किसान विरोधी नया कानून

24 Jan 2015
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इन दिनों केन्द्र सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा है। इस कानून के खिलाफ विरोध व्यापक होता जा रहा है। हाल ही मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले एक कम्पनी के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ एक किसान ने आत्मदाह की कोशिश की गई और घटना से गुस्साए किसानों पर गोली चलाई गई है। हाल ही में सरकार ने इस अध्यादेश के जरिए लागू कर दिया है।

मध्य प्रदेश के अनूपपुर के जैतहरी में मोजर बेयर कम्पनी के बिजली संयन्त्र के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। 17 जनवरी को एक किसान ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अपने आपको आग के हवाले कर दिया। घटना के विरोध में एकत्र किसानों पर पुलिस फायरिंग की गई।

अच्छे दिनों का वायदा करके आई नई सरकार ने कड़ा किसान विरोधी कदम उठाया है। उसके इस कदम ने अंग्रेजों के समय बने भूमि अधिग्रहण कानून की याद दिला दी है जिसे बहुत विचार-विमर्श करके 2013 में बदला गया था। शायद यही कारण है इतने व्यापक पैमाने पर विरोध के स्वर उभरकर सामने आ रहे हैं।

मुख्य रूप में 1894 में बने भूमि अधिग्रहण कानून को बदलाव के लिए राजनैतिक दलों के अलावा, सिविल सोसाइटी और जन आन्दोलनों ने महती भूमिका निभाई थी जिसे 2013 में इसे निरस्त कर दिया था। लेकिन साल भर में ही समीक्षा किए बगैर और परिणामों का इन्तजार किए बिना इसे पलट दिया है। इस अध्यादेश को साल के एक दिन पहले एक तरह से किसानों को तोहफा के रूप में यह अध्यादेश पारित कर दिया है।

नई सरकार ने भूमि अधिग्रहण में लोगों की सहमति वाले और समाज पर पड़ने वाले असर वाले प्रावधान को खत्म कर दिया है। अलबत्ता, मुआवजे वाले प्रावधान को बरकरार रखा है। भूमि अधिग्रहण के मुताबिक रक्षा, औद्योगिक कॉरिडोर, ग्रामीण क्षेत्रों में ढाँचागत निर्माण, सस्ते मकान, और गरीबों के आवास योजना और पीपीपी माॅडल के तहत् बनने वाली सामाजिक ढाँचे परियोजनाएँ जहाँ जमीन सरकार की ओर से दी जाती है, इसमें कई तरह की छूट दे दी है। सरकार किसी भी परियोजना को अब इनमें में से किसी श्रेणी में डालकर अधिग्रहण को क़ानूनन जायज़ ठहरा सकती है। इस तरह सरकार जमीन मालिकों की सहमति के बिना भी उनकी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है।

अब जमीन अधिग्रहण का वहाँ के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कराना सरकार के लिए जरूरी नहीं होगा। इससे पहले पाँच साल तक मुआवजा न मिलने या सरकार की ओर से जमीन पर कब्जा न लेने की सूरत में किसान का जमीन पर वापस अपना दावा करने का अधिकार था। सरकार ने नए अध्यादेश के जरिए लोगों से यह अधिकार छीन लिया है। अब निजी कम्पनी के अलावा, प्रोपाइटरशिप, पार्टनरशिप या किसी एनजीओ के लिए भी सरकार जमीन ले सकती है।

इस अध्यादेश में रक्षा शब्द की परिभाषा बदलकर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोई भी परियोजना और रक्षा उत्पाद को शामिल कर लिया गया है। इनमें से कोई भी ढाँचागत निर्माण परियोजना या निजी परियोजना हो सकती है। अब अगर कोई भूमि अधिग्रहण अधिकारी कुछ गलती भी करता है तो हम बिना सरकार की अनुमति के उसे अदालत में नहीं ले सकते।

इस भूमि अधिग्रहण को किसान विरोधी माना जा रहा है उनसे जमीन छीनकर किसानों को भूमिहीन बनाने की ओर बढ़ा जा रहा है। जबकि देश में बरसों से भूमि सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। खासतौर से ग्रामीण निर्धन वर्ग व विशेषकर भूमिहीन वर्ग को टिकाऊ तौर पर आजीविका मिलनी चाहिए तो भूमि सुधार जरूरी हैं। इसके अलावा, यह भी कि अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण के द्वारा किसानों की जमीन लेकर उन्हें भूमिहीन बनाया जा रहा है, इस पर रोक लगाना भी जरूरी है।

