कुछ ऐसी तान सुनाने वाला कवि

साफ धुला खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने, सिर पर तिरछी टोपी दिए, कभी किसी समाज में पहुंच जाते तो बड़े से बड़ा आदमी छोटा लगने लगता था। उनके आसपास हंसी और उल्लास की तो जैसे बरसात ही होती रहती थी। आत्मीयता ऐसी कि पहली बार मिलकर ही मुझे लगा कि ‘नवीन’ जी ने मुझे नए आदमी की तरह ग्रहण नहीं किया है। उनमें निरर्थक व्यवहार-कुशलता और बनावटी विनम्रता नहीं थी। सबसे स्वाभाविक, आत्मीय भाव से मिलते थे। उनके लिए कोई भी अविश्वसनीय नहीं था।

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का नाम मन में आते ही आंखों के सामने एक तराशे हुए आदमी का चित्र खिंच जाता है। छह फुट लंबा, व्यायाम से सधाया-तपाया बलिष्ठ शरीर, विशाल वक्षस्थल, वृषभस्कंध, दीर्घबाहु, कुछ लाली लिए हुए चिट्ठा रंग, उन्नत भाल, नुकीली नासिका, बड़ी और पैनी आंखें, खिंचे हुए होंठ और तेजयुक्त प्रभावशाली मुखमंडल! उनको देखकर लगता था जैसे किसी मूर्तिकार ने अपनी सारी कल्पना समेटकर एक मूर्ति गढ़ना तय किया हो। साहित्य-जगत में ही नहीं, कहीं भी उनके समान प्रियदर्शन व्यक्ति मिलना सरल नहीं था। सन् 1933 की घटना है। प्रयाग में द्विवेदी मेला मनाया जा रहा था। उसमें कवि-दरबार का भी आयोजन किया गया। पंत, निराला, तथा ‘नवीन’ जी की भूमिकाओं के लिए व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। पंत और ‘निराला’ के लिए तो वांछित व्यक्ति मिल गए लेकिन ‘नवीन’ के लिए कोई उपयुक्त पात्र नहीं मिला। कोई शरीर से तो कोई स्वर से अयोग्य लगता। संयोजक कहते, ये नवीन बनेंगे? नवीन बनने के लिए चाहिए वृषभस्कंध, केहिर-ध्वनि, बलनिधि, बाहु विशाल। अंत में निराश होकर ‘नवीन’ जी की भूमिका छोड़ देनी पड़ी।

साफ धुला खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने, सिर पर तिरछी टोपी दिए, कभी किसी समाज में पहुंच जाते तो बड़े से बड़ा आदमी छोटा लगने लगता था। उनके आसपास हंसी और उल्लास की तो जैसे बरसात ही होती रहती थी। आत्मीयता ऐसी कि पहली बार मिलकर ही मुझे लगा कि ‘नवीन’ जी ने मुझे नए आदमी की तरह ग्रहण नहीं किया है। उनमें निरर्थक व्यवहार-कुशलता और बनावटी विनम्रता नहीं थी। सबसे स्वाभाविक, आत्मीय भाव से मिलते थे। उनके लिए कोई भी अविश्वसनीय नहीं था। कहते हैं, कभी गुस्से में आ जाते तो सारा शरीर कांपने लगता, चेहरा तमतमा जाता, आंखें जल उठतीं; किंतु उनका यह रौद्र शंकरी रूप विरल था। मुझे उसे देखने का भाग्य नहीं मिला।

जीवन उनका संघर्षों की एक कहानी है। शायद जिस दिन से आए, अपने चले जाने तक वे भीतर-बाहर जूझते ही रहे। 8 दिसंबर, सन् 1897 के मध्य भारत के शाजापुर परगने के मियाना गांव में एक अत्यंत दरिद्र भगवद्-भक्त वैष्णव-ब्राह्मण जमुनादास के घर पैदा हुए। ‘नवीन’ जी ने लिखा है, “मेरी माता कहा करती हैं कि गायों के बांधने के बाड़े में अपने राम ने जन्म लिया था। मेरे पिता बहुत गरीब थे। अतः जन्म के समय सिवा थाली बजने के और कुछ धूमधाम नहीं हुई।”

