भी कानपुर में गंगा या दिल्ली में यमुना की ही तरह हो जाएंगे।

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