खाद्य सुरक्षा : खैरात के खतरे

25 Jul 2013
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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून ‘मनरेगा’ बनाने के पीछे की मूल सोच गांवों में रोजगार के लिए बुनियादी ढांचे का विकास करना ही था। सोचा गया था कि तालाब, चारागाह, बागवानी, भूमि संरक्षण के जरिए गांवों में ऐसे संसाधन खड़े किए जाएं, ताकि खेती, मवेशी तथा स्थानीय उत्पाद ग्रामीणों को खुद पर्याप्त रोजगार देने लगें। पलायन रुके। मजदूर एक दिन अपने रोजगार के खुद मालिक बन जाए। लेकिन सरकारों में संकल्प और ग्रामसभाओं-पंचायतों में सोच की कमी ने ऐसा नहीं होने दिया। इंसान अकूत संभावनाओं का पुतला है। गीता के कमयोग यही कहता है – “जो नहीं है, उसे संभव कर दिखाना ही योग है और इंसान यह कर सकता है।’’ यदि भारत कभी जगद्गुरु था, तो वह निश्चित ही योग की इस महान अवधारणा को व्यवहार में उतारने के कारण ही रहा होगा। यह कर्मयोग ही है, जिसके कारण कोई राष्ट्र गौरवशाली बन सकता है। गौरवशाली राष्ट्र वह होता है, जिसके नागरिक अपने खुद के श्रम की कमाई से जुटाए संसाधन से सुखी व गौरवान्वित होतें हों। अपने श्रम, कौशल और बुद्धि पर निर्भरता ही व्यक्ति को आत्मविश्वासी और स्वतंत्र बनाती है। नकल मारकर पास की परीक्षा, पैरवी लगाकर हासिल की नौकरी और अपनी मेहनत, कौशल व बुद्धि से हासिल नतीजे में आत्मविश्वास का फर्क है। लेकिन दूर्योग से राजयोग पा चुके खास लोग आम लोगों को कर्मयोग से दूर करने में गुरेज नहीं कर रहे।

खैरात की हकदारी अनुचित


टी वी, लैपटॅाप, साईकिल, धोती, बेरोजगारी भत्ता.. ये सभी खैरात ही हैं। आरक्षण को भी मैं खैरात ही मानता हूं। ‘खाद्य सुरक्षा’ का वर्तमान खाका भी एक तरह की खैरात ही है। यह मदद नहीं है। यह एक तरफ लोगों को निकम्मा बनाना है और दूसरी तरफ दूसरे वर्गों पर बोझ बढ़ाना है। खैरात बांटने को आप सिर्फ आपत्ति काल में तत्काल राहत की दृष्टि से ही उचित ठहरा सकते हैं। जहां यह आपत्ति हो, वहां आप बेशक अनाज मुहैया कराएं। भला इससे किसे इंकार हो सकता है? लेकिन 81 प्रतिशत आबादी की भूख कोई अचानक आई आपदा नहीं है। यह रोजगार के लिए जरूरी बुनियादी संसाधनों के विकास की हमारी तैयारियों में समग्रता के अभाव का दुष्परिणाम है। हम तो संसाधनों को बेचकर.. मारकर रोजगार विकसित कर रहे हैं। इससे एक वर्ग को रोजगार सुरक्षा मिल रही है, तो दूसरे वर्ग के लिए खाद्य सुरक्षा के लाले पड़ गए हैं। बाप की कमाई पूंजी को बेचकर रईसी का रंग कितने दिन चलेगा? जीडीपी की कागजी वृद्धि का यह ढंग ठीक नहीं। यह समस्या है। खाद्य सुरक्षा इसका समाधान नहीं, समाधान में व्यवधान है। खैरात को हकदारी में बदल देना तो और भी खतरनाक है।

