किसान और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक

आज फिर लखीमपुर खीरी के अवधी कवि व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के तत्कालीन विधायक पण्डित बंशीधर शुक्ल जी याद आ गए और याद आ गई उनकी वह कविता ‘चौराहे पर ठाढ़ किसनऊ ताकए चारिहवार...।’ आज चारों तरफ किसानों के मरने की खबरे गूंज रही हैं। अभी कुछ अरसा पहले एक सरकारी दिवस था किसान दिवस और भारत के प्रधानमन्त्री रहे चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस को यह गरिमा प्रदान की भारत सरकार ने, बड़ी-बड़ी बातें हुईं, पर सब बेनतीजा, वैसे भी किसानों को लालच की टॉफी खिलाना तो सदियों से शासक वर्ग में एक परम्परा रही है।

भारत के अन्नदाता का जो सूरत ए हाल है, उसमें क्या देश का विकासवाद का नारा और कथित कवायदें फिट बैठती हैं। देखिएगा जरा ये तस्वीर और विचारिएगा कि ये वही किसान जो जाड़ा-गरमी-बरसात बिना किसी हाइजीन के दिन-रात मेहनत करता है और तब आकर हमें मयस्सर होती है रोटी, वो रोटी जो जिन्दा रहने के लिए जरूरी। फिर भी किसान वहीं पर हैं, जहाँ सदियों पहले था।

आजादी आई तो उम्मीद जगी की अपना मुल्क अपना राज अब इस किसान के दिन बेहतर होंगे, आखिर यही तो जमीन का आदमी है, जिस पर टिका है समाज तन्त्र व्यापार और सरकार। सबने इसकी महत्ता स्वीकारी, वादे, नारे और योजनाएँ...न जाने क्या-क्या। इस किसान की जागती आँखों को दिखा दिया गया जो केवल सपना था और है। बावजूद इसके इस किसान के जीवन की यात्रा अनवरत जारी है और ये ढो रहा है हमारे व्यभिचार भ्रष्टाचार का बोझ, बिना कराहे। शायद इसकी आँखों से वह सपना अभी भी नहीं टूटा कि अच्छे दिन आएँगे और आज भी यह 'जय जवान, जय किसान' वाली धुन पर थिरकता हुआ अपना पसीना बहाता जा रहा है, उन लोगों के लिए, जिनके जिस्म से एक बूँद पसीना भी शायद कभी निकलता हो, वातानुकूलित घरों, कारों और जहाजों में जो अय्याशियों के सारे साजो सामान के साथ रहते हैं।

भारत कुमार का वह गीत भी अब किरकिरा लगता है, जिसे सुनकर कभी आँखें नम हो जाती थीं गर्व से। इस देश की धरती सोना उगले, उगले... यकीनन ये धरती हमें वह सब मुहैया कराती है, जो हमें चाहिए, पर क्या मिलता है इन किसानों को, बस ये सीजनल मजदूर के सिवा कुछ नहीं। राह ताकना इनकी नियति बन गई है- कभी बादल की राह, कभी सहकारी समितियों के काले व्यापारियों से बची-खुची फर्टिलाइजर की राह, कभी राशन की दुकान पर मिट्टी के तेल की राह और अन्त में चीनी मिलों और सरकार के उस फरमान की राह, जिसमें इन्हें अपने ही उगाए गन्ने की फसल की रकम की दरियाफ्त होती है। कोफ्त होती है कि खुद उगाने वाला रहमोकरम पर रहता है, कभी चीनी मिल मालिकों के नखरों के और कभी सरकार के फरमानों के। ये गुलामी नहीं तो और क्या है? हम जिस फसल को उगाते हैं, उसका मूल्य निर्धारण करने वाले और लोग क्यों? यह बात जाहिर करती है इस बात को कि हम अपनी जमीनों के मालिक तो छोड़िए, किराएदार भी नहीं सिर्फ मजदूर हैं इस व्यवस्था के। आज गन्ने के किसान की दशा व्यथा अंग्रेजी हुकूमत के नील की खेती करने वाले किसानों से ज्यादा बेहतर नहीं है।

