कीटों में जैविक साहचर्य (Organic companionship in Pests in Hindi)


सारांश


प्रकृति में कई जीव-जन्तु जैविक साहचर्य स्थापित कर जीवन-यापन करते हैं। प्रायः यह युक्ति भोजन उपलब्धता व सुरक्षा हेतु की जाती है। सामाजिक व विशेष कर उपनिवेशी कीटों की प्रजातियों की जीवन शैली में विविध साहचर्य की स्थितियाँ पाई जाती हैं। विभिन्न चीटियों की प्रजातियाँ सहजीविता, पारिपोषिता, सहभोजिता, जैवभंडारण व दासता के उत्कृष्ट उदाहरण जैव साहचर्य द्वारा परिलक्षित करते हैं।

Abstract – Several living beings lead their life by establishing biological association in nature generally this arrangement is for procuring food and safety. Social and mainly colonial insects maintain different levels of biological association in their life. Several species of ants show unique examples of symbiosis, parasitism, commensalism, bio storage and slavery by establishing biological association.

विभिन्न जीवों में जैविक साहचर्य का प्राकृतिक महत्व है। बहुधा जीवधारी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से एक दूसरे से कमोवेश संबंधित रहते हैं। विभिन्न जातियों में साहचर्य की क्रमिकता में अन्तर होता है, कुछ जीवों में साहचर्य उनके जीवन की आवश्यकता बन जाती है, जिससे एक दूसरे के बिना उनका निर्वहन दुरुह हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे प्रायः परस्पर साहचर्य का लाभ उठाते हैं। साहचर्य का प्रमुख उद्देश्य जीवन-यापन व सुगम भोजन प्राप्ति होता है। कीटों में विशेषकर सामाजिक व उपनिवेशी प्रजातियों में यथा चीटी, दीमक आदि में जैविक साहचर्य के प्रसंग अधिकाधिक हैं। इनमें साहचर्य स्थिति तथा जीवनशैली में बहुत सी विविधताएँ पायी जाती हैं। सामाजिक कीटों का एकीकृत व्यवहार निवसित श्रमिकों के मध्य परस्पर संबंध व संप्रेषण से उत्पन्न होता है तथा यह संबंध सूत्र विभिन्न सामूहिक कार्यों के सफलतापूर्वक निर्वहन में सहायक होता है। इन कीटों के जटिल उपनिवेशों में जाति प्रथा, दास प्रथा, जैवीय भंडार गृह, सहजीविता तथा परिपोषिता के विभिन्न स्वरूप प्रदर्शित होते हैं।

चीटियों के उपनिवेशों में कुछ भृंगकीट पाये जाते हैं। इनकी उपस्थिति रहस्यास्पद है। संभवतः चीटियाँ इन भृंगकीटों को पालतू बनाकर रखती हैं, तथा इनके साथ खेलती हैं। हीटेरियस नामक भृंगकीट चीटियों के उपनिवेश में प्रायः पाये जाते हैं, जिन्हें चीटियाँ भोजन उपलब्ध कराती हैं तथा इनके डिम्भकों की देखरेख करती हैं। चीटियाँ प्राकृतिक रूप से भृंग कीटा के सिर को चाटती हैं तथा रसास्वादन से आनंदित होती हैं। जब चीटियाँ सिर को चाटना प्रारम्भ करती हैं तब भृंगकीट अपना सिर कुशलता से मोड़कर अपने वक्ष के नीचे छुपा लेता है, जिससे चीटियाँ सिर को चाटने से वंचित हो सकें। ऐसी स्थिति में चीटियाँ लालच वश कीट के सम्मुख अपने उदर से कुछ भोजन पदार्थ वमन द्वारा बाहर निकाल देते है। इस प्रकार से भृंगकीट अपना सिर पुनः बाहर कर वमन किया हुआ भोजन खाने लगता है तथा चीटियाँ पुनः कीट के सिर को चाटने लगती हैं। यह प्रक्रिया एक दूसरे की संतुष्टि तक चलती रहती है।

कुछ चीटियों की प्रजातियाँ, एफिड व कुछ अन्य पादपभोजी कीटों को अपने उपनिवेश के अन्दर पालतू बनाकर तथा इनके निकटवर्ती वासस्थानों पर सुरक्षा उपलब्ध कराकर साहचर्य जीवन व्यतीत करती हैं। ऐसा माना जाता है कि वे परस्पर सम्पर्क बनाये रखते हैं। उपनिवेश के अंदर के प्रवासी एफिड्स को प्रायः चीटियाँ अपने अग्रपाद व स्पर्शकों की सहायता से सहलाती हैं जिससे उत्तेजित होकर एफिड अपने पाचन अंगों से धीरे-धीरे उदर के अंतिम छोर पर हनीड्यू की बूँदों का उत्सर्जन करते हैं, जिसका चीटियाँ आवश्यकतानुसार रसास्वादन करती हैं। माना जाता है कि हनीड्यू उत्सर्जन की मात्रा चीटियों के सहलाने की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। निकटवर्ती स्थानों के एफिड्स, सहचरी चीटियों के क्षणिक स्पर्श से सामान्यतया गुदा द्वारा ड्यू उत्सर्जित करती हैं जिसे चीटियाँ भोजन के रूप में उपयोग करती हैं, बदले में चीटियाँ इन्हें सुरक्षा प्रदान करती हैं।

