कोकाकोला से असली लड़ाई लड़ी जानी है

यह सही है कि भारत के पर्यावरण कार्यकर्ता और उसकी कानूनी संस्थाओं ने कोकाकोला के गैर- कानूनी कारोबार को रोकने और उसे बन्द कराने में कामयाबी हासिल की है और नई जगहों पर भी सफल हो रहे हैं। लेकिन वहीं कोकाकोला भी भारतीय कानून, उसकी संस्थाओं के आपसी अन्तर्विरोध और यहाँ की राजनीतिक स्थितियों का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करती रहती है।

दूसरी तरफ हकीक़त यह भी है कि कोकाकोला के उत्पादों का स्वाद लोगों की जबान पर चढ़ गया है। इसलिये कोकाकोला के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई जो भी हो लेकिन उसकी लोकप्रियता और बाजार पर असर बरकरार है। उल्टे आम जनता उसके गैर कानूनी और अनैतिक कारोबार को भूलकर उसे किसी जीवनदायी पेय की तरह पीए जा रही है और उसके नैतिक विरोध का आन्दोलन लगातार ठंडा पड़ गया है।

हाल में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल आदेश दिया है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड और उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड दोनों मिलकर इस बात की जाँच करें कि वाराणसी के निकट मेहंदीगंज में स्थित कोकाकोला के बाटलिंग प्लांट में कितना पानी खर्च हो रहा है और उससे कितना गन्दा पानी उत्सर्जित हो रहा है। इसके अलावा पंचाट का यह भी आदेश है कि वह जितना पानी खर्च करने का दावा करता है उसकी हकीक़त क्या है। सन् 2002-2014 के बीच उसने कितना पानी निकाला और कितना खर्च किया इसके सही आँकड़े मिलने चाहिए।

फिलहाल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से अनापत्ति प्रमाणपत्र रद्द करने का आदेश जारी होने के कारण वहाँ पिछले साल से उत्पादन बन्द है। कम्पनी ने केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) से प्रमाण पत्र के लिये आवेदन का दावा करने के बावजूद वास्तव में वहाँ आवेदन ही नहीं किया है।

जब कम्पनी का यह झूठ एनजीटी के सामने आया तो उसने नया बहाना इस तरह बनाया कि सीजीडब्ल्यूए ने आवेदन का जो फार्मेट बनाया है वह नए उद्योगों के लिये है पुराने उद्योगों के लिये नहीं। इसलिये उसे नया फार्मेट जारी करना चाहिए। यानी गलती प्राधिकरण की है कम्पनी की नहीं।

फिलहाल मेहंदीगंज के प्लांट की जो स्थिति है उससे तो यही लग रहा है कि केरल के प्लाचीमाड़ा की तरह यह संयन्त्र भी बन्द ही होगा। क्योंकि वाराणसी से 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस प्लांट ने आसपास के भूजलस्तर का न सिर्फ दोहन किया है बल्कि उसे काफी प्रदूषित भी किया है। उसने अपने ठोस कचरे को खाद बताकर किसानों को बेचा और उनकी जमीनें भी बर्बाद की हैं।

आज जब देश में तमाम पर्यावरण आन्दोलनों को हतोत्साहित किया जा रहा है, ग्रीनपीस पर पाबन्दी लगाई जा रही है और आजादी बचाओ या स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन पछाड़ खा चुके हैं तब यह सवाल उठता है कि क्या हमारी संवैधानिक संस्थाएँ कोकाकोला जैसी घाघ कम्पनियों से पर्यावरण की रक्षा कर पाएँगी? शायद वे एक हद तक कर पाएँगी लेकिन ज्यादा दूर तक नहीं जा पाएँगी। ऐसे में उम्मीद बनती है देश में ज़मीन अधिग्रहण के नए कानून के खिलाफ गोलबन्द हो रहे किसानों से।

हालांकि मौजूदा स्थितियों में कोकाकोला बलिया के उस इलाके में प्लांट लगाने की तैयारी में है जहाँ के पानी में आर्सेनिक बताया जाता है। लेकिन मेहंदीगंज का मामला प्लाचीमाड़ा की तर्ज पर जा रहा है। पर सवाल यह है कि क्या यह मामला भी केरल की तर्ज पर किसानों को मुआवजा दिये बिना लम्बित हो जाएगा या इसमें से कुछ ठोस निकलेगा? क्योंकि किसानों की माँग इतनी नहीं है कि यह संयन्त्र बन्द हो, बल्कि उनकी यह भी माँग है कि कम्पनी उनकी ज़मीन और पानी बर्बाद करने का मुआवजा दे। पानी और मिट्टी को शोधित करने का काम करे और यह स्वीकार करे कि उसने यह काम पूरी जानकारी में किया है।