बचपन आर्थिक अभाव एवं विपन्नता में बीता। 11 वर्ष की अवस्था तक पढ़ाई का कोई ठीक प्रबंध न हो सका। पिता उन दिनों नाथद्वारा में थे। मां शाजापुर में अनाज पीसकर कुछ पैसे कमा लेती थीं। “पैरों में जूते पहनना एक आरामतलबी समझी जाती थी, इसलिए बंदा नंगे पैरों रहता था। ... पैबंद लगे कपड़े पहनना और साल में सिर्फ दो धोतियों पर गुजर करना एक मामूली और बिलकुल स्वाभाविक बात थी।” किताबें दूसरों से मांगकर पढ़नी पड़ती थीं। उन्होंने शाजापुर से मिडिल स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।

और चूंकि आगे पढ़ना चाहते थे, वे उज्जैन चले गए। वहां हाई स्कूल की परीक्षा पास की। शाजापुर में उन्होंने आर्य समाज सभा का समूचा पुस्तकालय चाट डाला था, अवश्य ही एक नए सामाजिक आदर्श ने उनके किशोर मन को व्याकुल किया होगा। यहां उज्जैन में तत्कालीन राजनीतिक और साहित्यिक हलचलों का संस्पर्श उन्हें हुआ। शालेय पढ़ाई-लिखाई को ‘नवीन’ जी ने कभी कुछ गिना नहीं। पढ़ने में वे विशेष योग्य नहीं थे। लेकिन साहित्य, समाज और राजनीति के खुले आसमान के नीचे आकर खड़े हो पाने का कोई अवसर उन्होंने कभी हाथ से नहीं जाने दिया।

एक दिन उन्होंने समाचार पत्र में लोकमान्य तिलक का वह भाषण पढ़ा जिसमें देश की जनता को दिसंबर 1916 की लखनऊ कांग्रेस में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया गया था। तिलक बालकृष्ण के हृदय-सम्राट थे। उन्होंने लखनऊ जाना तय कर लिया। जैसे-तैसे उन्होंने कुछ पैसे जुटा लिए और नंगे पैर कंधे पर कंबल, हाथ में लाठी लेकर लखनऊ चल दिए। लखनऊ का नाम-भर सुना था; न किसी से जान-पहचान थी; न ऐसे यात्रा-पटु ही थे कि अनजानी जगह को कुछ न गिनते; गाड़ी में ही एक महाराष्ट्रीय सज्जन से उनका परिचय हो गया और उन्हीं के साथ वे एक जगह ठहर गए। सुबह वहीं उनका माखनलाल चतुर्वेदी से भी परिचय हुआ। यह परिचय शीघ्र ही घनिष्ठता में परिणत हो गया। श्री माखनलाल चतुर्वेदी के ही माध्यम से उनका श्री गणेश शंकर विद्यार्थी तथा मैथिलीशरण जी गुप्त से भी परिचय हुआ। निहायत दुबले-पतले, चश्मा लगाए तेजस्वी नवयुवक को देखकर बालकृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उनके काल्पनिक चित्र से गणेशजी का यह वास्तविक चित्र बिलकुल भी मेल नहीं रखता था।

‘नवीन’ जी कांग्रेस देखने आए थे। किन्तु बड़ा प्रयत्न करने पर भी उन्हें पहले दिन कांग्रेस देखने के लिए टिकट प्राप्त न हो सका। तो भी न उन्होंने दुख माना और न निराश हुए। बाहर द्वार पर खड़े-खड़े अधिवेशन की जितनी झलकियां ले सकते थे, लेते रहे। पहले दिन का अधिवेशन समाप्त हुआ और लोकमान्य तिलक बाहर निकले। ‘नवीन’ जी भीड़ चीरते हुए, आंखों में आंसू भरे लोकमान्य के निकट पहुंच गए। उनके चरण स्पर्श किए और समझा कि लखनऊ आना सफल हो गया। विद्यार्थीजी को इस घटना का पता चला तो उन्होंने नवीन के लिए एक टिकट का प्रबंध कर दिया।

‘नवीन’ जी की लखनऊ यात्रा अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। उनके वास्तविक जीवन का आरंभ ही यहीं से समझना चाहिए। गणेशशंकर विद्यार्थी का संपर्क होना ‘नवीन’ जी के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है। यही वह धुरी है, बाद में जिस पर ‘नवीन’ का व्यक्तिगत, साहित्यिक और राजनीतिक जीवन घूमता रहा।

