क्या जी. डी. को मर जाने दिया जाए

22 Feb 2013
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swami gyanswaroop sanand
swami gyanswaroop sanand
सबसे बड़ा ताज्जुब तो इस बात का है कि उस गंगा सेवा अभियानम् ने भी इस दिशा में कोई सकारात्मक प्रयास या प्रतिक्रिया करना तो दूर, किसी को इसकी जानकारी देना तक मुनासिब नहीं समझा, जिसने 13 जनवरी को पांच गंगा-तपस्वियों द्वारा गंगासागर में लिए गंगा तपस्या संकल्प से लेकर 23 मार्च तक स्वामी सानंद के अनशन स्थगित होने तक वाराणसी, दिल्ली से लेकर हरिद्वार तक हिला रखा था। इस मामलें में औरों की तुलना में गंगा सेवा अभियानम् से अधिक अपेक्षा इसलिए भी जायज़ है कि स्वामी सानंद कोई गैर नहीं, बल्कि गंगा सेवा अभियानम् के भारत प्रमुख और शंकराचार्य के शिष्य प्रतिनिधि दंडीस्वामी अविमुक्तेश्वरानंद उसके सार्वभौम प्रमुख हैं। अब सरकारें गंगा को उसकी अविरलता-निर्मलता लौटाने के लिए कुछ करें, न करें... सरकार को चौमासे बाद महासंग्राम की धमकी देने वाले चाहे चुप्पी मारें या महज बयानबाज़ी कर कर्तव्यों की इतिश्री कर लें... गंगापुत्र ने एक बार पुनः मृत्यु वरण करने का फैसला कर लिया है। स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (प्रो. जी. डी. अग्रवाल) 26 जनवरी से अनशन पर है; गंगा तट और गंगा आंदोलनकारियों की जद से दूर नर्मदा के उद्गम पर। बैठने को वह इलाहाबाद के संगम तट पर बैठ सकते थे; प्रचार पा सकते थे; चाहते तो अपने अनशन की ओर करोड़ों कुंभार्थियों का ध्यान खींचकर इसे मुद्दा बना सकते थे; दुनिया को दिखा सकते थे कि मैने जो कहा, किया.... लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनका अनशन दिखावटी नहीं है। किसे दिखायें? जिन्हें दिखाते, वे खुद दिखावटी हो गये हैं। कुंभ में गंगा के नाम पर हुए ऐसे दिखावटी आयोजन इसका प्रमाण हैं। करोड़ों कुंभार्थियों की मेजबानी करने वाली गंगा का जीवन बचाने को इस बार भी नहीं जुटा कुंभ। किसी ने नहीं कहा कि गंगा की ख़ातिर वह कुंभ का बहिष्कार कर रहा है; उन्होंने ने भी नहीं, जिन्होंने चतुष्पद के लिए कुंभ छोड़ा। संभवतः इसीलिए स्वामी सानंद दिखावट से दूर, बिना किसी को कष्ट पहुंचाये खुद को कष्ट का फैसला करने पर विवश हुए। ‘सत्याग्रह’ की असल परिभाषा यही है। यह गांधी मार्ग भी है और कष्टकारक तप का पुरातन भारतीय मार्ग भी। कहने वाले इसे बेवकूफी कह सकते हैं, लेकिन यह एक मां के लिए एक पुत्र का बलिदानी कदम है। भविष्य इसे सलाम करेगा।

यह सही है कि स्वामी सानंद का यह कोई पहला अनशन नहीं है। इससे पूर्व भी वह कई बार मृत्यु के करीब जाकर लौट चुके हैं। पिछले वर्ष 2012 में ही उन्होंने 14 जनवरी से 23 मार्च तक यानी तीन महीने से अधिक लंबा अनशन किया था। अन्य प्रयासों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन उत्तरकाशी से ऊपर तीन बांध परियोजनाओं को रद्द कराने का असल श्रेय मां गंगा के प्रति स्वामी सानंद की इसी प्रतिबद्धता को जाता है। गोमुख से धरासूं तक 135 किमी तक के भागीरथी तट को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित कराने का श्रेय भी स्वामी सानंद के अनशन को ही जाता है। स्वामी सानंद के अनशन की महत्ता और उनकी प्रतिबद्धता को समझते हुए ही जब-जब उन्होंने अनशन किया, एक बड़े गंगा समाज और स्वयं सरकार ने आगे बढ़कर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया व प्रयास दिखाये।

अनशन पर चुप्पी स्तब्धकारक !!


