कृषि उत्पादन बढ़ाने की रणनीति

Kheti
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सन् 2025 में हमारी खाद्यान्न की आवश्यकता 30 करोड़ टन के करीब आंकी गई है। इसे पूरा करने का मतलब है हर साल कृषि उत्पादन में 4 प्रतिशत की वृद्धि दर बनाए रखना, जो इतना आसान नहीं है। अधिकतर साल-प्रणालियों में निवेशों के उपयोग का लागत-लाभ अनुपात घटता जा रहा है और हमारी प्राकृतिक संपदा का आधार तेजी से सिकुड़ रहा है। स्वतंत्रता के बाद से ही देश का विकास जिन रास्तों पर चल पड़ा, वे असल में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध शोषण के रास्ते थे। हमने कुदरत को इतना सताया कि उसकी नाराजगी पर्यावरण संबंधी तमाम समस्याओं के रूप में खूट पड़ी। संसाधनों के विनाश को हमने जिस सीमा तक बढ़ाया है, वह निश्चय ही चरम के निकट पहुंच गया है। एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरी कृषि योग्य भूमि का रकबा भी घट रहा है। अर्थव्यवस्था और जनसंख्या दोनों की विस्फोटक वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर हो रही है। हमारी वर्तमान प्रणालियां आज ही नहीं कल भी टिकाऊ बनी रहें, इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा सर्वोपरि है। आशा की जाती है वैज्ञानिक शोषण और संरक्षण की दो विरोधी प्रक्रियाओं के बीच संतुलन स्थापित करेंगे। प्रावधानों के जरिए कम रकबे में अधिक उत्पादन की रणनीति अपनाई जाए। यह तभी संभव है, जब पर्यावरण सुरक्षा, संसाधन का संरक्षण और उनका तर्कसंगत उपयोग अनुसंधान और विकास की प्रक्रिया के अभिन्न अंग बन जाएं।

.स्वतंत्रता के बाद से ही देश का विकास जिन रास्तों पर चल पड़ा, वे असल में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध शोषण के रास्ते थे। हमने कुदरत को इतना सताया कि उसकी नाराजगी पर्यावरण संबंधी तमाम समस्याओं के रूप में फूट पड़ी, जैसे कि ग्रीन हाउस गैसों का भारी जमाव, ओजोन का घटाव, चढ़ता पारा और बुनियादी प्राकृतिक संसाधनों का प्रदूषण। किसी ने नहीं सोचा कि ये समस्याएं इतनी जल्दी मुंह बाएं खड़ी होंगी। आज तो मानो हमारी कृषि-व्यवस्था का आधार ही खिसकने लगा है-बदलती जलवायु, ढहते भू-संसाधन और तबाह होते प्राकृतिक संसाधन-इन्हीं सब पर तो हमारी कृषि टिकी रही है। ये वसुंधरा और इसका वातावरण मानव को धारण करने की सामर्थ्य रखता था, हमने उससे अधिक खींच लिया है और तेजी से चुकती जा रही प्राकृतिक पूंजी में अब जोड़ना शुरू नहीं किया, तो शायद फिर बहुत देर हो जाएगी। पर्यावरण संकट की जड़ें बड़ी गहरी हैं और इसे जड़ से उखाड़े बिना भविष्य के आर्थिक और सामाजिक संकट को नहीं टाला जा सकता। इस धरती के जैव-भौतिक संसाधनों के सिर पर जो खतरा मंडरा रहा है, यह आदमी की ही करतूत है, इसमें कोई संदेह नहीं है। संसाधनों के विनाश को हमने जिस सीमा तक बढ़ाया है, वह निश्चय ही चरम के निकट पहुंच गई है। कुछ क्षेत्रों में हो रहे परिवर्तन निश्चय ही युगांतरकारी हो चुके हैं। इसी के फलस्वरूप आज विश्व आर्थिक क्रांति के दौर से गुज़र रहा है।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की कुल जनसंख्या करीब 9.1 अरब के आंकड़े तक पहुंच सकती है। अभी विश्व की कुल जनसंख्या करीब 7 अरब है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही खाद्य पदार्थों की मांग करीब दोगुनी हो जाएगी। खासकर विकासशील देशों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ने से खपत भी बढ़ने की उम्मीद है। इनमें चीन और भारत मुख्य रूप से शामिल हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक जलवायु परिवर्तन, कृषि योग्य भूमि में कमी, जल संकट आदि के चलते 2050 तक करीब 35 फीसदी खाद्यान्न का उत्पादन कम होने की आशंका है। एक तरफ जनसंख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ कृषि योग्य भूमि का रकबा भी घट रहा है। उद्योगों के विकास और आवासीय परियोजनाओं के लिए खेती की जमीन के उपयोग के चलते पिछले दो दशक में कृषि योग्य भूमि करीब दो फीसदी तक घट गई है।

