कोपेनहेगन के आगे वैश्विक तपन

कोपेनहेगन समझौते के प्रारूप के लिए उत्तरदायी बेसिक नेतृत्व के कुछ सदस्यों, अर्थात् भारत और चीन ने दृढ़तापूर्वक और कुछ हद तक बड़ी समझदारी से विश्व के सर्वाधिक उत्सर्जक देशों द्वारा शमनात्मक उपायों को सख़्ती से लागू करने की इच्छा के अभाव का उदाहरण देते हुए उत्सर्जन में पूर्ण कटौती करने से इंकार कर दिया। इसके अतिरिक्त, इन देशों ने यह रुख अख़्तियार किया है कि कोपेनहेगन समझौते को केवल भावी वार्ताओं के दिग्दर्शक दस्तावेज के रूप में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इसे वैधानिक मान्यता तभी मिलनी चाहिए जब अन्य 180 देश भी इस पर हस्ताक्षर कर दें। वैश्विक तपन यानी जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित हालिया सन्धि, जिसे कोपेनहेगन समझौता भी कहा जाता है, पर 18 दिसम्बर, 2009 को कोपेनहेगन में हस्ताक्षर किए गए थे। सम्मेलन के अन्तिम दिनों में 193 देशों के प्रतिनिधिमण्डलों और अनेक गैर-सरकारी संगठनों ने भाग लेकर, इसे हाल के समय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्यावरण सम्मेलन बना दिया। पक्षों के इस 15वें सम्मेलन (सीओसी) में 100 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने भाग लिया।

सम्मेलन के उथल-पुथल और भ्रान्तिपूर्ण माहौल के बीच ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन (बेसिक देश) ने यूएनएफसीसीसी प्रक्रिया से परे, अमरीका के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए। मेजबान देश द्वारा वार्ता पर आधारित अलग से प्रारूप लाए जाने की आशाओं के बीच यह समझौता अन्य सहभागी देशों के लिए एक झटके के तौर पर सामने आया।

कोपेनहेगन समझौता (सीए) जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों के लिए कई मामलों में झूठी सहानुभूति जैसा साबित हुआ। अधिकांश निर्धन देश समझौते के बारे में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव और उसकी प्रक्रिया से भ्रमित होकर रह गए। विश्व के सभ्य समाज में कोपेनहेगन के उपरान्त जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी वार्ताओं और विश्व के प्रमुख उत्सर्जक देशों द्वारा उठाएगए कदमों को लेकर चिन्ताएँ बढ़ती जा रही हैं।

प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य है कि भावी सम्पोषणीय समृद्धि के लिए सुविचारित नियोजन, उद्योग जगत की भागीदारी और समाज के सदस्यों के रूप में युवाओं की सहभागिता से किस प्रकार भारत में जलवायु परिवर्तन के मुद्दों के बारे में मौजूदा संवेग को जारी रखा जा सकता है।

कोपेनहेगन समझौते को प्रभावहीन बनाने (महत्वाकांक्षी शमन लक्ष्यों में कटौती) और वैधानिक रूप से अबाध्यकारी बनाने (विश्वके सभ्य समाज की दृष्टि में अप्रभावी), साथ में वैश्विक आर्थिक मन्दी से केवल यही संकेत मिलता है कि प्रमुख ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक देशों पर उत्सर्जन में तेजी से कटौती करने के लिए अपेक्षित दबाव का अभाव रहा है।

कोपेनहेगन समझौते के प्रारूप के लिए उत्तरदायी बेसिक नेतृत्व के कुछ सदस्यों, अर्थात् भारत और चीन ने दृढ़तापूर्वक और कुछ हद तक बड़ी समझदारी से विश्व के सर्वाधिक उत्सर्जक देशों द्वारा शमनात्मक उपायों को सख़्ती से लागू करने की इच्छा के अभाव का उदाहरण देते हुए उत्सर्जन में पूर्ण कटौती करने से इंकार कर दिया। इसके अतिरिक्त, इन देशों ने यह रुख अख़्तियार किया है कि कोपेनहेगन समझौते को केवल भावी वार्ताओं के दिग्दर्शक दस्तावेज के रूप में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए और इसे वैधानिक मान्यता तभी मिलनी चाहिए जब अन्य 180 देश भी इस पर हस्ताक्षर कर दें।