इस रकबे में खेती कर रहे 13 किसान अपने दादा-परदादा के जमाने से चल रही ‘पाट’ सिंचाई तकनीक के कारण न केवल रबी मौसम की मुख्य फसल गेहूँ उपजाते हैं, बल्कि खरीफ सत्र में भी फल-सब्जियों की खेती करते हैं जबकि इस पहाड़ी क्षेत्र के ज्यादातर किसान सिंचाई के लिए पानी के अभाव में पूरे साल खेती नहीं कर पाते और मानसूनी वर्षा के बूते खरीफ सत्र की फसलें ही उगा पाते हैं।भूमि अधिग्रहण को किसान विरोधी माना जा रहा है उनसे जमीन छीनकर किसानों को भूमिहीन बनाने की ओर बढ़ा जा रहा है। जबकि देश में बरसों से भूमि सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। खासतौर से ग्रामीण निर्धन वर्ग व विशेषकर भूमिहीन वर्ग को टिकाऊ तौर पर आजीविका मिलनी चाहिए तो भूमि सुधार जरूरी हैं। इसके अलावा, यह भी कि अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण के द्वारा किसानों की जमीन लेकर उन्हें भूमिहीन बनाया जा रहा है, इस पर रोक लगाना भी जरूरी है।देश के अत्यन्त निर्धन, दलित, आदिवासी और मेहनतकश गरीब लोग अपना पेट भरने के लिए जमीन व पट्टे की माँग कर रहे हैं। विभिन्न योजनाओं के विस्थापित परिवार भी जमीन के लिए भटक रहे हैं और आन्दोलन कर रहे हैं। उनको देने के लिए सरकार के पास जमीन नहीं हैं, लेकिन देशी-विदेशी कम्पनियों, उद्योगपति व पूँजीपतियों को देने के लिए सैकड़ों एकड़ जमीन निकल आई हैं, जिसे देने के लिए सरकार बहुत उतावली नजर आ रही है।

आज पहले ही किसान संकट के दौर से गुजर रहे हैं। और अब उनकी मुख्य आजीविका को ही छीनने की कोशिश की जा रही है। यह सही है कि किसानों की उपेक्षा और उनके हितों के प्रतिकूल नीतियों की मार इतनी बढ़ गई है कि किसान टिक नहीं पा रहे हैं।

आज किसान चौतरफा संकट से घिरा है। पर किसानों के हितों के अनुकूल नीतियों बनाकर उनकी रक्षा की जा सकती है।

इसके लिए बंजर या पड़ती भूमि को भी कृषि योग्य बनाने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जो कृषि भूमि रासायनिक खाद व कीटनाशकों से अपनी उर्वरा शक्ति खो चुकी है या अन्य प्रदूषण के कारण तबाह हो गई है, उसे फिर से कृषि योग्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए और इसमें सरकार को किसानों की मदद करनी चाहिए। यानी, मिट्टी-पानी के संरक्षण और पर्यावरण को बिना नुकसान पहुँचाए खेती में आगे बढ़ा जा सकता है।

लेकिन इसके उलट भूमण्डलीकरण के दौर में विस्थापन बढ़ता जा रहा है जिससे बड़ी तेजी से किसानों की जमीनें छिनती जा रही हैं, उपजाऊ भूमि को बड़े-बड़े उद्योग, खनन् आदि के लिए अधिग्रहीत किया जा रहा है। औद्योगिक कॉरिडोर व सेज जैसी परियोजनाएँ लाई जा रही हैं। खनिज सम्पदा व प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। बाँधों से लोग उजाड़े जा रहे हैं। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जल, जंगल, जमीन और खनिज को उद्योगपतियों व कारपोरेट लाॅबी को देने की कोशिश की जा रही है, जो संविधान की भावना के खिलाफ है। जीवन जीने के अधिकार, आजीविका, भोजन, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी अधिकार के भी खिलाफ है। ग्रामसभा के अधिकारों का भी खुला उल्लंघन है।

विस्थापन से प्रभावित लोगों का कहना है कि भूमि अधिग्रहण की नहीं, भूमि रक्षा कानून की जरूरत है। किसान व ग्रामीणों की आजीविका की रक्षा करने की जरूरत है। इस नए अध्यादेश से किसानों की जमीन को उद्योगों को देने का रास्ता खुल गया है। जमीन सिर्फ जमीन ही नहीं उससे आजीविका, भोजन, समुदाय और संस्कृति सभी जुड़े हैं, यह सब पर गहरा असर होगा। इसलिए इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

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