गाँव-गाँव नहीं रहे और न ही गाँव का हरा-भरा विविधितापूर्ण पर्यावरण, न खलिहान, न चौपाल और न ही चरागाह, जो संस्कृति का केन्द्र हुआ करते थे और न ही पुराने दरख्तों वाले बाग-बगीचे व छोटे जंगल, जहाँ पशु-पक्षियों और तितलियों का बसेरा होता था। कुल मिलाकर किसान बदला तो संस्कृति और पर्यावरण दोनों बदल गए या यूँ कहें कि ये लहूलुहान है इस संक्रमण से, अनियोजित विकास का संक्रमण।ये किसान जो अन्न उपजाता था, इससे कृषि क्रान्ति के तहत सरकारों और नीतिकारों ने अन्न के देशी बीज भी छीन लिए, अब यह निर्भर है देशी-विदेशी कम्पनियों या कालाबाजारियों पर जो इसे हर वर्ष हाइब्रिड बीज बेचते हैं। इनके घरों से अन्न रखने के वे सारे साजो सामान भी नदारद हैं, जिन्हें अवध में डेहरिया बख्खारिया और मेटुके कहते थे। इनके खेतों से और इनकी थालियों से दालों की किस्में गायब हो गईं हैं, अनाज की विविधिता भी। बस ये नपुंसक बीजों के गेहूँ की रोटी और चावल खाता है। सब्जियों के बीज भी हाइब्रिड बीजों ने नष्ट कर दिए। अब ये सब्जी व्यापारियों की दी हुई कीटनाशक युक्त कालाबाजारियों से प्राप्त बीजों से उगाई गई सब्जियों पर निर्भर हैं। इस अनियोजित विकास ने भारत की मूल सभ्यता के उस मूल व्यक्ति को ही बदल दिया, जिसकी वजह से गाँव और गाँव का पारिस्थितिकी तन्त्र मौजूं था। और इस परिवर्तन के साथ ही बदल रही है वह सच्चाई, जिसे बापू ने अपने शब्दों में कहा था- भारत गाँवों में बसता है। अब सिर्फ जमीनें और उन पर खेती करने वाले मजदूर और उनकी कॉलोनियाँ। गाँव-गाँव नहीं रहे और न ही गाँव का हरा-भरा विविधितापूर्ण पर्यावरण, न खलिहान, न चौपाल और न ही चरागाह, जो संस्कृति का केन्द्र हुआ करते थे और न ही पुराने दरख्तों वाले बाग-बगीचे व छोटे जंगल, जहाँ पशु-पक्षियों और तितलियों का बसेरा होता था। कुल मिलाकर किसान बदला तो संस्कृति और पर्यावरण दोनों बदल गए या यूँ कहें कि ये लहूलुहान है इस संक्रमण से, अनियोजित विकास का संक्रमण।

किसान जिसे अन्नदाता कहते हैं, अब वह अन्नदाता नहीं रहा, वह गुलाम हो गया नीतिकारों का। अब वह वही फसल उगाता है, जो सरकार और व्यापारी कहते हैं, मसलन चीनी मिलों का तन्त्र इन किसानों को आगाह करता है कि ये बीज बोना है और इसमें यह खाद और ये पेस्टीसाइड पड़ेगा तो ये किसान वही करता है क्योंकि ऐसा न करने पर इसकी फसल मिल मालिक नहीं खरीदेगा। यह वही बीज बोता है जो स्थानीय बीज के सौदागर इन्हें मुहैया कराते है, महंगे दामों पर नकली और रुग्ण बीज, क्योंकि इन सौदागरों को चाहिए मुनाफा और इस मुनाफे के लिए ये तमाम नकली कम्पनियों के अप्रमाणित बीजों को फैला देते हैं हमारी जमीन पर, किसान के माध्यम से। यही वजह है किसान की खुद की निर्भरता खत्म हो गई और वह आश्रित है इन सरकारों और बाजार का।

दरअसल, यह किसान जान ही नहीं पाया कि कब वह किसान से मजदूर बन गया। आज न तो उसकी थाली में अन्न के असली दाने हैं और न वे सुनहरे बीज जिन्हें वह उगाता था वसुन्धरा की गोद में। अब वह बोता है, नपुंसक बीज जिनमें जरूरी होता है जहर यानी कीटनाशक और उगाता है नकली अन्न के दाने। यही दास्ताँ है अन्नदाता की, एक घिनौना सफर, जिसने उसे मालिक से मजदूर बना दिया, जिम्मेदार कौन? यह सवाल उभरता है और डूब जाता है, हर बार सरकारी फाइलों में अखबार की कतरनों में और लोगों के जहन में।

(लेखक वन्यजीव विशेषज्ञ व दुधवा लाइव पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं)
ई-मेल : krishna.manhan@gmail.com

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