कृषि भूमि अधिग्रहण की यमुना-व्यथा

आजादी के बाद छोटे-छोटे किसानों, भूमिहीन मजदूरों के हित के मद्देनजर भूमि के समान वितरण करने के इरादे से भूमि हदबंदी कानून बनाया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर सिंचित भूमि की सीमा 4 से 7 हेक्टेयर तथा गैर-सिंचित भूमि के लिए 21 हेक्टेयर तय की गई थी। आज इस कानून में संशोधन किए जा रहे हैं ताकि निजी कंपनियों को हजारों एकड़ भूमि संग्रह करने में कोई दिक्कत न आए।

अधिकतर लोग यह धारणा रखते हैं कि किसान भूमि बेच कर एकाएक मालामाल हो जाते हैं। यह सच से कितना परे है, इसे जानने के लिए अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं। दिल्ली में यमुना के समीप बसे गांव बेहलोलपुर खादर, किलोकरी, नंगली राजापुर, गढ़ी मूडू, खिजराबाद, जोगाबाई, ओखला, जसोला तथा मदनपुर खादर की भूमि पर, स्वतंत्रता के बाद 1950 के दशक में न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी, महारानी बाग एवं कालिंदी कॉलोनी वगैरह का निर्माण हुआ। तब कॉलोनियां निजी कंपनियों ने बसाई थीं। 1957 में डीडीए की स्थापना हुई। गांव की बची हुई भूमि का अधिग्रहण सरकार ने कर लिया। आज इन कॉलोनियों में जमीन की दर लगभग तीन लाख प्रति वर्गमीटर है। इन गांवों की कृषि भूमि का अधिग्रहण यमुना नदी के बाढ़ नियंत्रण, कालिंदी बाइपास तथा डीएनडी टोल पुल के निर्माण आदि अन्य सार्वजनिक कार्यों के लिए किया गया था। पर बसी कॉलोनियां। एक याचिका के जरिए 89 रुपए प्रतिवर्ग मीटर की हास्यास्पद मुआवजे की राशि को गांववालों ने हाईकोर्ट में चुनौती दी और 2300 रुपए प्रतिवर्ग मीटर का एक बैनामा मौजूदा बाजार दर के लिए सबूत के रूप में पेश किया पर 07 जून 2011 के दिल्ली हाईकोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया।

यमुना नदी की पूर्वी सीमा तटबंध पुस्ता तथा पश्चिम में रिंग रोड है। लगभग 1650 मीटर के सक्रिय नदी क्षेत्र के आस-पास के संरक्षण की जरूरत और पारिस्थितिक विशेषताओं को देखते हुए इस क्षेत्र को डीडीए के ओ जोन में रखा गया है। इस क्षेत्र से अतिक्रमण हटाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट ने एक समिति भी नियुक्त कर दी है। इसमें कोई शक नहीं कि यमुना का प्रदूषण स्तर अत्यधिक है और चूंकि दिल्ली में 70 प्रतिशत पानी की आपूर्ति यानी लगभग 57 लाख लोग यमुना के पानी पर निर्भर हैं इसलिए नदी के संरक्षण का महत्व और बढ़ जाता है। यमुना एक्शन प्लान 1993 से लागू है और अब तक 2500 करोड़ रुपए यमुना के नाम पर बहाए जा चुके हैं। मगर दिल्ली में यमुना नाम की नदी बची ही नहीं है। जो है वह बदबूदार नाला बह रहा है। दो बहुचर्चित निर्माण पिछले कुछ वर्षों में यमुना तट क्षेत्र में हुए।

