खाद की जीती-जागती फ़ैक्टरी

11 Oct 2013
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नरेद्र मोदी की माने तो देवालय से ज्यादा शौचालय की जरूरत है। हमारा काम देवालय गए बगैर भी चल सकता है लेकिन शौचालय गए बगैर तो बिल्कुल नहीं। फिलहाल जबकि देश की पूरी आबादी के पास शौचालय की सुविधा नहीं है तभी हमारी नदियां, सभी जलस्रोत मल-जल से अटे पड़े हैं। तब जरा कल्पना करके देखिए अगर जितने ज्यादा लोग उतने ज्यादा शौचालय होंगे तो देश के जलस्रोतों का क्या हाल होगा। कुदरत ने कुछ भी बेकार नहीं बनाया। हर आदमी अपने मल-मूत्र के जरिए 4.56 किलो नाईट्रोजन(एन), 0.55 किलो फ़ॉस्फ़ोरस(पी) तथा 1.28 किलो पोटेशियम(के) प्रतिवर्ष उत्पन्न करता है जिससे एक बड़ी कृषि भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। बस जरूरत है तो इस सोनखाद के उचित प्रबंधन की न की ज्यादा से ज्यादा आधुनिक शौचालयों की मांग की। कैसे आधुनिक शौचालय ज्यादा समस्याओं और ज्यादा गंदगी को बढ़ावा दे रहे हैं? और इकोसैन शौचालय कैसे आज के समय में आधुनिक शौचालयों का विकल्प हो सकते हैं, बता रहे हैं सोपान जोशी।

इससे बड़ी एक और विडम्बना है। जब हमारे जल स्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के दूषण से अटे पड़े हैं तब हमारी खेती की ज़मीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी आपको बता देगा कृत्रिम खाद डाल-डाल कर हमारी खेतिहर ज़मीन बंजर होती जा रही है। चारे की घोर तंगी है और मवेशी रखना आम किसानों के बूते से बाहर हो गया है। नतीजतन गोबर की खाद की भी बहुत तंगी है। कुछ ही राज्य हैं जैसे उत्तराखंड जहाँ आज भी जानवर चराने के लिए जंगल बचे हैं। आपने अगर पढ़ा न हो तो सुना जरूर होगा कि भारत में शौचालय से ज़्यादा मोबाइल फ़ोन हैं। अगर भारत में हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखों लोग शहर और कस्बों में शौच जाने के लिए जगह तलाशते हैं और मल के साथ गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना भी कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं जिन्हे दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है। तो कितना अच्छा हो कि हर किसी को एक अदद शौचालय मिले। ऐसा करने के लिए कई लोगों ने भरसक कोशिश की है, जैसे गुजरात में ईश्वरभाई पटेल का बनाया सफ़ाई विद्यालय और बिंदेश्वरी पाठक के सुलभ शौचालय। लेकिन अगर हर भारतीय के पास शौचालय हो जाए तो बहुत बुरा होगा।

हमारे सारे जल स्रोत—नदियां और उनके मुहाने, छोटे-बड़े तालाब, जो पहले से ही बुरी तरह दूषित हैं—पूरी तरह तबाह हो जाएंगी। आज तो केवल एक तिहाई भारतीयों के पास ही शौचालय की सुविधा है। इनसे ही जितना मैला पानी गटर में जाता है उसे साफ़ करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है। परिणाम आप किसी भी नदी में देख सकते हैं। जितना बड़ा शहर उतने ही ज्यादा शौचालय और उतनी ही दूषित नदियां। दिल्ली में यमुना हो चाहे बनारस में गंगा। जो नदियां हमारी मान्यता में पवित्र हैं वो वास्तव में गटर बन चुकी हैं। सरकारों ने दिल्ली और बनारस जैसे शहरों में अरबों रुपए खर्च कर मैला पानी साफ़ करने के संयंत्र बनाए हैं, जो सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लांट कहलाते हैं। पर नदियां दूषित ही बनी हुई हैं। यह सब संयंत्र दिल्ली जैसे सत्ता के अड्डे में गटर का पानी बिना साफ़ किए यमुना में उढ़ेल देते हैं।

हमारी बड़ी आबादी की बड़ी समस्या है। जितने शौचालय भारत में चाहिए उतने अगर बन गए तो हमारा जल संकट घनघोर बन जाएगा। पर नदियों का दूषण केवल धनवान लोग करते हैं जिनके पास शौचालय हैं। ग़रीब लोग जो खुले में पाखाने जाते हैं उनका मल गटर तक पहुँचता ही नहीं है क्योंकि उनके पास सीवर की सुविधा नहीं है। फिर भी जब यमुना को साफ़ करने का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय ने उठाया तो झुग्गी में रहने वालो को उजाड़ा। न्यायधीशों ने अपने आप से ये सवाल नहीं किया कि जब वो फ़्लश चलाते हैं तो यमुना के साथ कितना न्याय करते हैं।

इससे बड़ी एक और विडम्बना है। जब हमारे जल स्रोत सड़ांध देते नाइट्रोजन के दूषण से अटे पड़े हैं तब हमारी खेती की ज़मीन से जीवन देने वाला नाइट्रोजन रिसता जा रहा है। कोई भी किसान या कृषि विज्ञानी आपको बता देगा कृत्रिम खाद डाल-डाल कर हमारी खेतिहर ज़मीन बंजर होती जा रही है। चारे की घोर तंगी है और मवेशी रखना आम किसानों के बूते से बाहर हो गया है। नतीजतन गोबर की खाद की भी बहुत तंगी है। कुछ ही राज्य हैं जैसे उत्तराखंड जहाँ आज भी जानवर चराने के लिए जंगल बचे हैं। उत्तराखंड से खाद पंजाब के अमीर किसानों को बेची जाती है। उर्वरता के इस व्यापार को ठीक से समझा नहीं गया है अभी तक। तो हम अपनी ज़मीन की उर्वरता चूस रहे हैं और उससे उगने वाले खाद्य पदार्थ को मल बनने के बाद नदियों में डाल रहे हैं। अगर इस मल-मूत्र को वापस ज़मीन में डाला जाए—जैसा सीवर डलने के पहले होता ही था—तो हमारी खेतिहर ज़मीन आबाद हो जाएगी और हमारे जल स्रोतों में फिर प्राण लौट आएंगे।