प्रावधानों के जरिए कम रकबे में अधिक उत्पादन की रणनीति अपनाई जाए। बढ़ती हुई आबादी के बावजूद भारत अपनी आत्मनिर्भरता बनाए रखे और निर्यात आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता रहे, इसके लिए अगले कुछ दशकों तक खाद्यान्न, दूध, मांस, मछली, अण्डे, फल, सब्जी, चारा, रेशा और ईंधन के उत्पादन में लगातार वृद्धि करनी होगी। फिलहाल हमारे खाद्य उत्पादन का एक हिस्सा भूमि और जल के गैर-टिकाऊ उपयोग का प्रतिफल है और अगर इसे सुधारा नहीं गया तो एक वक्त आएगा, जब खाद्य उत्पादन बढ़ने की बजाय घटने लगेगा। टिकाऊ संसाधन प्रबंध कठिन नहीं है, बशर्ते कि हम भावी अनुसंधान नीतियों में मिट्टी और पानी की बर्बादी को घटाने, क्षेत्रीय उत्पादकता में अंसतुलन दूर करने और पर्यावरण संकट जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दें।

प्राकृतिक संसाधनों की टिकाऊ सुरक्षा


हमारी वर्तमान प्रणालियां आज ही नहीं कल भी टिकाऊ बनी रहें, इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा सर्वोपरि है। यह तभी संभव है, जब पर्यावरण सुरक्षा, संसाधनों का संरक्षण और उनका तर्कसंगत उपयोग अनुसंधान और विकास की प्रक्रिया के अभिन्न अंग बन जाएं। प्रगति और विकास की दौड़ में हम गलत में पड़कर विकास के टिकाऊ रास्तों और प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के रास्तों में फर्क नहीं कर पाते।

सन् 2025 में हमारी खाद्यान्न की आवश्यकता 30 करोड़ टन के करीब आंकी गई है। इसे पूरा करने का मतलब है हर साल कृषि उत्पादन में 4 प्रतिशत की वृद्धि दर बनाए रखना, जो इतना आसान नहीं है। क्योंकि पिछली प्रगति के समय की सुविधाजनक परिस्थितियां बदल चुकी हैं। अधिकतर फसल प्रणालियों में निवेशकों के उपयोग का लागत-लाभ अनुपात घटता जा रहा है और हमारी प्राकृतिक संपदा का आधार तेजी से सिकुड़ रहा है। अर्थव्यवस्था और जनसंख्या दोनों की विस्फोटक वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर हो रही है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता का वर्तमान स्तर बनाए रखने के लिए भी हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर साल खाद्यान्न में कम से कम 50 लाख टन की वृद्धि बराबर होती रहे।

उपज के नए क्षितिज


जब से गेहूं और धान में बौनी किस्मों के विकास में अधिक उपज के द्वार खोले गए, तभी से उनकी आनुवांशिकी की उपज सीमा को लांघने के लिए वैज्ञानिक क्रियात्मक दृष्टि से अधिक कारगर पौध प्रारूप गढ़ने और संकर ओज की संभावनाओं का सदुपयोग करने की तरकीबें निकालने में लगे हैं। इन दोनों विकल्पों में से बाद वाला अधिक व्यावहारिक सिद्ध हुआ है, खासतौर से जब चीन ने संकर धान की तकनीक व्यावसायिक स्तर पर सफल सिद्ध कर दी। इस तकनीक ने सामान्य किस्मों में सर्वोत्तम किस्म की तुलना में एक से डेढ़ टन प्रति हेक्टेयर तक धान की ज्यादा पैदावार देकर चीन में संकर धान का क्षेत्र 55 प्रतिशत से अधिक बढ़ा लिया।