मास्टर प्लान को बदल कर तथा सभी आपत्तियों को अनदेखा कर स्वामीनारायण संप्रदाय को 58 एकड़ भूमि 77 लाख रुपए प्रति एकड़ (1925 रुपए प्रति वर्गमीटर) की दर पर अक्षरधाम मंदिर के निर्माण के लिए आवंटित की गई। इससे पर्यावरण के दुष्परिणामों के मद्देनजर दायर की गई याचिका सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो गई। कुछ दिन पहले पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने खुलासा किया कि अक्षरधाम ट्रस्ट ने पर्यावरण की मंजूरी के लिए कभी कोई अर्जी नहीं दी। दुसरा किस्सा राष्ट्रमंडल खेलगांव के निर्माण का है। इसके खिलाफ याचिका भी सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अगुवाई में तीन सदस्यीय पीठ ने यह कहकर खारिज कर दिया कि निर्माण कार्य में सभी न्यायिक प्रक्रियाओं का पूर्ण रूप से पालन हुआ है। इस दौरान परिसर में उपयोग लाई गई लगभग 100 एकड़ भूमि का बाजार मूल्य 12500 रुपए प्रति वर्गमीटर से करीब 500 करोड़ रुपए आंका गया। इन दोनों परियोजनाओं से यमुना तट की भूमि का महत्व और निहित स्थानीय लाभ साफ नजर आता है।

यमुना किनारे भूमि अधिग्रहणयमुना किनारे भूमि अधिग्रहण17 सितंबर 2011 को उपराज्यपाल की अध्यक्षता के बैठक में इस क्षेत्र के 9700 हेक्टेयर में डीडीए द्वारा एक एकीकृत जैव विविधता पार्क विकसित करने की योजना पर चर्चा हुई। यमुना नदी के समीप की भूमि का उपयोग, रासायनिक खाद के उपयोग बिना कृषि और वनस्पति उद्यान में करना बेहतर है। क्षेत्र की सीमा की हदबंदी करने के बाद किसानों को कृषि के लिए सौंप दी जानी चाहिए। पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ताओं और सरकार में ऐसा नजरिया बने तभी जनहित के लिए सही भूमि उपयोग नीति बन सकती है। भूमि अधिग्रहण में किसानों के साथ हुए अन्याय का यह एक और जीवंत उदाहरण देखिए। आज के भू बाजार में 89 रुपए वर्ग मीटर का मूल्यांकन अकल्पनीय लगता है। लगभग 15-20 किमी. यमुना के किनारे उत्तर प्रदेश में नोएडा एक्सप्रेस वे पर स्थित कामनगर वगैरह गांवों की यमुना तट की भूमि पर फार्म हाउस बनाने के लिए भूमि 3000 रुपए प्रति वर्गमीटर की दर से बिक रही है। दिल्ली के किसानों की भूमि का मूल्यांकन किस आधार पर किया गया है और यह अधिग्रहण किस विकास कार्य के लिए किया गया है, यह तार्किक सोच से परे है।

सिंगूर, उड़ीसा, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश में किसानों ने लगातार विरोध प्रदर्शन कर देश का ध्यान भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के प्रावधानों के तहत किसानों पर किए गए शोषण की ओर आकर्षित किया। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने पिछले महीने के एक आदेश में यह माना कि सरकार को भूमि का इस्तेमाल तय करते और अधिग्रहण करते वक्त किसानों के हित के खिलाफ काम करने का अधिकार नहीं है। दिल्ली में वसंत कुंज स्थित तीन मॉल किसानों से दो रुपए प्रति वर्गमीटर की दर पर अधिग्रहित भूमि पर बने हैं। यह क्षेत्र दक्षिणी केंद्रीय अरावली रिज सुरक्षित पर्यावरण जोन का हिस्सा भी है पर किसानों से सस्ते भाव पर भूमि हथियाकर डीडीए ने 1100 करोड़ रुपए में नीलामी के जरिए वह जमीन बिल्डरों को मॉल एवं होटल बनाने के लिए सौंप दिया। आजादी के बाद छोटे-छोटे किसानों, भूमिहीन मजदूरों के हित के मद्देनजर भूमि के समान वितरण करने के इरादे से भूमि हदबंदी कानून बनाया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर सिंचित भूमि की सीमा 4 से 7 हेक्टेयर तथा गैर-सिंचित भूमि के लिए 21 हेक्टेयर तय की गई थी। आज इस कानून में संशोधन किए जा रहे हैं ताकि निजी कंपनियों को हजारों एकड़ भूमि संग्रह करने में कोई दिक्कत न आए।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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