यह पहली बार है कि जब स्वामी सानंद के अनशन को एक महीना पूरा होने को है; उनकी सेहत बिगड़ने लगी है... बावजूद इसके कहीं..कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई नहीं दे रही; न राज की ओर से, न समाज की ओर से और न गंगा संरक्षण के नाम पर नित गठित हो रहे नये संगठनों की ओर से। उनकी तरफ से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं है, जिन्हें गंगा आंदोलनों का झंडाबरदार समझा जाता है - सर्वश्री शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, गोविंदाचार्य, उमा भारती, स्वामी रामदेव, आचार्य जितेन्द्र और स्वामी चिन्मयानंद से लेकर राजेन्द्र सिंह तक। गंगा प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्य, आईआईटीयन समूह, माटू संगठन, गंगा समग्र... किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उनसे मिलने इनमें से कोई अमरकंटक नहीं पहुंचा। खबरों को सूंघने के लिए मशहूर मीडिया की नाक भी वहां नहीं पहुंची। क्या यह ताज्जुब की बात नहीं?

सबसे बड़ा ताज्जुब तो इस बात का है कि उस गंगा सेवा अभियानम् ने भी इस दिशा में कोई सकारात्मक प्रयास या प्रतिक्रिया करना तो दूर, किसी को इसकी जानकारी देना तक मुनासिब नहीं समझा, जिसने 13 जनवरी को पांच गंगा-तपस्वियों द्वारा गंगासागर में लिए गंगा तपस्या संकल्प से लेकर 23 मार्च तक स्वामी सानंद के अनशन स्थगित होने तक वाराणसी, दिल्ली से लेकर हरिद्वार तक हिला रखा था। यह पहेली कम से कम मेरे लिए तो अबूझ ही है कि गंगा सेवा अभियानम् फेसबुक पर अन्य अनशनकारियों की तो चर्चा कर रहा है, लेकिन स्वामी सानंद के इस अनशन की सूचना तक नहीं है। इस मामलें में औरों की तुलना में गंगा सेवा अभियानम् से अधिक अपेक्षा इसलिए भी जायज़ है कि स्वामी सानंद कोई गैर नहीं, बल्कि गंगा सेवा अभियानम् के भारत प्रमुख हैं और शंकराचार्य के शिष्य प्रतिनिधि दंडीस्वामी अविमुक्तेश्वरानंद उसके सार्वभौम प्रमुख। संभवतः इसीलिए मातृ सदन, हरिद्वार के स्वामी शिवानंद सरस्वती समेत कई अन्य ने इस पर पहल के लिए सबसे पहले गंगा सेवा अभियानम के शीर्ष से संपर्क किया। लेकिन वे सब निराश हुए। यदि यह सच है, तो निराश मैं भी हूं।

स्वामी निगमानंद की मौत से नहीं सीखा सबक


बहुत संभव है कि यह अनशन स्वामी सानंद का निजी फैसला हो; हो सकता है कि स्वामी सानंद के इस अनशन से गंगा सेवा अभियानम् का शीर्ष सहमत न हो या फिर गंगा सेवा अभियानम् से स्वामी सानंद का रिश्ता न रहा हो; बावजूद इसके क्या गंगा की चिंता करने वालो का दायित्व यह नहीं है कि वे गंगापुत्र की चिंता करें? क्या गंगा के लिए प्राण-प्रण से लगे कार्यकर्ताओं की चिंता किए बगैर गंगा संरक्षण के आंदोलनों को एक और मज़बूती दी जा सकती है? क्या महज असहमति जताने मात्र से हमारे कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? याद करने की बात है कि हमारे इसी रवैये के कारण हम स्वामी निगमानंद के रूप में एक नौजवान गंगापुत्र को खो चुके हैं। फिर दोबारा वही गलती क्यों??? स्वामी सानंद के ताज़ा अनशन पर हम सभी की चुप्पी को लेकर कोई सवाल उठाये, तो क्या गलत होगा? गंगा के लिए संकल्पित गंगापुत्र पर चुप्पी गंगा संरक्षण के प्रति हमारी निष्ठा पर ही सवालिया निशान है।

खैर! जानकारी यह है कि स्वामी सानंद के अनशन की शुरुआत हुई मध्य प्रदेश के जिला-शहडोल से और फिर पहुंचे नर्मदा उद्गम पर अमरकंटक। ठिकाना बने क्रमशः सहभागी संस्थान और पुरी आश्रम (माई का बाग)। 22 फरवरी को लेख लिखे जाने तक प्राप्त ताज़ा जानकारी के अनुसार स्वामी सानंद की सेहत बिगड़ने लगी है। शरीर पर सूजन है। बावजूद इसके स्वामी सानंद एक बैठक में शामिल होने के लिए मिले गुरु आदेश की पालना के लिए विद्यामठ, वाराणसी पहुंच चुके हैं।

अनशन के पीछे क्या है - 23 मार्च या 18 जून?