फिर भी हम ऐसा नहीं करते। इसकी कुछ वजह तो है हमारे समाज का इतिहास। दक्षिण और पश्चिम एशिया के लोगों में अपने मल-मूत्र के प्रति घृणा बहुत ज़्यादा है। ये घृणा हमारे धार्मिक और सामाजिक संस्कारों में बस गई है। हिंदू, यहूदी और इस्लामी धारणाओं में मल-मूत्र त्याग के बाद शुद्धि के कई नियम बतलाए गए हैं। लेकिन जब ये संस्कार बने तब गटर से नदियों के बर्बाद होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती होगी। वर्ना क्या पता नदियों को साफ़ रखने के अनुष्ठान भी बतलाए जाते और नियम होते नदियों को शुद्ध रखने के लिए।

बाकी सारे एशिया में मल-मूत्र को खाद बना कर खेतों में उपयोग करने की परंपरा रही है। फिर चाहे वो चीन हो, जापान, या इंडोनीशिया। हमारे यहाँ भी ये होता था, पर जरा कम। क्योंकि हमारे यहाँ गोबर की खाद रही है, जो मनुष्य मल बनी खाद से कहीं बेहतर होती है। भारत के भी वो भाग जहाँ गोबर कि बहुतायत नहीं थी वहाँ मल-मूत्र से खाद बनाने का रिवाज था। लद्दाख में तो आज भी पुराने तरीके के सूखे शौचालय पाए जा सकते हैं जो वृष्टा को खाद बनाते थे। आज पूरे भारत में चारे और गोबर की कमी है और लद्दाख जैसे ही हाल बने हुए हैं। तो क्यों पूरा देश ऐसा नहीं करता? कुछ लोग कोशिश में लगे हैं कि ऐसा हो जाए। इनमें ज्यादातर गैर-सरकारी संगठन हैं और साथ में हैं कुछ शिक्षाविद और शोधकर्ता। इनका जोर है इकोलॉजिकल सेनिटेशन या इकोसैन पर। ये नए तरह के शौचालय हैं जिनमें मल और मूत्र अलग-अलग खानों में जाते हैं जहाँ इन्हें सड़ा कर खाद बनाया जाता है।

इस विचार में बहुत दम है। कल्पना कीजिए कि जो अरबों रुपए सरकार गटर और मैला पानी साफ़ करने के संयंत्रों पर खर्च करती है वो अगर इकोसैन शौचालयों पर लगा दे तो करोड़ो लोगों को शौचालय मिलेंगे। नदियां स्वत: ही साफ़ हो जाएंगी। किसानों को टनों प्राकृतिक खाद मिलेगी और ज़मीन का नाइट्रोजन ज़मीन में ही रहेगा, क्योंकि भारत की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फ़ॉस्फ़ेट और पोटैशियम दे सकती है। हमारी 115 करोड़ की आबादी ज़मीन और नदियों पर बोझ होने की बजाए उन्हें पालेगी क्योंकि हर व्यक्ति खाद की फ़ैक्टरी होगा। जिनके पास शौचालय बनाने के पैसे नहीं हैं वो अपने मल-मूत्र की खाद बेच सकते हैं। अगर ये काम चल जाए तो लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने के लिए पैसे दिए जा सकते हैं। इस सब में कृत्रिम खाद पर दी जाने वाली 50,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी पर होने वाली बचत हो आप जोड़ें तो इकोसैन की संभावना का अंदाज़ा लगेगा। लेकिन छह साल के प्रयास के बाद भी इकोसैन फैला नहीं है। इसका एक कारण है मैला ढोने की परंपरा। जैसा कि चीन में भी होता था, मैला ढोना का काम एक जाति के पल्ले पड़ा और उस जाति के सब लोगों को कई पीढ़ियों तक अमानवीय कष्ट झेलने पड़े। एक पूरे वर्ग को भंगी बना कर हमारे समाज ने अछूत करार दे कर उनकी अवमानना की। आज भी भंगी शब्द के साथ बहुत शर्म जुड़ी हुई है।

इकोसैन से डर लगता है कई लोगों को जिनमे कुछ सरकार में भी हैं। उन्हें लगता है कि सूखे शौचालय के बहाने कहीं भंगी परंपरा लौट ना आए। डर वाजिब भी है। पर इसका एकमात्र उपाय है कि इकोसैन शौचालय का नया व्यवसाय बन पाए जिसमें हर तरह के लोग निवेश करें ये मानते हुए कि इससे व्यापारिक लाभ होगा। जो कोई इसमें पैसे बनाएगा वो दूसरों के लिए और समाज के लिए रास्ता खोल देगा। अगर ऐसा होता है तो सरकार की झिझक भी चली जाएगी। इकोसैन ऐसी चीज़ नहीं है जो सरकार के भरोसे चल पड़ेगी। इसे करना तो समाज को ही पड़ेगा। क्योंकि इसकी कामयाबी समाज में बदलाव के बिना संभव नहीं है।

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