चीन के इस अनुभव से सबक लेते हुए भारत ने सन् 1989 में देश की परिस्थितियों के अनुरूप संकर धान विकसित करने का एक विशाल कार्यक्रम चलाया। यह प्रसन्नता की बात है कि ’सिमिट’ जैसी गेहूं और मक्का अनुसंधान के लिए प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्था अब संकर गेहूं और मक्का प्रौद्योगिकी में दिलचस्पी ले रही है। कपास, बाजरा और अरण्डी में भारत ने दुनिया में संकर किस्में विकसित करने में पहल की थी और उसी उपलब्धि से प्रेरणा लेकर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अब नई-नई किस्मों के ऐसे संकर पैदा करना चाहती है जो नई परिस्थितियों का डटकर सामना कर सकें। इसके लिए धान के अतिरिक्त सरसों, तोरिया, अरहर और कुसुम जैसी फसलों पर भी ध्यान दिया जा रहा है।

यदि उपज को अस्थिर बनाने वाले कारकों को पहचान कर उनका सुधार कर दिया जाए तो इस समय उपलब्ध किस्मों का ही उपयोग करके अगले 12 वर्षों में 6 करोड़ टन अतिरिक्त खाद्यान्न पैदा किया जा सकता है। यदि किस्मों और संकरों में रोधिता का वांछित स्तर दिया जाए और समेकित कीट प्रबंध की तकनीकें अपनायी जाएं तो उपज हानि काफी हद तक कम की जा सकती है। पोषक तत्वों के असंतुलित और कम मात्रा में उपयोग करने, अनुचित किस्मों को चुनने और घटिया बीज के कारण भी उपज की बहुत हानि होती है, जिसे कम किया जा सकता है। इस तरह उपज का अधिकतम स्तर प्राप्त किया जासकता है।

वर्तमान में अनेक प्रकार की बाधाओं को देखते हुए यह स्वाभाविक ही है कि हम अपने भीतर झांक कर इस प्रश्न का उत्तर खोजे कि क्या अगले दशक में उत्पादन की वर्तमान दर को बनाए रखने और इसी रफ्तार से बढ़ाए रखने की संभावनाएं उपलब्ध हैं अथवा नहीं।

कृषि विविधीकरण और टिकाऊपन की जरूरत


21वीं सदी के इस दशक में उत्पादन में विविधीकरण और टिकाऊपन की प्रक्रिया को खेत-खलिहान, किसान-परिवार और पशुधन की जरूरतों से जोड़ने के साथ-साथ दूरदराज के इलाकों तक नई खेती की रोशनी फैलाने की चुनौती सामने खड़ी है। कृषि उत्पादन में टिकाऊपन का टीका लगाने की दिशा में भी हमने अनेक ठोस कदम उठाए हैं, परन्तु अब भी राष्ट्र की विशाल कृषिगत संभावनाओं के सदुपयोग की भारी गुंजाइश है। सस्य-श्यामला भारत-भूमि के प्राकृतिक वैभव का क्या कहना। हर तरह की जलवायु है यहां। पूर्व में विश्व में सबसे अधिक वर्षा काक्षेत्र और पश्चिम में सर्वाधिक शुष्क क्षेत्र। इसी तरह मिट्टियां भी तरह-तरह की। मौसम ऐसा मानों फसलों की जरूरतों के हिसाब से गढ़ा गया हो।

जैव विविधता भी इतनी व्यापक कि भारत को वनस्पतियों के उद्भव के महाकेंद्रों में शामिल किया जाता है। विश्व की पुष्प-सम्पदा का 12 प्रतिशत हमारी धरती पर ही संजोया हुआ है और 45000 प्रजातियों के पेड़-पौधें, हमारे हरे सोने की खान हैं। इनमें से 5000 प्रजातियां भोजन, ईंधन, औषधि, रेशा और मसाले इत्यादि के लिए उपयोग की जाती हैं। वनस्पतियों की भांति प्राणियों की आनुवांशिक विविधता भारत में भरी पड़ी है और उसके उपयोग के अपार संभावनाएं हैं, यह सिद्ध हो चुका है।