इस काल में ‘नवीन’ जी ने राजनीति, इतिहास, दर्शन, धर्म तथा संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी साहित्य का खास अध्ययन किया। थोड़े ही समय में कानपुर के साहित्यिक और राजनीतिक क्षेत्रा में ‘नवीन’ जी ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। कानपुर के मजदूर आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भाग लिया। एक कवि के रूप में भी वे जल्दी पर्याप्त प्रसिद्ध हो गए। उन दिनों उनकी ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ’ कविता जनता का कंठहार बनी हुई थी।लखनऊ से उज्जैन वापस आकर बालकृष्ण ने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे पढ़ने की इच्छा तो बहुत थी किंतु कोई उपाय दिखाई नहीं देता था। सोचते-सोचते बालकृष्ण को लगा, क्यों न कानपुर विद्यार्थीजी के पास चला जाऊं। वे जैसा कहेंगे वैसा करूंगा। उन्होंने कानपुर जाने की अपनी यह इच्छा जब मां पर प्रकट की तो मां ने कहा, “बेटा, हम लोग ऐसे कहां हैं कि तुझे कानपुर भेज कर पढ़ा सकें। तूने काफी पढ़ लिया है, यहीं भगवान की झारी भर। प्रभु जो कुछ रूखा-सूखा देंगे, उसमें संतोष मानकर हम उनका ही भजन करेंगे बेटा।” बालकृष्ण का भविष्यद्रष्टा, स्वप्नशील मन मां की इस विवेचना से निराश नहीं हुआ। उन्होंने कहा, “भगवान की झारी तू भर; और मुझे भारत माता की झारी भरने के लिए मुक्त कर दे।”

गणेशजी ने बालकृष्ण को स्थानीय क्राइस्ट चर्च कॉलेज में प्रवेश दिला दिया और बीस रुपए मासिक की एक ट्यूशन का प्रबंध भी कर दिया। ‘नवीन’ जी पढ़ते-पढ़ाते और गणेशजी के प्रसिद्ध पत्र ‘प्रताप’ में काम भी करते। इस प्रकार गणेशजी के संरक्षण में ‘नवीन’ जी का राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन आरंभ हो गया।

इस काल में ‘नवीन’ जी ने राजनीति, इतिहास, दर्शन, धर्म तथा संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी साहित्य का खास अध्ययन किया। थोड़े ही समय में कानपुर के साहित्यिक और राजनीतिक क्षेत्रा में ‘नवीन’ जी ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। कानपुर के मजदूर आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भाग लिया। एक कवि के रूप में भी वे जल्दी पर्याप्त प्रसिद्ध हो गए। उन दिनों उनकी ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ’ कविता जनता का कंठहार बनी हुई थी। लिखने-लिखाने का सिलसिला तेजी से चल रहा था, मगर ‘गांधी बाबा की आंधी चल पड़ी’ और संयुक्त प्रदेश से सत्याग्रहियों का जो पहला जत्था तय हुआ उसमें बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का नाम मौजूद था।

क्राइस्ट चर्च कॉलेज छोड़ दिया। सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने पर उन्हें सन् 1921 में पहली बार डेढ़ वर्ष की सजा दी गई। उन्हें बदल-बदलकर कई जेलों में भेजा गया, इस जेल-यात्रा के परिणामस्वरूप ‘नवीन’ जी पं. जवाहरलाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन आदि देश के शीर्षरूप नेताओं के संपर्क में आए।

‘नवीन’ जी को छह बार जेल यात्रा करनी पड़ी। लगभग नौ वर्षों का समय उन्होंने जेलखानों में बिताया। जेलखाना राजनैतिक कैदी का विश्वविद्यालय ही समझिए। बेशक लखनऊ जेल ऐसा ही सिद्ध हुआ। यहां पंडित जवाहरलाल नेहरू से उन्होंने अंग्रेजी और भूमिति पढ़ी। और ‘नवीन’ जी ने जवाहरलाल को कवायद सिखाई।

‘उर्मिला’ महाकाव्य का प्रथम सर्ग, उनकी प्रथम जेलयात्रा के समय ही लिखा गया था। और सन् 1932 के ढाई वर्ष के कारावास-काल में इसकी समाप्ति हुई थी। उनकी रचनाओं पर दी हुई तिथियों एवं स्थानों से ज्ञात होता है कि उनकी अधिकांश कविताएं जेलखाने की चहारदीवारी में बैठकर ही लिखी गई हैं। बाहर आकर तो उन्हें राजनीतिक हलचल और ‘प्रताप’ के संपादन से ही अवकाश नहीं मिल पाता था और यह तो तय ही है कि और चाहे जो काम भाग-दौड़ में हो जाए, कविता भाग-दौड़ की चीज नहीं है। उसे तो आलस्य से भी कुछ अधिक लापरवाही कर सकने की सुविधा चाहिए।

