कोई खास चिंता या पहल नहीं

10 Jun 2010
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अभी थोड़े दिनों पहले की बात है, जब यूरोप के आसमान पर छाई धुंध और गुबार ने यूरोपीय जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया था। आइसलैंड के एक ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे और धुएं से पूरा आसमान कई दिनों तक भरा रहा। यह महज एक उदाहरण भर है कि किस तरह दुनिया भर में पर्यावरण संबंधी मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। आज से कुछेक साल पहले तक किसी ने नहीं सोचा होगा कि पर्यावरण संबंधी ऐसी मुश्किलें भी आएंगी। हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से पृथ्वी और उसके पर्यावरण, वायुमंडल, जल, जमीन और अन्य प्राकृतिक संपदाओं के अस्तित्व पर संकट लगातार गहराता जा रहा है। इन दिनों उत्तर भारत में भारी गर्मी से आम लोगों की परेशानी कई गुना बढ़ चुकी है। धरती का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है, यानी साफ है कि पर्यावरण संबंधी मसलों पर दुनिया के हर कोने में मुश्किलें खड़ी हो रही हैं, लेकिन इसको लेकर कोई विश्वव्यापी चिंता या पहल देखने को नहीं मिल रही है।

लेकिन अब हमें पर्यावरण और धरती के हकों के बारे में सोचना पड़ेगा। अब तक होता यह रहा है कि हमने प्रकृति के तमाम उपहारों पर इंसानों का हक मान लिया था। इंसानों में भी अमीर इंसानों का। लेकिन अब हमें तय करना होगा कि इन सब पर पृथ्वी का ही हक है और उसके हितों की अनदेखी करने से मानव जीवन के अस्तित्व पर संकट बढ़ेगा ही। हाल के दिनों में जब लोग कहते हैं कि पर्यावरण को लेकर जागरूकता काफी बढ़ गई है, तो लगता है कि हर ओर इसको लेकर बात तो हो रही है, लेकिन हकीकत यही है कि बात करने का वक्त खत्म हो चुका है, और कुछ सकारात्मक करने का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।

आदमी अपनी हैसियत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कोशिश मेंजल, ऊर्जा, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहा है। सबसे बड़ा संकट यह है कि इस इस्तेमाल का, जरूरत से कोई लेना देना नहीं है।चालीस साल पहले जब मैंने पर्यावरण संरक्षण में काम करना शुरू किया था, तब इस दिशा में काम करने वाले लोग कहीं ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ आते थे, उन पर पर्यावरण को संरक्षित करने का मानो जुनून सवार होता था। इसके अलावा हर आम आदमी भी जाने अनजाने प्रकृति के करीब था, प्रकृति के दोहन को अपराध बोध से देखता था। उस दौर में आदमी बाल्टी के हिसाब से जरूरत भर पानी में नहा लेता था, गाड़ी का इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर करता था, भारी गर्मी को भी सहन कर लेता था। जश्न मनाने के नाम पर खूब आतिशबाजियां भी नहीं करता था, देर रात तक पबों और डिस्कोथेक की तरह घरों में संगीत नहीं बजता था। तब विकास की रफ्तार तेज नहीं थी लेकिन समाज में मितव्ययिता का जोर था।

तमाम विकास के बाद आज की स्थिति क्या है, काफी पढ़ा-लिखा और जागरूक आदमी घंटों बाथरूम में नहाता है, उसके नल से पानी लगातार बहता रहता है। ऐसे लोगों में इस बात की अकड़ भी होती है कि पानी का पैसा हम भरते हैं। यह चलन इन दिनों लगातार बढ़ रहा है। आदमी पैसे के दम पर अपनी हैसियत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की कोशिश में जल, ऊर्जा, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहा है। सबसे बड़ा संकट यह है कि इस इस्तेमाल का जरूरत से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह नष्ट करने और बर्बाद करने जैसा ही होता है।

इसी उपभोक्तावादी नजरिए ने पर्यावरणीय संबंधी सोच-समझ का सबसे ज्यादा नुकसान किया है। आने वाले दिनों में संकट गहराने की आशंका इसलिए भी है क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति लगातार और बड़े ही संगठित तरीके से पांव पसार रही है। इन सबके पीछे बाजार की आर्थिक ताकतें भी अपना काम बखूबी कर रही हैं। बाजार आम लोगों को कहीं ज्यादा उपभोक्तावादी और विलासितावादी बना रहा है।

इन दिनों उत्तर भारत में भारी गर्मी से आम लोगों की परेशानी कई गुना बढ़ चुकी है। धरती का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है, यानी साफ है कि पर्यावरण संबंधी मसलों पर दुनिया के हर कोने में मुश्किलें खड़ी हो रही है, लेकिन इसको लेकर कोई विश्वव्यापी चिंता या पहल देखने को नहीं मिल रही है।विकास के नाम पर सरकार भी कारपोरेट और आर्थिक शक्तियों की तरफ खड़ी दिखती है। इससे संकट का कोई हल नजर नहीं आता। मुझे याद है कि इसी कांग्रेस पार्टी की नेता थीं इंदिरा गांधी जिन्होंने हमेशा पर्यावरण संबंधी चिंताओं को समझा था। मसूरी में उनके चलते ही खदान का काम रुका था। देश को उस दौर में विकास की जरूरत ज्यादा थी, लेकिन इंदिरा जी मानती थीं कि जीवन को बचाने के लिए पर्यावरण कहीं ज्यादा जरूरी है, लिहाजा वो एक संतुलन की स्थिति हमेशा तलाशती थीं। लेकिन अब सरकार से ऐसी किसी पहल की उम्मीद नहीं दिखती हैं।

केंद्र मे कांग्रेस नेतृत्व की सरकार है जो पर्यावरण संरक्षण के लिए श्रीमति गांधी के बताए रास्तों के उलट ही चल रही है। आदिवासी समुदाय पर्यावरण के कहीं ज्यादा अनुकूल ढंग से रहता आया है, ऐसे में सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह नक्सलियों के खिलाफ अभियान के दौरान वन्य क्षेत्रों और आदिवासियों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाए।

इसके अलावा सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वैश्विक स्तर पर वह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अमीर देशों पर दबाव बनाए। पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने के लिए दुनिया भर के देशों को जल्दी ही समस्या की गंभीरता को भांपते हुए ठोस कदम उठाने की ओर ध्यान देना चाहिए।

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