भविष्य में कृषि को पारिस्थितिकी, जलवायुपरक, आर्थिक, सामाजिक, समता और न्याय तथा ऊर्जा और रोजगारपरक चुनौतियां विश्व स्तर पर झेलनी होंगी। इसके लिए आवश्यकता होगी नवोन्मेष की, प्रथम श्रेणी की तकनीकों के विकास की और फिर उन्हें प्रसारित करके गुणवत्तापूर्ण उत्पादों में बदलने की जो विश्व-स्पर्धा का मुकाबला कर पाएं और भरपूर मुनाफा कमाकर कृषि में जुटी जनता के रहन-सहन का स्तर ऊंचा उठा सकें। यह तभी संभव होगा, जब अनुसंधान और विकास गति तेज की जाएगी, प्रबंध कौशल में अभिवृद्धि की जाएगी और संसाधनों के आवंटन के साथ-साथ उनका समुचित और कारगर सदुपयोग किया जाएगा।

.भूमंडलीकरण ने दुनिया के बाजार खोल दिए हैं। विश्व-स्पर्धा में वही माल बिकेगा, जो दूसरों से बढ़कर साबित हो। यानी अब हमारे उत्पादों की गुणवत्ता भी उतनी ही जरूरी है, जितनी उत्पादकता। प्रति इकाई क्षेत्र, निवेश और समय से लाभप्रद उत्पादकता प्राप्त करने के साथ ही उसके मूल्य-अभिवर्धन पर अपेक्षित ध्यान देना होगा। इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के समय विकास की प्रक्रिया उस दौर में पहुंच चुकी है, जब आर्थिक दृष्टि से जांच-परख के बिना टिक पाना असंभव होगा। भूमंडलीकरण ने हमारा ध्यान गुणवत्ता की ओर खींचा है और उत्पादन प्रणालियों के साथ-साथ उपभोक्ता-प्रणाली, प्रशोधन, अभिमूल्यन तथा उत्पादों में विविधता आदि के अनेक पक्ष क्षितिज पर उभरते आ रहे हैं।

टिकाऊ उत्पादकता और पर्यावरण सुरक्षा के लिए प्रणालीगतदृष्टिकोण


अधिक फसल देने वाली फसलों और संकरों के प्रचलन के बाद, अधिक पैदावार और मुनाफे की होड़ ऐसी बढ़ी कि हमारा ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि ये प्रणाली कब तक चल पाएगी। इसी का नतीजा है कि ये सारी प्रणालियां जवाब दे चुकी हैं और उत्पादकता के स्तर को घटाने वाली नई-नई समस्याएं उभरने लगी हैं। इस तरह की कुछ समस्याएं ये हैं-पोषक तत्वों की दक्षता में कमी, मिट्टी में अनेक पोषक तत्वों का असंतुलन, मिट्टी के भौतिक, रासायनिक गुणों में प्रतिकूल परिवर्तन, पानी का दुरुपयोग, मिट्टी और पानी का प्रदूषण और कीटव्याधिक रोग-खरपतवार की सांठ-गांठ। हमारी सबसे लोकप्रिय और उत्पादक गेहूं-धान फसल प्रणाली का क्षेत्र इस बात का उदाहरण है कि जब टिकाऊपन पर खतरा पैदा होता है और उपज बढ़ने की बागडोर थम जाती है तो कितनी विकट समस्या पैदा हो जाती है।

इस कड़वे अनुभव से सबक लेकर जहां हम एक ओर फसलों की सघनता का ध्यान रख रहे हैं वहीं देश के विभिन्न भागों के लिए फलदार फसलों को शामिल करते हुए ऐसी फसल प्रणालियां विकसित करने लगे हैं जो हर साल में टिकाऊ साबित हो। इन प्रणालियों में अधिक मुनाफा देने वाली फसल शामिल करके आर्थिक स्थायित्व पैदा किया जाता है। इसमें लागत की दृष्टि से लाभप्रद फसल प्रबंध विधियां भी शामिल हैं। अधिक मूल्य वाली फसलों में चुने गए फसल चक्रों में मुख्य रूप से सूरजमुखी, सोयाबीन, मूंगफली, सरसों और बासमती धान इत्यादि शामिल किए गए हैं। इसी तरह कृषि की उत्पादकता और टिकाऊपन को ध्यान में रखते हुए समेकित पोषक प्रबंध और समेकित कीट प्रबंध की तकनीकों का अधिकाधिक प्रचलन किया जा रहा है। पानी की बचत के लिए कृषि में प्लास्टिक के उपयोग की संभावनाओं पर भी हम विशेष ध्यान दे रहे हैं।