विद्यार्थी जी की मृत्यु के बाद उनका स्मारक बनाने की दृष्टि से एक निधि संग्रह समिति भी बनी और उसकी लगभग सारी जिम्मेदारी ‘नवीन’ जी पर डाली गई। ‘हरिजन सेवक’ में स्वयं गांधीजी ने लोगों को निधि में रकम भेजने का आह्नान करते आश्वस्त भाव से कहा, “जिस संपदा का संरक्षक बालकृष्ण हो, उसके बारे में सोच-विचार क्या।”

गांधीजी के प्रति उनमें अपार श्रद्धा थी। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर के शब्दों में ‘गांधीजी के वे मजनूं थे।’ गांधीजी के संकेत-मात्रा पर वे अपना सब कुछ बलिदान करने को तैयार हो जाते थे। जब सांप्रदायिक निर्णय के विरुद्ध गांधीजी ने आमरण अनशन किया, तब ‘नवीन’ जी बड़े चिंतित हुए थे। उनके लिए कोरी चिंता का कोई अर्थ नहीं था। जितने दिनों तक गांधीजी का अनशन चला, उन्होंने भी उतने दिनों तक जल के अतिरिक्त कुछ ग्रहण नहीं किया।

स्वातंत्र्य-संग्राम में उनका योगदान बहुमुखी तथा अद्वितीय था। उनमें क्रांतिकारियों के समान आत्मत्याग और सच्चे योद्धा के समान शौर्य था। देश के लिए उन्होंने कुछ भी त्यागने में मोह नहीं किया, अपना घर-बार, पढ़ाई-लिखाई सब कुछ। कांग्रेस संगठन और देश की जनता में इसीलिए ‘नवीन’ जी जैसा आदर और स्नेह पाते थे, वैसा पाने का भाग्य विरले जनसेवक का ही होता है। वे कई बार उत्तर प्रदेश की कांग्रेस समिति के अध्यक्ष और महामंत्री चुने गए थे।

सन् 1947 में देश के स्वतंत्र हो जाने पर वे संविधान परिषद के सदस्य मनोनीत हुए। 1951 के प्रथम जनचुनावों में कानपुर से लोकसभा के लिए निर्वाचित होकर आए। सन् 1955 में संसद द्वारा नियोजित भाषा आयोग के वे वरिष्ठ सदस्य थे। सन् 57 और 60 में राज्यसभा के लिए उत्तर प्रदेश से निर्वाचित होकर आए।

लेकिन आजादी के बाद उनका राजनैतिक जीवन निष्क्रिय होता चला गया। स्वतंत्र हो जाने पर भी पददलित जनता तिलमिला ही रही थी।

विधान बदल गया था लेकिन उन्हें प्रशासन बदला हुआ नहीं लगता था। उन्होंने आजादी के बाद अपनी सेवाओं की हुण्डी भुनाने का प्रयत्न नहीं किया इसलिए उन्हें एक असफल राजनीतिज्ञ की भी संज्ञा दी गई। लेकिन वे राजनीतिज्ञ थे ही नहीं। वे एक सहृदय, भावुक रस-डूबे फकीर थे, जिन्होंने अपनी तल्लीनता में जो सामने आया उसे निभाया और उसे अपना सर्वस्व दिया- चाहे वह राजनीति थी, चाहे साहित्य या चाहे कोई व्यक्ति।

उनकी कविता-पाठ का ठाठ तो निराला ही था। वाणी में अजीब आकर्षण था जो किसी को भी अप्रभावित नहीं छोड़ता था। जब वे भाषण देते तो जैसे अंगारे बरसते। जब वे पालथी मार, रीढ़ सीधी कर, सीना खींचकर, ओजस्वी स्वर में कविता-पाठ करते तो श्रोतागण भी उनके साथ झूम उठते।