अनशन के पीछे है स्वामी सानंद की खिन्नता। स्वामी सानंद खिन्न हैं कि गत् वर्ष 23 मार्च को जिन लिखित और मौखिक वायदों की बिना पर उनका अनशन स्थगित कराया गया, सरकार ने वे पूरे नहीं किए। वह इस बात को लेकर भी खिन्न हैं कि गत् 18 जून को जंतर-मंतर पर जुटे जिस संत और गंगा समाज ने सरकार को चार महीने का अल्टीमेटम देकर गंगा मुक्ति महासंग्राम की घोषणा की थी; चार महीने बीत जाने के बावजूद उन्होंने कुछ नहीं किया। उल्लेखनीय है कि चौमासे के बाद 25 नवंबर, 2012 की तारीख से गंगा मुक्ति महासंग्राम छेड़ने का ऐलान हुआ था। ऐलान के वक्त देश के नामी गिरामी संतों व गंगा कार्यकर्ताओं ने ताल ठोकर सरकार को चुनौती दी थी। महासंग्राम के राष्ट्रीय संयोजक कल्किपीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णम् ने कहा था कि चौमासे के दौरान वे महासंग्राम की तैयारी के लिए देशभर में यात्राएं करेंगे। दुर्योग से ठोकी गई ताल और कही गई बातें कोरी ही साबित हुईं।

इससे पूर्व 23 मार्च, 2012 को जब अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली जवाहरलाल नेहरु सभा कक्ष में शहद मिला गंगाजल पिलाकर स्वामी सानंद का अनशन स्थगित कराया गया तब स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद को संबोधित कुल जमा दो पेज का एक दस्तावेज़ और उस पर हुए चार हस्ताक्षर लाये थे वह मौका।सहमति के तीन मुख्य बिंदु थे-’’राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की अगली बैठक 17 अप्रैल का नई दिल्ली में होगी। स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप, स्वामी श्री अविमुक्तेश्वरानंद समेत गंगा सेवा अभियानम् के सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को विशिष्ट आमंत्रित सदस्य के तौर पर उक्त बैठक में बुलाया जायेगा। बैठक में गंगा सेवा अभियानम् द्वारा प्रस्तावित एजेंडे को प्राथमिकता देते हुए चर्चा की जायेगी।’’ ऐसा हुआ भी। गंगा सेवा अभियानम् प्रतिनिधि पहुंचे, स्वामी सानंद नहीं। अतः बैठक बेनतीजा रही; बावजूद इसके उसके लिए सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते। सरकार दोषी है तो इसलिए कि वह नहीं हुआ, जो अतिरिक्त और असल था।

बार-बार मिला धोखा


26 जनवरी से लगातार अनशन पर हैं स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद26 जनवरी से लगातार अनशन पर हैं स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंदउल्लेखनीय है कि सरकार की ओर से लिखित में यह भी कहा गया था कि विषय से जुड़े कुछ मुख्य मसले, जिन्हें भिन्न बैठकों में स्वामी सानंद द्वारा मौखिक तौर पर सरकारी प्रतिनिधियों को बताया गया.... संबंधित विभाग व एजेंसियाँ उन पर गंभीरता से विचार करेंगे। मांगें थी - “अविरल गंगा: निर्मल गंगा। भगीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी, नंदाकिनी, पिंडर और विष्णुगंगा -पंचप्रयाग बनाने वाली गंगा की इन पांचों मूल धाराओं पर बन रही परियोजनायें निरस्त/बंद हों। गंगा और गंगा में मिलने वाले किसी भी नदी-नाले व प्रदूषित करने वाले चमड़ा, पेपर आदि उद्योगों को इनसे 50 किमी दूर खदेड़ा जाये। नरोरा से प्रयाग तक हमेशा न्यूनतम 100 घनमीटर प्रति सेकेंड प्रवाह मिले। कुंभ व माघ मेले के अलावा स्नान आदि पर्वों पर 200 घनमीटर प्रति सेकेंड का न्यूनतम प्रवाह हो।’’ क्या यह सब हुआ? अब तक नहीं! स्वामी सानंद के ताज़ा अनशन का कारण यही है।