बरानी क्षेत्रों की उपयोगिता बढ़ाने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण


यदि देश में सिंचाई की सम्पूर्ण संभावनाओं को साकार कर लिया जाए तो भी 50 प्रतिशत कृषि क्षेत्र बारानी ही रहेगा। इसीलिए यदि किसानों को शुष्क क्षेत्रों की जोखिमभरी किसानी से सुरक्षित करना है तो मौसम की बदलती हुई चाल के अनुरूप तकनीकें विकसित करने के लिए अनुसंधानों की नई दिशाएं गढ़नी होंगी, तभी देश के खाद्य उत्पादन में स्थायित्व लाया जा सकेगा। अनुसंधान की ये नई दिशाएं होंगी- भूमि, जलवायु और जल के संसाधनों का पूरी तरह सर्वेक्षण करके बारानी फसलों और अन्य वैकल्पिक भूमि उपयोग प्रणालियों के बीच सही तालमेल बिठाकर भूमि का अनुकूलतम सदुपयोग करना, कृषि जलवायु संबंधी सलाहकार सेवाओं को बेहतर रूप देने के लिए फसल-मौसम-मिट्टी की गहरी समझ पैदा करना, वर्षा जल की बचत और समेकित पोषक प्रबंध। इस सबके लिए सतत प्रयास की आवश्यकता होगी।

जहां तक उर्वरकों का प्रश्न है, उनके उचित उपयोग की तकनीकें विकसित कर ली गई हैं। कीटनाशी दवाओं के इस्तेमाल के लिए बहुत जरूरी होने पर ही उनका उपयोग करने की सलाह दी जाती है क्योंकि समेकित कीट प्रबंध की तकनीक खासतौर से धान, कपास और तिलहनी फसलों की खेती में संबंधित संस्थाओं और विश्वविद्यालयों की सहायता से कीटों की निगरानी, कीट नियंत्रण की जैविक विधियों को प्रोत्साहन तथा विस्तार कार्यकर्ताओं और किसानों के लिए प्रदर्शन और प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं। इनके पीछे मूल विचार यह है कि पौध रक्षा की ऐसी विधियां अपनाई जाएं जो पर्यावरण मित्र हो, लागत के हिसाब से कारगर हो और अन्य फसल प्रणालियों के साथ निभाते हुए फसलों की उच्चउत्पादकता बनाए रखें।

दलहनी फसलों का महत्व


दलहनी फसलों का भारतीय कृषि में विशेष योगदान व महत्व सर्वविदित है। ये शाकाहारी भोजन में प्रोटीन का मुख्य व सस्ता स्रोत है। इनमें गेहूं, मक्का, जौ, चावल व बाजरे जैसे अनाजों की तुलना में 2-3 गुना प्रोटीन होता है। हमारे शाकाहारी भोजन में प्रोटीन की अधिकांश मात्रा दालों द्वारा ही पूरी होती है। जनसंख्या की अधिक वृद्धि व दालों के कम उत्पादन के कारण प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दालों की उपलब्धता में निरंतर कमी आई है। दालों का उत्पादन बढ़ाने में मुख्य बाधाएं-प्रतिकूल मौसम, अनुसंधान अन्तराल, असामान्य भूमि, जैविक कारण, उन्नत किस्मों व प्रमाणित बीज का अभाव, सस्य क्रियाएं (असामयिक बीजाई, कम बीज मात्रा, अपर्याप्त सिंचाई, निराई-गुड़ाई, खाद का अपर्याप्त प्रयोग), राइजोबियम टीका न लगाना, पौध संरक्षण की कमी, प्रसार व प्रशिक्षण अभाव और सरकार की समुचित नीतियों का अभाव आदि रहा है। इन सब बाधाओं के उपरान्त ही सूझ-बूझ द्वारा दलहन का उत्पादन बढ़ाने की सम्भावनाएं हैं।