आंदोलन के युग में उनकी पत्रकारिता तलवार-सी चलती थी। सरकार राष्ट्रीय पत्रों और पत्रकारों को हर प्रकार से तंग करने में लगी हुई थी; लेकिन ‘नवीन’ ने सच, और सो भी पूरे जोर के साथ, कहने में कभी आगा-पीछा नहीं किया। केवल अपने लेखों के कारण उन्हें तत्कालीन सरकार ने तीन-चार बार जेलखाने की सजा दी थी। अन्याय का दमन करने और न्याय का पक्ष लेने में वे सदा दृढ़ और आग्रही रहे।

भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का जो सम्मानित पद प्राप्त हुआ है, उसमें ‘नवीन’ जी का योगदान अविस्मरणीय है। उनके लेखे हिंदी समूची राष्ट्रीयता ही थी और इसीलिए उसके लिए उन्होंने बड़े से बड़े व्यक्तियों से टक्कर ली, बड़े से बड़े विरोध का सामना किया। संविधान परिषद के दिनों में जिन्होंने उनको काम करते देखा है वे जानते हैं कि नवीनजी के हृदय में हिंदी के प्रति कितनी आग थी। हिंदी के प्रश्न पर अनेक बार नेहरूजी से भी उनकी झड़प हो जाती थी।

‘नवीन’ जी महापुरुषों में भी महापुरुष थे। देवता कहना उनके मानव-तत्व को अपमानित करना होगा। देवता मानव के दुख-सुख, हर्ष-विषाद, गुण-अवगुण को क्या समझें। जो भी उनके संपर्क में आया, संपन्न और सार्थक हुआ।

‘नवीन’ जी फकीर बादशाह थे। जीवन-भर वे अर्थाभाव में रहे। ‘प्रताप’ परिवार में इन्हें 500 रुपया मासिक मिलता था। लेकिन इस रकम का अधिकांश असहाय परिवारों के ही काम आता था; अपनी निर्धता और अनिकेतनता पर उन्हें नाज था। संग्रह के नाम से तो उन्हें घृणा ही थी। वे कहा करते थे, “मेरा शरीर भिक्षान्न से पोषित है, अतः मुझे संग्रह करने का क्या अधिकार है।” वे देते थे लेकिन उसके बदले में धन्यवाद की भी उन्होंने अपेक्षा नहीं की क्योंकि यह वे किसी पर एहसान मानकर नहीं, अपना कर्तव्य मानकर करते थे।कोई भी व्यक्ति शीघ्र ही अपने को उनके परिवार का बना ले सकता था, इतना उदार था उनका मन, इतना विशाल था उनका आंगन। परिचय शीघ्र ही आत्मीयता में बदल जाता। मित्रता को वे व्यावहारिकता के स्तर पर न लेकर पारिवारिक स्तर पर लेते थे। उन जैसा सहायक-कृपालु-मित्र पाना वास्तव में बहुत बड़ा सौभाग्य था। मित्रों के लिए तो वे अपने प्राण तक न्योछावर करने को तैयार हो जाते थे। गुप्तजी ने लिखा है, “गणेश शंकर में जैसे अपना लेने की सहज शक्ति थी, वैसे ही बालकृष्ण में अपना हो जाने की। आत्मीयता दोनों का नैसर्गिक गुण था। एक में स्वीकरण की क्षमता थी, दूसरे में समर्पण की क्षमता।” यदि उनके साथ किसी ने कोई एहसान कर दिया तो जन्म-भर उसके कृतज्ञ रहे। जिसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई उसके चरणों की धूल बन गए और अकिंचनों को भी स्नेह लुटाकर आसमान पर चढ़ा दिया।

अपने विरोधियों के प्रति भी वे उदारता का व्यवहार करते थे। पीड़ा पहुंचाने वाले को हृदय से लगा लेने की उनमें अपार क्षमता थी। उनका द्वेष गलत सिद्धांत के प्रति हो सकता था, किसी व्यक्ति के प्रति नहीं।

यों वे जन्मजात विद्रोही थे। वे जिसे गलत समझते उसका खुलकर विरोध करना उनका धर्म था। अनुचित बात को वे किसी मूल्य पर भी सहने को तैयार नहीं हो पाते थे। कहते हैं, पहले गणतंत्रीय कांग्रेस मंत्रिमंडल में नेहरूजी ने उन्हें उपमंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया था; लेकिन उन्होंने किसी निश्चित कारण के आधार पर इसे स्वीकार नहीं किया। अपने विद्रोही स्वभाव के कारण वे 1954 में 5 मास के लिए कांग्रेस से भी अलग कर दिए गए थे; बाद में स्वयं जवाहरलालजी ने इस निर्णय पर हरताल फेरी।