पर इस बात की पूरी आशंका है कि केरल में मुआवज़े का मामला जिस तरह केन्द्र और राज्य के विवाद में लटक गया वैसा ही कहीं उत्तर प्रदेश में भी न हो। केरल में प्लाचीमाड़ा का संयन्त्र 2004 में ही बन्द हो गया और उसके बाद 2011 में वहाँ की विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक कानून पास किया जिसके तहत किसानों को हुए 216.5 करोड़ रुपए के नुकसान की भरपाई के लिये राज्य स्तर पर एक पंचाट बनाया जाना था।

राज्य सरकार ने वह बिल राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिये भेजा लेकिन कोकाकोला की लाबिंग से वह बिल रुक गया। उन लोगों ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को समझा दिया यह बिल संविधान सम्मत नहीं है। अब लगभग वही रवैया एनडीए सरकार ने भी अपना रखा है।

इस सरकार का कहना है कि यह बिल तो एनजीटी कानून से सीधे टकराव करता है। इसलिये राज्य को अपना पंचाट न बनाकर एनजीटी के पास जाना चाहिए। यानी यूपीए और एनडीए दोनों सरकारों का जो रवैया है वह कम्पनी के ही पक्ष में जा रहा है। ऐसे ही राजस्थान में कोकाकोला का काला डेरा संयन्त्र भी कई गाँवों में प्रदूषण फैला रहा है।

इन स्थितियों में भारत में कोकाकोला के काम पर लगाम लगने की उम्मीद भी है और निराशा भी। उम्मीद इसलिये की एनजीटी कई मामलों में अच्छे फैसले दे रहा है और उससे आशा बँधती है। लेकिन निराशा इसलिये क्योंकि न तो अब देश में कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरुद्ध अस्सी और नब्बे के दशक जैसा जनमत है और न ही वैसा आन्दोलन।

ध्यान देने की बात है कि आजादी बचाओ आन्दोलन जो कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड द्वारा हुई भोपाल गैस त्रासदी के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विरुद्ध ही बना था और उसने इस बारे में चेतना जगाने का व्यापक काम किया था। उसने इन उत्पादों के आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी नुकसान की जानकारी का काफी प्रचार किया था। उसके बाद वैज्ञानिक शोधों में भी यह बात सामने आई कि कोकाकोला के उत्पादों में कीटनाशक की खतरनाक मात्रा पाई जाती है।

जिसके चलते संसद में इस पर पाबन्दी लगी। इधर बाबा रामदेव ने भी इसके विरुद्ध प्रचार किया। उधर न्यूयार्क कौंसिल मेंबर्स ने कोलम्बिया के दस दिन के दौरे में पाया था यह कम्पनी तमाम तरह के अनैतिक व्यापार करती है और अपने मज़दूरों के मानवाधिकारों का हनन करती है।

कोलम्बिया वैसे भी ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्याओं के लिये काफी बदनाम है और वहाँ इस काम में कोकाकोला ने भी अपने ढंग से योगदान दिया है। न्यूयार्क कौंसिल मेम्बर्स ने भी कोकाकोला को मजदूरों के मानवाधिकारों के 179 बार उल्लंघन का दोषी पाया था। इस बारे में दब आइएलओ ने बात करने और जाँच करने की कोशिश की तो कम्पनी ने सहयोग नहीं किया। उस कम्पनी को डब्लूएचओ ने भी हिदायत दी थी कि अपने उत्पाद के प्रचार के लिये उसके नाम का जिक्र न करे।

आज जब देश में तमाम पर्यावरण आन्दोलनों को हतोत्साहित किया जा रहा है, ग्रीनपीस पर पाबन्दी लगाई जा रही है और आजादी बचाओ या स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन पछाड़ खा चुके हैं तब यह सवाल उठता है कि क्या हमारी संवैधानिक संस्थाएँ कोकाकोला जैसी घाघ कम्पनियों से पर्यावरण की रक्षा कर पाएँगी? शायद वे एक हद तक कर पाएँगी लेकिन ज्यादा दूर तक नहीं जा पाएँगी।

ऐसे में उम्मीद बनती है देश में ज़मीन अधिग्रहण के नए कानून के खिलाफ गोलबन्द हो रहे किसानों से। सम्भव है वे अपनी ज़मीन की रक्षा के लिये इन अतिक्रमणों से भी निपटें। क्योंकि कोकाकोला को अपने स्वाद का हिस्सा बना चुका और कभी जनलोकपाल के लिये खड़ा होने वाला मध्यवर्ग शायद ही उससे लड़ने उतरे।

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