इस राजनीतिक और कूटनीतिक सौदेबाजी का नतीजा बिल्कुल स्पष्ट है- ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की वैश्विक प्रतिबद्धता को और कम करना। यह सीधे-सीधे मालदीव, नेपाल, बांग्लादेश और भारत जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील ज्यादातर देशों की स्थिति में और गिरावट आने की ओर संकेत करता है। कोपेनहेगन समझौते से जो अविश्वास पैदा हुआ है, उससे छोटे-छोटे द्वीपीय देशों, चारों ओर से ताकतवर सीमाओं से घिरे देशों, अल्प विकसित और विकासशील देशों को बहुपक्षीय वार्ताओं से अपना ध्यान हटाकर द्विपक्षीय समझौते की ओर करने के लिए विवश कर दिया है।

परन्तु, विकसित देशों द्वारा वर्ष 2010-2012 के बीच 30 अरब डाॅलर की अनुकूलन सहायता के बारे में की गई संयुक्त घोषणा को भावी वार्ताओं की दिशा में एक सकारात्मक संकेत माना जा सकता है। यह समझौता प्रभावित देशों की बाहरी सहायता प्राप्त करने की नीति को बदलकर अनुकूलन केन्द्रित आन्तरिक रणनीति अपनाने को विवश कर देगा। क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अधिकतर देश उत्सर्जन के दोषी नहीं हैं।

अनुमानित प्रभाव, खतरा और कार्रवाई की गुंजाईश


जलवायु परिवर्तन के बारे में भारत का जो चिन्ताजनक परिदृश्य तैयार किया गया है, उसमें धरती के तापमान में 2.5-5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और वार्षिक वर्षा में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की सम्भावना व्यक्त की गई है। इस प्रकार सूखे वाले क्षेत्रों में और सूखा तथा वर्षा वाले क्षेत्रों में और अधिक वृष्टि होगी। इन परिवर्तनों से अनाज, सब्जियों और फलों का उत्पादन प्रभावित होगा और कृषि राजस्व में 9-25 प्रतिशत की कमी हो सकती है। वानिकी क्षेत्रा में वनों के व्यापक क्षरण की सम्भावना है। वर्ष 2085 तक वनों के प्रकार में 68-77 प्रतिशत नकारात्मक बदलाव के कारण जैव विविधता में भी भारी कमी होने की आशंकाजताई गई है। स्वास्थ्य क्षेत्र में भी मौसम में बदलाव के कारण रोगवाही कीटों से होने वाली मलेरिया जैसी बीमारियों के उन क्षेत्रों में फैलने की आशंका है, जो अब तक उनसे अछूते रहे हैं। अतिसार जैसी बीमारियों और हैजे के प्रकोप के कारण मृत्युदर में वृद्धि के बारे में भी भविष्यवाणियाँ की गई हैं, जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

भारत ने यूएनएफसीसीसी को 2004 में जो पहला अभिवेदन भेजा था, उसमें इस तथ्य को बताया गया कि सामाजिक-आर्थिक दबावों के कारण पहले से ही तनाव झेल रहे वन, कृषि और मत्स्यपालन जैसे क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के कारण और भी गम्भीर प्रभाव पड़ने की आशंका है। इन परिवर्तनों से देश की सभी सामाजिक और पारिस्थितिकीय प्रणालियाँ प्रभावित होंगी।

स्पष्ट है कि भारत की स्थिति अन्य देशों से अलग है। यहाँ जनसंख्या का काफी बड़ा प्रतिशत ऐसा है जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अति संवेदनशील है, तो वहीं इसे ग्रीनहाउस गैसों के प्रमुख उत्सर्जक देशों में (कुल निकासी के अर्थ में) गिना जाता है। अब चूँकि अनेक देश जलवायु परिवर्तन और विकास के प्रति प्रतिक्रियावधि रणनीति के स्थान पर स्वतः सक्रिय (प्रोएक्टिव) रणनीति अपनाने की ओर अग्रसर हो रहे हैं, यह भारत के हित में होगा कि वह आन्तरिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर उन विकासशील देशों के लिए एक मैत्रीपूर्ण छवि प्रस्तुत करें, जो हमेशा से विकास-आदर्शों और कूटनीति के लिए भारत की ओर देखते आए हैं।