सरकार का प्रतिनिधित्व करने आये केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा था - गंगा इनकी भी चिंता है और सरकार की भी। गंगा जरूरी है, लेकिन गंगा के काम के लिए स्वामी ज्ञानस्वरूप जी भी जरूरी हैं। इसलिए हमारी प्राथमिकता है कि इनके प्राण बचने चाहिए।’’ क्या अब स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के प्राण अब उनकी प्राथमिकता नहीं रहे? वक्त इसका जवाब मांगेगा।

गूंगी साबित हुई हुंकार


मुझे याद है कि गंगा सेवा अभियानम् के सार्वभौम प्रमुख के तौर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने हुई सहमतिपत्र को अंतरिम आदेश मानते हुए उम्मीद जाहिर की थी कि अंतिम आदेश भी आ ही जायेगा। कहा था कि अंतिम आदेश आने तक तपस्या जारी रहेगी। यह भी कहा था कि कहा कि आंदोलनों से राष्ट्र पीछे जाता है; अशांति फैलती है; लेकिन यदि ईश्वरेच्छा यही हुई तो गंगा मुक्ति का ऐसा संग्राम छेड़ा जायेगा कि गंगा को मिले वोटों के आगे सारे कैबिनेट को मिले वोट भी कम पड़ जायेंगे।उन्होंने कहा था कि लोग कहते हैं कि हमारी फालोअरशिप नहीं है, हम दिखा देंगे कि इस देश में गंगा की फालोअरशिप कितनी है! इसी के साथ श्री अविमुक्तेश्वरानंद जी ने सहमति की मौखिक बातों को कागज़ पर लिखकर सरकारी प्रतिनिधि केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल व वी. नारायण सामी को सौंप दिया था, ताकि याददाश्त कायम रहे। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि सरकार की संवेदना बलवती हो। क्या सरकार की प्रार्थना बलवती हुई? क्या ऐसा महासंग्राम छेड़ा गया कि गंगा को मिले वोटों के आगे कैबिनेट को मिले वोट कम पड़ जायें? क्या स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरकार को गंगा की फालोअरशिप दिखा पाये। नहीं! स्वामी सानंद यह सब देख रहे थे। संभवतः इसीलिए वह गंगा और गंगा सेवा अभियानम् से दूर अनशन पर विवश हुए।

जी डी का सत्य


उस समय अनशन स्थगित कराने वाले मित्रों और सरकार को संबोधित करते हुए स्वामी सानंद को भी याद करने की जरूरत है - “लक्ष्मी का स्थान विष्णु के हृदय में स्थान है और गंगा का विष्णु के पदों में। इसीलिए लक्ष्मी हमेशा ही गंगा को अपने से नीचा समझती है। यही गंगा की समस्या है। इस समय तो लगता है कि जैसे गंगा लक्ष्मी की बंधक हो गई है।...मैं इंजीनियर हूं। समयबद्ध कार्यक्रम में यकीन रखता हूं। यूं भी मेरे पास समय कम है। प्रयाग में होने वाले कुंभ तक अविरल- निर्मल गंगा के कार्य के हो जाने में यकीन रखता हूं। ताकि करोड़ों स्नानार्थियों को मल में स्नान न करना पड़े। यदि ऐसा न हो सके, तो गंगा को मां कहना और अपने को समर्पित कहना... सफेद झूठ है; जो मैं नहीं बोलना चाहता। अतः मां के हित के लिए बेटे को समर्पित करें, न कि बेटे के हित के लिए मां।’’

आज भी यही संकल्प है स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का। उनके लिए हमारा संकल्प क्या हो? शायद यह लिखने की जरूरत नहीं। तय कीजिए!! तय कीजिए कि शेष दिनों में गंगा बचाने को जुटे यह कुंभ। सवाल सिर्फ एक गंगापुत्र के जीवन को बचाने का नहीं है; सवाल सामाजिक आंदोलन और आंदोलनकारियों के प्रति सामाजिक विश्वास को बचाने का है।... तभी बचेंगे आंदोलन, आंदोलनकारी और गंगा भी। यह कठिन दायित्व है।

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