एक ओर सहयोग और विनम्रता तो दूसरी ओर सिद्धांत के प्रति दृढ़ता और स्वाभिमान, एक ओर दार्शनिकों की-सी गंभीरता तो दूसरी ओर बालकों की-सी सरलता, एक ओर फक्कड़पन तो दूसरी ओर शालीनता, एक ओर ललकार तो दूसरी ओर पुचकार, एक ओर गजराजों से टकराने का साहस तो दूसरी ओर चींटियों से दब जाने का चाव, एक ओर अंगारों का ताप तो दूसरी ओर सुमनों का पराग, एक ओर घनगर्जन तो दूसरी ओर फुहारों की रिमझिम, एक ओर तांडव तो दूसरी ओर लास्य, एक आंख में हलाहल तो दूसरी में अमृत- अजीब विरोधी शक्तियों का सम्मिश्रण थे ‘नवीन’ जी।

‘नवीन’ जी फकीर बादशाह थे। जीवन-भर वे अर्थाभाव में रहे। ‘प्रताप’ परिवार में इन्हें 500 रुपया मासिक मिलता था। लेकिन इस रकम का अधिकांश असहाय परिवारों के ही काम आता था; अपनी निर्धता और अनिकेतनता पर उन्हें नाज था। संग्रह के नाम से तो उन्हें घृणा ही थी। वे कहा करते थे, “मेरा शरीर भिक्षान्न से पोषित है, अतः मुझे संग्रह करने का क्या अधिकार है।” वे देते थे लेकिन उसके बदले में धन्यवाद की भी उन्होंने अपेक्षा नहीं की क्योंकि यह वे किसी पर एहसान मानकर नहीं, अपना कर्तव्य मानकर करते थे।

‘नवीन जी के अंतिम दिन बड़े कष्टमय रहे। तन का रोग और मन का क्लेश दोनों ने मिलकर अलमस्त ‘नवीन’ को निरीह बना दिया था। सन् 1955 से लेकर मृत्यु-पर्यन्त वे बीमार-से ही रहे। इन चार-पांच वर्षों में उन्हें अनेक बार अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। उनके ऊपर पक्षाघात के तीन आक्रमण हुए। पक्षाघात के अतिरिक्त हृदय-रोग, रक्तचाप और संभवतः फेफड़े का कैंसर आदि अनेक बीमारियों ने एक साथ उन पर आक्रमण किया था। बीमारियों के चंगुल में एक बार फंसकर वे छूटे नहीं। उनकी वाणी चली गई थी, एक हद तक स्मृति भी। हाथ-पैर तो, खैर, शक्तिहीन हो ही गए थे। वह भव्य मुखमंडल पीला, ज्योतिपुंज नेत्र ज्योतिहीन और सुंदर हृष्ट-पुष्ट शरीर हड्डियों का ढांचा-मात्र रह गया था। वाणी के बादशाह के इस प्रकार मूक हो जाने से बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है?

दिन पर दिन उनकी दशा चिंताजनक होती गई। मृत्यु से तीन-चार दिन पहले उनकी चेतना भी लुप्त हो गई थी। दीर्घ काल तक असहनीय वेदना और कष्ट सहने के बाद नवीनजी ने 29 अप्रैल, सन् 1960 को तीसरे पहर अंतिम सांस ली।

श्री बालकृष्ण राव ने उनके बारे में लिखा है, “यदि किसी उपन्यासकार ने ‘नवीन’ जी के इतिवृत्त की कल्पना की होती, उन जैसे नायक का चित्रांकन किया होता तो हम शायद यही कहते कि उसने अतिरंजना की है। हम कहते कि न तो कोई इतना सरल, शुद्ध, भावुक, उदार और साहसी होता है जितना उसने अपने चरितनायक को बताया है और न ऐसे नरपुंगव के अंतिम दिन इतने विषाक्त ही होते हैं। पर यह अतिरंजना किसी उपन्यासकार की नहीं थी- न यह अतिरंजना ही थी।”

‘नवीन’ जी को आदमी जानता बाद को था, पहले प्यार करता था क्योंकि वह खुद आदमी को जानते बाद में थे, पहले प्यार करते थे। बड़ा कठिन है जिंदगी में इस रीत को निबाह सकना।

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