चूँकि उत्सर्जन में पूर्ण रूप से कटौती करना निकट भविष्य में कतई सम्भव नहीं है अतः जलवायु परिवर्तन को विकसित देशों द्वारा विकास के मार्ग में थोपी गई असुविधाजनक बाधाओं के स्थान पर भारत को उसे विकास की वैश्विक चुनौती के रूप में लेना चाहिए और अदल-बदल कर प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, कम कार्बन वाले अधोसंरचना निर्णयों और ऐसी ऊर्जा नीतियों को अपनाने के लिए सम्भावित अन्तरराष्ट्रीय भागीदारी की ओर ध्यान देना चाहिए, जिससे ऊर्जा सुरक्षा में वृद्धि हो सके और नवाचार के अवसरों में इजाफा हो।

इन प्राथमिकताओं की स्वीकार्यता की झलक कुछ सीमा तक जून 2008 में घोषित राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना में दिखाई देती है जिसमें शमन और अनुकूलन से सम्बन्धित 8 मिशनों की स्थापना की बात कही गई थी। यह स्वीकार्यता, उसके बाद शुरू हुई ऊर्जा-प्रयासों में भी दिखाई देती है। उदाहरण के लिए, नवम्बर 2009 में, सरकार ने सौर ऊर्जा का उत्पादन 2022 तक 6 मेगावाट से बढ़ाकर 20 गीगावाट करने के लिए तीन चरणों वाले सौर ऊर्जा मिशन को मंजूरी दी। सौर ऊर्जा के उत्पादन में 3,000 गुना वृद्धि के इरादे से यह मिशन बनाया गया है।

परियोजना के पहले चरण पर 90 करोड़ डाॅलर का खर्च होगा, जबकि कुल लागत 12-20 अरब डाॅलर के बीच रहने की आशा है। इसके अतिरिक्त, जनवरी 2010 में यूएनएफसीसीसी को स्वैच्छिक रूप से की गई घोषणा के अनुसार उत्सर्जन तीव्रता में 2020 तक 2005 के स्तर से 20-25 प्रतिशत की कटौती की जाएगी। साथ ही, मौजूदा बजट में हरित प्रौद्योगिकी का उपयोग करने वालों को करों में रियायत देने की जो घोषणा की गई है, उससे शमन और अनुकूलन दोनों पहलुओं से, जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने की दिशा में अच्छी शुरुआत हुई है।

परन्तु राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना (एनएपीसीसीसी) पर पूर्ण रूप से अमल करने और जलवायु परिवर्तन के आयोगों को विकास की व्यापक धारा की ओर मोड़ने के लिए तकनीकी विशेषज्ञता और अप्रत्याशित स्तर पर विस्तारित संस्थागत् क्षमता के साथ-साथ सभ्य समाज, सरकार और उद्योग जगत के बीच प्रभावी समन्वय की आवश्यकता होगी।

विकास पर अपेक्षाकृत कम प्रभाव डालने वाली स्थिति के अनुसार अपने आपको ढालने से अन्य अनेक लाभ हो सकते हैं, जिन पर इन नीतिगत निर्णयों की उच्च लागत पर विचार करते समय सोचना महत्वपूर्ण हो सकता है। उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधन के स्थान पर स्वच्छतर प्रौद्योगिकियों के इस्तेमाल से मानवीय स्वास्थ्य को होने वाला लाभ।

इस प्रकार, यह साबित हो जाने के बाद कि भारत एक सुदृढ़ वार्ताकार है और यूएनएफसीसीसी प्रक्रिया का एक प्रतिबद्ध पक्ष है, उसे अब अपने विकास के लिए ऐसी राष्ट्रीय नीतियाँ अपनाने की ओर कदम बढ़ाना चाहिए जिनसे जलवायु पर कोई ख़ास असर न पड़ता हो। इनके बारे में इस आलेख में आगे विस्तार से जानकारी दी गई है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की संवेदनशीलता को न्यूनतम स्तर पर लाने के साथ-साथ यूएनएफसीसीसी प्रक्रिया में अपनी प्रमुख स्थिति की सुदृढ़ता के लिए यह अनिवार्य है।

