खाद्य संकट का हल : जनसमुदाय का दायित्व

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सरकार द्वारा परिवार नियोजन के क्षेत्र में वृहत कार्यक्रम क्रियान्वित है। उसी तरह का क्रियान्वयन खाद्यान्न उत्पादन के लिये भी होना चाहिए। एक ओर जहाँ जनसंख्या में कमी करने की आवश्यकता है वहाँ दूसरी ओर कहीं उससे भी बढ़कर खाद्यान्न बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है।

जनसंख्या नियंत्रण एवं खाद्य उत्पादन में वृद्धि की आवश्यकता-दोनों बातें केवल भारत के लिये ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिये एक सोचनीय विषय है। इन दोनों समस्याओं के हल हेतु विश्व स्तर पर अभिनव प्रयास जारी है। भारत एक कृषि प्रधान देश होते हुए अधिक जनसंख्या के कारण खाद्य संकट की समस्या से जूझ रहा है। लेखक ने प्रस्तुत लेख में भावी दुष्परिणामों की गम्भीरता को दृष्टिगत रखते हुए उससे निपटने के उपायों का जिक्र किया है।

पाँच अरब की आबादी का बोझ ढोती यह पृथ्वी जनसंख्या से पैदा हुई अनेक समस्याओं के निदान की बाट जोह रही है। जिनमें जटिल खाद्य समस्या है। इसका समय रहते उपाय नहीं किया गया तो आने वाले समय में युग नरभक्षण की बर्बरता पर मजबूर हो जायेगा। गम्भीर विषय तो यह है कि आज जहाँ विश्व का रुख अस्त्र-शस्त्र शौर्य, ग्रह नक्षत्र की सैर, वैज्ञानिक विलासिता की ओर अधिक है वहाँ अनाज में बढ़ोतरी की दिशा में प्रयास बहुत कम है।

विशेषज्ञों का मत


विश्व खाद्य और कृषि संगठन के विशेषज्ञों का मत है कि विश्व की वर्तमान क्षमता में अगर 60 प्रतिशत वृद्धि हुई तो सन 2000 तक करोड़ों व्यक्तियों की मौत भूख से होगी। हथियार उत्पादन की होड़ में लगे अनेक राष्ट्र इस बात से बेखबर हैं कि आगामी दशाब्दियों में मनुष्य बगैर युद्ध के ही भूख के प्रहार से मरेगा। यदि अनाज की पैदावार में गुणात्मक वृद्धि नहीं हुई तो भूख से मौत का तांडव अणु-युद्ध से भी बढ़कर हो सकता है।

अभिनव प्रयोग


खाद्य समस्या का निदान तभी सम्भव है जब तिल-तिल जगह का उपयोग हो। इस विषय पर जागरुक देश चीन और जापान नित नये प्रयोग कर रहे हैं। चीन में तो पड़ती भूमि की गुंजाइश ही समाप्त होती जा रही है। यहाँ तक कि रेल पटरियों के समीप समानांतर खाली जगहों पर फसलें लगाई जा रही हैं। उसी तरह जापान में प्रति हेक्टेयर अधिकतम उपज के लिये कठिन प्रयत्न और अभिनव प्रयोग किये जा रहे हैं। पिछड़े और विकासशील देशों में आज भी खाद्य उत्पाद के तरीके अवैज्ञानिक और परम्परागत हैं।

पलायन-एक समस्या


दरअसल यह मान्यता है कि प्रगति और सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था का मार्ग औद्योगीकरण है फलस्वरूप विकासशील देश उद्योगोन्मुखी हैं। अतः अनाज वृद्धि के लिये बजट तुलनात्मक कम ही है। कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना महज नारा है। सार्थक प्रयास की पहल अब तक नहीं हो सकी है। कृषि प्रधान देश होने की उपाधि भर से हमें संतुष्ट होना पड़ता है। लेकिन कृषि प्रधानता की कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती। गाँवों से शहर की ओर पलायन निरंतर जारी है। कस्बे का रूप शहर में परिणित हो रहा है। उद्योगों का विस्तार हो रहा है। उद्योगों की तुलना में कृषि में मजदूरी कम मिलती है फलस्वरूप कृषि श्रमिकों का आकर्षण महानगर के उद्योगों की ओर है। खाद्य उत्पादन का कार्य न तो दफ्तर में हो सकता है और न ही कल कारखानों में इसके लिये गाँवों में अभ्यास करना होगा। स्थिति यह है कि शहर हो या गाँव, कृषि योग्य भूमि हर क्षेत्र में तैयार करनी पड़ेगी। किसी व्यक्ति विशेष के पास विशाल भूमि क्षेत्र है जिस पर मनमानी तौर पर खेती की जाती है या बंजर छोड़ दी जाती है। अतः यह शासन द्वारा गौर करने का अहम विषय है।