ये फसलें वायुमंडल की नाइट्रोजन को भूमि में स्थापित करके उर्वराशक्ति बढ़ाती हैं। इन फसलों की गहरी जड़ें भूमि की संरचना में सुधार करती हैं। यद्यपि विगत 2-3 दशकों में रासायनिक खादों का प्रचलन और प्रयोग तीव्र गति से बढ़ा है, तथापि अनुमान किया जाता है कि आज भी भूमि में लेग्यूमिनेसी कुल के पौधों द्वारा इस पृथ्वी पर इनसे कहीं अधिक नाइट्रोजन प्रदान की जाती है। लोबिया, मोठ व मूंग जैसी दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में भी प्रयोग की जाती हैं। सूखा सहन करने की क्षमता के कारण इन फसलों को बारानी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

प्रमाणित बीज का औसत उपज से सीधा सम्बन्ध है, क्योंकि खाद, पानी व फसलोत्पादन में अपनाए गए अन्य सभी प्रबंध इसपर आधारित हैं। अतः किस्मों का प्रमाणित बीज उपलब्ध कराना नितांत आवश्यक है। स्पष्टतः बीज उत्पादन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। दलहनी फसलों को उगाने वाली फसलों की अपेक्षा अधिक जोखिम रहता है। अतः किसानों में इन फसलों की काश्त को बढ़ावा देने के लिए दलहन बीमा योजना आरम्भ करनी चाहिए और इस योजना को किसानों में खूब लोकप्रिय बनाया जाए। ऐसा करने से किसान दलहनों को उगाने में तत्पर होंगे। सरकार को दलहनी फसलों के लिए समुचित विपणन सेवाएं किसानों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके अलावा किसान को उचित मूल्य दिलाने सम्बन्धी समुचित प्रबंध करने चाहिए। ऐसा करने से किसानों में दलहनों को उगाने को लेकर जागरुकता आएगी।

पीत क्रांति: तिलहन विकास


विगत दस वर्षों में मुख्यतः वर्षा पर आधारित तिलहनी फसलों के उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि, आयात में भरपूर कमी एवं निर्यात में आठ गुना वृद्धि का सिंहावलोकन देश में पीत क्रांति की उचित संज्ञा है। इस क्रांति को बनाए रखने के लिए विशेष रूप से रोग एवं कीटरोधी उन्नत किस्मों का विकास करना होगा। लवणता वाली भूमियों के लिए एवं शुष्क खेती के अनुरूप विभिन्न तिलहनी फसलों की नई किस्मों का विकास करना होगा। बीज में तेल की मात्रा बढ़ाने की प्रबल संभावना को देखते हुए तेल की मात्रा पर आधारित एक मूल्य नीति तय करनी होगी, जिससे इस दिशा में चलने वाले प्रयास सफल हो सकें।

समन्वित पौध संरक्षण एवं समन्वित पौध पोषण की नीति तिलहनों की वृद्धि दर बनाए रखने के लिए आवश्यक होगी। उन्नत किस्मों के बीज अधिक से अधिक मात्रा में बनाने होंगे एवं किसानों को समय से उपलब्ध कराना होगा। जिन प्रजातियों में संकर किस्में उपलब्ध हैं उनके बीज उत्पादन पर विशेष ध्यान देना होगा । बंजर जमीन में महुआ, नीम और इसी प्रकार के अनेक पौधों को लगाना होगा, जिससे अधिक से अधिक उत्पादन किया जा सके। विभिन्न विभागों में समन्वय के बिना जंगली प्रजातियों के बीजों का तेल के लिए आवश्यक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसके लिए आवश्यक होगा कि केन्द्र एवं प्रदेश के विभिन्न विभागों के बीच समन्वय एवं एकरुपता स्थापित की जा सके। समन्वित संपूर्ण विकास प्रणाली में तिलहनी फसलों के साथ उपयुक्त उद्योग-धंधों को लाना होगा।