सर्वाधिक कटौती की क्षमता वाले शमन प्रयास और उनके लाभ


राष्ट्रीय शमन नीति का जहाँ तक सवाल है, भारत को उन क्षेत्रों में कार्रवाई करनी चाहिए जिनसे उत्सर्जन में कटौती की अधिक सम्भावना हो, जैसे कि ऊर्जा कार्यकुशलता यानी ऊर्जा की खपत में किफायत। इन प्रयासों को फलीभूत करने के लिए अन्तरराष्ट्रीय भागीदारियों से शुरुआती लागत की क्षतिपूर्ति आंशिक रूप से की जा सकती है।

इससे भविष्य में अधोसंरचना में बदलाव की दीर्घकालिक लागत की भारी सम्भावना से भी बचा जा सकता है। परिवहन और भवन निर्माण जैसे अधिक उत्सर्जन और उच्च विकास के क्षेत्रों में हस्तक्षेप से विशेष प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरणार्थ, यदि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नए भवनों में निश्चित पर्यावरणीय संहिताओं का पालन किया जा रहा है, तो पर्यावरण-हितैषी अधोसंरचना की ओर कदम बढ़ाने का यह अपेक्षाकृत किफायती परन्तु व्यापक और कुशल तरीका हो सकता है। इसी प्रकार, ऊर्जा की खपत में किफायत से उत्सर्जन कटौती की सम्भावना सबसे अधिक बढ़ जाती है।

जलवायु से अप्रभावित विकास के बारे में प्राथमिक चिन्ता का विषय राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सामाजिक-आर्थिक विकास परियोजनाओं और रणनीतियों पर पुनर्विचार की क्षमता और किसी स्तर पर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन का समेकन है। संकर बीज विविधता परियोजनाएँ, माइक्रो/मिनी पनबिजली परियोजनाएँ और स्वास्थ्य परियोजनाएँ इन परिवर्तनों से सबसे आसानी से प्रभावित हो जाती हैं। इनकी रूपरेखा इस प्रकार बनाई जानी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन का उन पर असर न पड़े। किफायती खपत वाले ऊर्जा उपकरणों की स्थापना की सर्वसुलभ वित्तीय रणनीति से भारत के मझोले और लघु उद्योगों को काफी लाभ पहुँच सकता है। ये वे क्षेत्र हैं जिनको लगाने से साथ में अन्य अनेक लाभ भी होते हैं, जैसे यातायात की भीड़ से बचाव की लागत में कमी, स्वच्छ वायु से मानव स्वास्थ्य को होने वाले फायदे और संसाधन का किफायती उपयोग। इसके अतिरिक्त, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारियों से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि निजी क्षेत्र वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता बनाए रख सकेगा।

भारत का निजी क्षेत्र नवीकरणीय प्रौद्योगिकी प्रयासों के मामले में काफी सक्रिय है। भारत पवन ऊर्जा के मामले में विश्व का चौथा सबसे बड़ा बाजार है और दूसरा सबसे तेजी से बढ़ने वाला (पवन ऊर्जा) बाजार। नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं का हिस्सा भारत के स्वच्छ विकास तन्त्र (सीडीएम) में सबसे बड़ा है (815 में से 536 परियोजनाएँ), जिनको यदि उचित रूप से बढ़ाया जाए तो स्वच्छ ऊर्जा के लिए वे निवेश का सुदृढ़ स्रोत बन सकती हैं। स्पष्ट और निरन्तर लक्ष्य दिए जाने से इन क्षेत्रों में दीर्घकालिक निवेश करना आसान होगा, जोकि बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि अधिकांश स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की लागत की भरपाई में पारम्परिक प्रौद्योगिकियों की तुलना में अधिक समय लगता है।