अन्य वनस्पतियों का प्रयोग


धान गेहूँ आदि अनाजों के परम्परागत उपजों से हटकर ऐसे खाद्यान्नों की ओर ध्यान देना चाहिए जिसकी फसल अत्यधिक मात्रा में ली जा सके, जिस पर दैविक प्रकोप का असर अधिक न हो, पौष्टिक हो और कम खर्च में आसानी से उपजाई जा सके। पालक, मेथी, मथुआ, चौलाई, लालभाजी, जड़ी भाजी जैसी घासस्तर की वनस्पतियों को खाद्य के रूप में उपयोग किया जाता है। अब उस वर्ग में शैवालस्तर की कुछ और घासें खाद्यान्न विकल्प के रूप में सम्मिलित की जा सकती हैं। वनस्पति शास्त्रियों के अनुसंधान का निष्कर्ष है कि दूब, नागरमोथा जैसी घास वनस्पतियों का प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह हमें शाक, फल और अन्न तक ही सीमित न रहकर अपने आहार में घासस्तर की वनस्पतियों को भी सम्मिलित करके चलना चाहिए। वन विभाग द्वारा लगाये जा रहे पेड़ों में फलदार वृक्षों की अधिकता होनी चाहिए। सामाजिक वानिकी को भी फलदार वृक्षों के लिये विशेष प्रयास करना चाहिए। नागरिकों को इस बात की ओर जागृत किया जाए कि सौंदर्य के लिये लगाये जाने वाले मेड़ जैसे गुलमोहर, अशोक, नीलगिरि आदि की जगह जामुन, सीताफल, अमरूद आम, कटहल जैसे फलदार वृक्षों की अधिकता हो।

फलदार पौधों पर जोर


घरों में या आस-पास भी आंगनबाड़ी लगायी जानी चाहिए। प्रायः अधिकांश घरों में फूलों, शो-पत्तियों के पौधे लगाये जाते हैं। आज आवश्यकता है कि अब लोगों का रुझान गुलाब, चंपा, मोगरा चमेली रजनीगंधा आदि महज शोभा जैसे फलदार पौधों से हटकर करेला, बैंगन, सेम, कुंदरू, लौकी आदि जैसे फलदार पौधों की ओर बढ़ना चाहिए। फलदार पौधों के दोहरे फायदे हैं, इसमें फूल भी खिलते हैं जो शोभा और सुंदरता का कार्य करते हैं और फल लगते हैं जो खाद्य की कमी पूरी करते हैं

सरकारी प्रयासों की आवश्यकता


भारत वर्ष विश्व के उन देशों में है जहाँ खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपज बेहद कम हैं यहाँ अमीर वर्ग मध्यवर्ती किसान और व्यापारी ही पर्याप्त और उपयुक्त भोजन प्राप्त कर पाते हैं। शेष ग्रामीण, मजदूरों, लघुकृषकों, आदिवासियों मध्यवर्गीय लोगों के समक्ष अन्न की समस्या सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है। निदान के लिये प्रत्येक घरों में चाहे छोटी सी ही जमीन क्यों न हो अपने गुजारे के लिये कुछ-न-कुछ खाद्य पदार्थ उगाने चाहिए। जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिये पशुपालन और अनाज के स्थान पर शाकभाजियों का उत्पादन तथा सेवन ऐसा उपाय है जिसके सहारे समाधान बहुत हद तक सम्भव है। छिलके समेत खाद्यों का उपयोग और उन्हें तलने भूनने की अपेक्षा उबालने से काम चलाया जा सके तो आहार की कमी की पूर्ति होगी। थोड़े में ही पोषण आहार मिल जायेगा। और मात्रा में सरलतापूर्वक कटौती की जा सकेगी। शासन द्वारा बनाये गये उद्यानों में तथा नगरपालिका, ग्रामपंचायत द्वारा लगाये जा रहे उद्यानों में फलदार उद्यान की ओर ध्यान देना एक लाभकारी कदम होगा।

सामूहिक प्रयास जरूरी


रचनात्मक संस्थाओं क्लबों और सांस्कृतिक संस्थानों का रुझान भी खाद्यान्न उत्पादन की ओर बढ़ना चाहिए। संस्था के सदस्यों को खाद्यान्न वृद्धि कार्यक्रम में जुट जाना चाहिए। स्कूल कॉलेजों आदि शैक्षणिक संस्थाओं में स्थापित राष्ट्रीय सेवा योजना एन.सी.सी. स्काउट गाइड आदि दलों द्वारा भी पेड़ पौधे उपजाने के विषय पर जोर देने के लिये कार्यक्रम संचालित करना चाहिये।

सरकार द्वारा परिवार नियोजन के क्षेत्र में वृहत कार्यक्रम क्रियान्वित है। उसी तरह का क्रियान्वयन खाद्यान्न उत्पादन के लिये भी होना चाहिए। एक ओर जहाँ जनसंख्या में कमी करने की आवश्यकता है वहाँ दूसरी ओर कहीं उससे भी बढ़कर खाद्यान्न बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है। सरकारी क्षेत्रों में परिवार नियोजन की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया जा रहा है। शासकीय कर्मचारियों की वेतन वृद्धि और पदोन्नति से इसे जोड़ा गया है। उसी तरह संस्थानों के कर्मियों और प्रमुखों से दायित्व-पूर्ण ढंग से जोड़ा जाना आज की प्रमुख आवश्यकता है। भारत माता खाद्यान्न के क्षेत्र में अन्नपूर्णा साबित हो। खाद्य के लिये विकसित देशों की बाट न जोह कर स्वयं गरीब देशों की मदद करे और विश्व में विपुल उत्पादन का कीर्तिमान स्थापित करे। भारत वर्ष की भूमि में ऐसी विशेषता है कि नाना प्रकार की फसलों की अधिक उपज ली जा सकती है। इस विषय पर सरकार के साथ नागरिक चेतना की जरूरत है।

सहायक कोषालय अधिकारी राजनांदगांव, (म.प्र.)

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