यह आवश्यक है क्योंकि तिलहनी फसलों के तेल, प्रोटीनयुक्त खली और बहुत-सी फसलों का रेशा और अनेक अन्य ऐसी चीजें हैं जिनके समन्वित एवं सम्मिलित विकास के बिना तिलहनों का समुचित विकास संभव नहीं होगा। विभिन्न फसलों के लिए उपयुक्त उन्नत तकनीक जो विभिन्न प्रदेशों, क्षेत्रों एवं परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है उनके प्रचार एवं प्रसार पर विशेष ध्यान देना होगा। उत्पादन, संसाधन, भण्डारण, विपणन, वाणिज्य एवं उपभोग के मध्य एक समन्वित दीर्घकालिक नीति एवं उस नीति के अनुरूप उचित योजना एवं योजना के कार्यान्वयन का विकास उपयुक्त होगा। बढ़ते विश्व बाजार को ध्यान में रखते हुए आयात एवं निर्यात की विभिन्न विधाओं को स्पष्ट रूप से तय करना होगा। पीत क्रांति को सदैव बनाए रखने के लिए एवं नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने के लिए अनुसंधान का एक समयबद्ध कार्यक्रम चलाना होगा।

बागवानी फसलें


बागवानी फसलें अधिक श्रम चाहने वाली किंतु साथ ही साथ अधिक लाभ देने वाली और पर्यावरण हितैषी फसलें हैं। बागवानी निर्यात धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी पर है। कटाई-तुड़ाई के बाद उत्पाद संभालने की उचित व्यवस्था नहीं है। कार्गो स्थान की सुविधाएं बढ़ानी चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय विमान पत्तनों पर भंडारण की क्षमता बढ़ानी होगी। कटाई से लेकर बाजार तक पहुंचाने की एक विश्व-स्तरीय प्रशीतित व्यवस्था की विशेष आवश्यकता है। अनुसंधान क्षेत्र में प्रजातियों की प्रायः कम पैदावार एक मुख्य कठिनाई है। वैसे अनुसंधान प्रयासों ने अंगूर, टमाटर, आलू, शकरकंदी में अच्छे परिणाम दिए हैं। ताजा और परिरक्षण हेतु प्रायः भिन्न-भिन्न प्रजातियां ही उपयोगी होती हैं। खाद्य परिरक्षण तथा ’ग्राीन हाउस उत्पादन’ जैसे क्षेत्रों में प्रोत्साहन की अधिक आवश्यकता है। इससे रोजगार के अवसर बढ़ने के साथ-साथ आर्थिक विश्वसनीयता और स्थिरता में भी योगदान बढ़ेगा। ’ग्रीन हाउस’ से सघन उत्पादन करके शेष कृषि भूमि में अन्य फसलें उगा सकते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश से देश में तकनीकी सुधार हुआ है।

सब्जी विकास


.मनुष्य के आहार में सब्जियों का महत्वपूर्ण स्थान है। संतुलित आहार एवं स्वास्थ्य के अनुरक्षण के लिए सब्जियां आवश्यक होती हैं। इनमें विटामिन, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन तथा अन्य खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं जोकि शरीर के लिए आवश्यक हैं। बीमारियों के प्रति निरोधक क्षमता को देखते हुए विश्व में शाकाहारी व्यक्तियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है तथा सब्जियों की मांग बढ़ती जा रही है। भारतवर्ष में 160 नई किस्मों की राष्ट्रीय स्तर पर खेती के लिए संस्तुति की गई है। ये किस्में अधिक पैदावार देने वाली, अच्छे गुणों वाली तथा कुछ बीमारियों से रहित हैं। इसके अतिरिक्त सब्जियों में संकर किस्मों का एक महत्वपूर्ण स्थान है जिनकी पैदावार अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक होती है। ऐसी किस्में टमाटर, बैंगन, मिर्च, शिमला मिर्च, भिण्डी, खीरा, कुम्हड़ा, खरबूजा, तरबूज, पत्तागोभी, मूली, गाजर, प्याज इत्यादि में निकाली गई हैं। इसके अतिरिक्त सब्जियों के उगाने की नई-नई तकनीक विकसित की गई हैं जिन्हें अपनाकर किसान सब्जी उत्पादन बढ़ाकर अधिक आमदनी कर सकते हैं।

(लेखकद्वय क्रमशः पूर्व निदेशक, इंटरनेशनल प्लांट न्यूट्रीशन इंस्टीट्यूट, इंडिया प्रोग्राम 5/1074 विरामखण्ड, गोमती नगर, लखनऊ एवं विषय वस्तु विशेषज्ञ (मृदा), सरदार बल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केन्द्र, हस्तिनापुर, मेरठ से हैं।)

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