पॉलीर्यास प्रजाति की चीटियों में साहचर्य के साथ दास प्रथा भी विकसित होती है। यह फार्मिका प्रजाति की चीटियों के वासस्थान का निरंतर पता रखती हैं। पॉलीयार्गस चीटियों के झुंड, फार्मिका चीटियों के उपनिवेशों पर आक्रमण कर उनके कोषिकों (प्यूपा) को उठा लाते हैं और अपने वासस्थान पर रखते हैं। समयानुसार इन कोषिकों से जब फार्मिका के वयस्क उत्पन्न होते हैं, तो उस स्थान को अपना ही घर समझकर श्रमिकों का कार्य करने लगते हैं। इनसे उत्पन्न रासायनिक गंध डिम्भ व वयस्क, वर्तमान या भविष्य की श्रमिक चीटियों को वासस्थान चुनने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

फार्मिका श्रमिकों की मृत्यु के उपरान्त ही पॉलीयार्गस श्रमिक कॉलोनी के कार्य करते हैं। फार्मिका सबइन्टीग्रा प्रजाति की चीटियाँ, अन्य चीटियों के डिम्भक व इलियों पर आक्रमण कर उन्हें अपने बांबी में ले आते हैं, जिससे उत्पन्न वयस्क इनके लिये दास का कार्य करते हैं। फार्मिका चीटियों द्वारा बंधुआ आक्रमण इनके ड्यूफोर ग्रन्थि द्वारा स्रावित फीरोमोन द्वारा समन्वित होता है। इनसे स्रावित रसायन दूसरे चीटियों के आवास की रक्षक चीटियों को अपने से भ्रमित करने में सहायता करते हैं। यद्यपि ऐसा विदित है कि चीटियाँ अपने आवास की अन्य संगियों को उपनिवेश की विशिष्ट गंध से पहचानने में सक्षम हैं। चीटियों के समूह से दृढांग श्रमिकों का चयन व निवास्थल के भीतर भोजन संकलन की कला विशिष्ट है। हनीएंट प्रजाति की चीटियों में साहचर्य द्वारा जैविक भंडार स्थापित किये जाते हैं। इन चीटियों के उपनिवेशों में कुछ विशेष कक्ष होते हैं, जिनके तल चौरस, दीवारों चिकनी एवं छत अन्दर से खुरदुरी होती है।

इन कक्षों में एक विशेष प्रकार का कौतुक देखने को मिलता है। ऐसे कक्ष की छत से बहुत से चीटियाँ लटकती रहती है। श्रमिक चीटियाँ भोज्य पदार्थ बाहर से एकत्र कर इन चीटियों के सम्मुख वमन कर देती हैं, जिसे लटकती चीटियाँ अपने उदर में समाहित करती रहती हैं और इतनी मोटी हो जाती हैं कि चल फिर भी नहीं सकतीं। ऐसी सैकड़ों चीटियाँ उपनिवेश में सुरक्षित रहती हैं। विषम परिस्थितियों में जब भोजन की कमी होती है तो उपनिवेश की सभी चीटियाँ भंडारित चीटियों में उपलब्ध प्रचुर भोज्य पदार्थ का, इन्हें मारकर शनैः शनैः उपयोग करती हैं।

जैविक साहचर्य में सहजीविता कई कीटों में पाई जाती हैं। दीमक की आंत्र में उपस्थित ट्राइकोनिम्फा नामक प्रोटोजोआ परजीवी की भाँति रहते हैं तथा दोनों परस्पर एक दूसरे के जीवन-यापन के पूरक होते हैं। दीमक लकड़ी को खाने की क्षमता रखता है, पर ट्राइकोनिम्फा की सहायता के बिना पचा नहीं सकता। इस प्रकार दोनों ही पाणि एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाये बिना एक साथ जीवन-यापन करते हैं। कुछ कीट, उदाहरणार्थ ‘‘इकनोमोन’’ अपने अंडे दूसरे कीटों के इल्लियों के बीच देता है, तथा अंडे परिपोषी में ही विकसित होते हैं। इनके अण्डे से विकसित कीट परिपोषी को ही खाने लगते हैं, परन्तु उसे पूर्णतया समाप्त नहीं करते जिससे परिपोषिता के माध्यम से जीवन-यापन चलता रहे। इसी प्रकार ‘‘मिरमोनिसस’’ नामक बरूथी, स्यूडोलेटिया नामक मॉथ कीट की कर्णगुहा में सैकड़ों की संख्या में रहते हैं तथा भोजन पर निर्भर करते हैं। सभी बरूथी स्थानाभाव के कारण कष्ट उठा लेते हैं परन्तु कीट पर ही भोजन हेतु निर्भर करते हैं। सभी बरूथी स्थानाभाव के कारण कष्ट उठा लेते हैं परन्तु दूसरी कर्णगुहा को अछूता रखते हैं, जिससे परिपोषी जीवित रहे तथा परिपोषिता साहचर्य चलता रहे।

संदर्भ
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असिस्टेंट प्रोफेसर, पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, प्राणि विज्ञान विभाग
बी.एस.एन.वी.पी.जी. कॉलेज, लखनऊ 226001 उ.प्र. भारत
ashokbsnv11@gmail.com, sudhish1953@gmail.com

प्राप्त तिथि-31.07.2016 स्वीकृत तिथि-02.09.2016

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