राष्ट्रीय विकास कार्यक्रमों में अनुकूलन का समेकन


वर्तमान में, भारत के अधिकांश विकास कार्यक्रमों और योजनाओं की क्रियान्वयन रणनीतियों में जलवायु की अनिश्चितताओं का समेकन नहीं किया गया है और इसलिए, जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितताओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती हैं।

जलवायु से अप्रभावित विकास के बारे में प्राथमिक चिन्ता का विषय राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सामाजिक-आर्थिक विकास परियोजनाओं और रणनीतियों पर पुनर्विचार की क्षमता और किसी स्तर पर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन का समेकन है। संकर बीज विविधता परियोजनाएँ, माइक्रो/मिनी पनबिजली परियोजनाएँ और स्वास्थ्य परियोजनाएँ इन परिवर्तनों से सबसे आसानी से प्रभावित हो जाती हैं। इनकी रूपरेखा इस प्रकार बनाई जानी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन का उन पर असर न पड़े।

मुख्य विकास नीति में अनुकूलन के सम्मेलन और ‘जलवायु-सह’ कार्यक्रमों के सुविचारित प्रयासों से क्रियान्वयन की कुल लागत में कटौती की जा सकेगी और इससे सफलता की सम्भावना बढ़ जाएगी। इन उपायों को शामिल करने का एक अच्छा अवसर हमें महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी कार्यक्रम (मनरेगा) में प्राप्त हो सकता है, क्योंकि स्थानीय संस्थाएँ इससे सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं।

स्थानीय संस्थाओं को इन कार्यक्रमों से जोड़ना बहुत निर्णायक साबित हो सकता है क्योंकि इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मैदानी स्तर पर जो उपाय किए जा रहे हैं वे स्थानीय परिस्थितियों और पद्धतियों के सर्वथा अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए मनरेगा की लगभग 10 लाख परियोजनाओं का करीब 60 प्रतिशत जल निकायों के निर्माण, सुधार और पुनर्भराव से सम्बन्धित है।

इस प्रकार के कार्यक्रमों के क्षेत्र में विस्तार और उनको गरीबी उन्मूलन और रोज़गार सृजन नीतियों से जोड़ने से न केवल विकास के लक्ष्य पूरे हो सकेंगे बल्कि स्थानीय स्तर पर अनुकूलन क्षमता में भी वृद्धि होगी। यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि प्रमुख निर्णय हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर लिए जाते हैं और जलवायु-सह नीति सम्बन्धी निर्णय भी इसका अपवाद नहीं होगा, अनुकूलन की कार्यवाही मुख्यतः स्थानीय परिस्थितियों और जानकारी के आधार पर ही तय की जानी चाहिए।

चूँकि स्थानीय स्तर के अनुकूलन में अधिकांश भागीदारी स्थानीय लोगों की ही होगी, यह महत्वपूर्ण होगा कि इस प्रकार की नीतियों को विशेष रूप से इस तरह तैयार किया जाए कि उनमें स्थानीय हित साधकों को भी शामिल किया जा सके।

जलवायु के अनुकूल विकास कार्यक्रमों से एक अन्य लाभ यह होगा कि यूएनएफसीसीसी के माध्यम से प्राप्त होने वाली अतिरिक्त अन्तरराष्ट्रीय अनुकूलन वित्तीय सहायता को अधिक अनुकूलन लाभ देने वाले कार्यक्रमों की ओर आसानी से मोड़ा जा सकेगा।

सम्पोषणीय विकास हेतु जनमत निर्माण


पीढ़ियों में समानता का एकीकरण, निर्णय प्रक्रिया में युवा सहभागिता को संस्थागत स्वरूप देना, एनएपीसीसी में जिन मिशनों का शुरुआत की गई है उनमें यद्यपि आगे बढ़ने का बढ़िया माद्दा है और उनकी निर्णय प्रक्रिया में नगर समाज को शामिल किया जा सकता है, परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में युवाओं के ठोस प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है।

अधिकांश पूर्वानुमानों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वर्तमान नीतियों और कार्यों के परिणाम भावी पीढ़ी के लिए अतार्किक और असंगत हो सकते हैं और इसलिए वर्तमान निर्णय प्रक्रिया में मुख्य चालक बीज के रूप में पीढ़ीगत समानता के सिद्धान्त को स्वीकार करने की आवश्यकता है। जलवायु सम्बन्धी चर्चाओं और कार्यों में भारत के युवा काफी सक्रिय रहे हैं। निर्णय की इस प्रक्रिया में जब तक युवाओं का मजबूत प्रतिनिधित्व नहीं होगा, जलवायु परिवर्तन के वर्तमान संवेग को स्थायी रूप नहीं दिया जा सकेगा।

अधिकार बनाम कर्तव्य और जनभागीदारी


इस आलेख के अधिकांश भाग में जलवायु परिवर्तन प्रक्रिया से सम्बन्धित सरकारी कार्रवाई की आवश्यकता, नागर समाज और स्थानीय हित साधकों के अधिकारों के बारे में चर्चा की गई है। हाल के एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण (2009) में यह दर्शाया गया है कि चीन, ब्राजील, ब्रिटेन और अमरीका जैसी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बात में यकीन करता है कि जलवायु परिवर्तन एक आसन्न समस्या है।

इसका सकारात्मक पहलू यह है कि समस्या समाधान योग्य है। व्यक्तिगत व्यवहार में बदलाव लाने के लिए लोगों को सरकार की ओर से भारी प्रोत्साहनों की अपेक्षा है। सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है कि जनसंख्या (लोग) सामूहिक, व्यक्तिगत कार्यवाहियों की सम्भावित क्षमता से अवगत् है और सरकार एवं नागर समाज के बीच मिलकर काम करने के लिए अवसर की एक खिड़की खुली हुई है ताकि स्थानीय और राष्ट्रीय स्तरों पर पर्यावरणीय प्रभाव में कमी लाने के लिए व्यक्तिगत कार्यों को कर्तव्य का रूप दिया जा सके।

सरकार जहाँ एक ओर, आबादी के विभिन्न वर्गों की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु विद्युत उत्पादन और आपूर्ति के अपने तौर-तरीकों पर विचार कर रही है, वहीं उसे उद्योग जगत पर यह दबाव बनाए रखने की आवश्यकता है कि वह अपने पर्यावरणीय पदचिह्नों में कटौती की ओर ध्यान दे। सामूहिक जनकार्रवाई से इसे और आगे बढ़ाया जा सकता है।

निष्कर्ष


यहाँ हम यह मान भी लें कि कोपेनहेगन में भारतीय कूटनीति विकास के अधिकार को संरक्षित कर अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में कामयाब रही, परन्तु हम विकास के पुराने तौर-तरीकों को बनाए रखते हुए सम्भावित खतरों की अनदेखी नहीं कर सकते।

जलवायु परिवर्तन विश्व समुदाय के समक्ष मौजूद एक आसन्न चुनौती है। इसका सामना करने के लिए वैश्विक, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर मिले-जुले प्रयासों की आवश्यकता है। इसके साथ ही, अधिक सम्पोषणीय विकास के रास्ते पर चलने से अनेक आर्थिक अवसर भी हाथ में आते हैं, जैसे अधिक किफायती संसाधन उपयोग तथा और अधिक पर्यावरण अनुकूल उद्योग। जलवायु परिवर्तन के विषय में भारत की स्थिति सबसे जुदा है और इसलिए हमें आर्थिक विकास के लक्ष्यों को इन अवसरों के साथ-साथ जलवायु सम्बन्धी खतरों के प्रति प्रासंगिक बनाना होगा। हाल की अनेक नीतियों में सम्पोषणीयता का पुट है। नागर समाज और निजी क्षेत्र के साथ तालमेल बिठाते हुए इसे बनाए रखने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि जलवायु पर कार्रवाई की गति बनी हुई है और साथ ही मुख्यधारा के विकास सम्बन्धी लक्ष्यों से इसका एकीकरण हो चुका है।

(लेखक द्वय अमरीका स्थित येल स्कूल आॅफ फॉरेस्ट्री एंड एनवाएरनमेंटल स्टडीज़ में शोधरत हैं।
ई-मेल : namrata.kala@yale.edu एवं alark.saxena@yale.edu)

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