उचित मार्ग : समग्र विकास


खाद्य सुरक्षा बजट का यही पैसा लगाकर देश के रोजगार के बुनियादी संसाधनों का ढांचागत और समग्र विकास किया जा सकता है। इससे आय भी बढ़ेगी और खुशियों का आंकड़ा भी। जहां भूख का इंतजाम कम हो, वहां यह सबसे पहले हो। यह ठीक है। भला इससे किसे इंकार हो सकता है? यदि हम एक बार बुनियादी संसाधनों का पूरी समग्रता के साथ विकास कर सकें, तो फिर भूख या रोजगार के लिए लोगों को सरकारों की ओर ताकना नहीं पड़ेगा। लेकिन यह सिर्फ सोच से संभव नहीं है।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून ‘मनरेगा’ बनाने के पीछे की मूल सोच गांवों में रोजगार के लिए बुनियादी ढांचे का विकास करना ही था। सोचा गया था कि तालाब, चारागाह, बागवानी, भूमि संरक्षण के जरिए गांवों में ऐसे संसाधन खड़े किए जाएं, ताकि खेती, मवेशी तथा स्थानीय उत्पाद ग्रामीणों को खुद पर्याप्त रोजगार देने लगें। पलायन रुके। मजदूर एक दिन अपने रोजगार के खुद मालिक बन जाए। लेकिन सरकारों में संकल्प और ग्रामसभाओं-पंचायतों में सोच की कमी ने ऐसा नहीं होने दिया। इसी का नतीजा है कि आज ‘मनरेगा’ संसाधनों की गारंटी देने की बजाय, सौ दिन की धनराशि की गारंटी देने वाला समझ लिया गया है। नासमझी यह कि सरकार ने भी इसे इसी रूप में प्रचारित किया। इस प्रचार को उलटना होगा।

खैर! कह सकते हैं कि भूख से मौत कहीं भी हो, किसी की भी हो.. यह वैश्विक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के नाम पर काला धब्बा है। यह मिटना ही चाहिए। लेकिन इसे मिटाने का तरीका खैरात नहीं। खाद्य सुरक्षा के तहत अनाज वितरण, अनाज की कालाबाजारी बढ़ाएगा और कीमतें भी। इसका सबसे ज्यादा नुकसान गैरलाभार्थियों को होगा। वर्गभेद बढ़ेगा, सो अलग। उसे मिटने के लिए वर्गभेद सुरक्षा का एक और एक्ट लाना पड़ेगा। फिर देश उसका रास्ता निकालने में फंसेगा। अतः अच्छा है कि रास्ता अभी ही निकाल लिया जाए, ताकि खैरात की आदत घटे और श्रम से हासिल आय व उसका गौरव बढ़े। खाद्य सुरक्षा के समक्ष सवाल और भी हैं, जिनका उत्तर हासिल किए बगैर खाद्य सुरक्षा बिल को जमीन पर नहीं उतारा जाना चाहिए।

खाद्यान्न उत्पादन की गारंटी कैसे मिले?


महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या महज् खाद्य सुरक्षा का कानूनन हक हासिल हो जाने से खाद्य सुरक्षा हासिल हो जाएगी? क्या खाद्य सुरक्षा की गारंटी भारत के खेतों में पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन की गारंटी दे सकता है? खाद्यान्न उत्पादन की गारंटी कैसे आयेगी? खाद्य सुरक्षा योजना बनाने से पहले नियोजकों को इस प्रश्न पर विचार जरूर कर लेना चाहिए। मेरा मानना है कि कानूनन हक के कारण कभी सड़ा-गला या आयातित अनाज देने की मजबूरी सामने न आए, इसके लिए खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ जल सुरक्षा और मिट्टी सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी। यह मांग अकारण नहीं है। तर्क यह है कि पिछले एक दशक में कई ऐसे मौके आए, जब पिछले वर्ष की तुलना में अगले वर्ष खाद्यान्नों का तुलनात्मक उत्पादन गिरा। बाढ़-सुखाड़ जैसे परंपरागत कारणों के अलावा वजह और भी हैं।

चुनौती एक: जलीय असंतुलन


शहरी-कस्बाई बसावटें बढ़ रही हैं। उपजाऊ जमीन घट रही है। उद्योग भी उपजाऊ जमीनों पर ही बस रहे हैं। वह भी जरूरत 50 एकड़ की हो, तो कब्जा 500 एकड़ पर करके। इसके संकेत बुरे हैं। इसके अलावा परिदृश्य यह है कि कहीं जलाभाव के कारण खेती नहीं हो पा रही, तो कहीं जलभराव के कारण खेत बांझ हो गए हैं। नहरी रिसाव ने कितने उपजाऊ इलाकों को ऊसर में तब्दील कर दिया है। उ. प्र. ऊसर सुधार निगम के प्रयासों के बावजूद अकेले उत्तर प्रदेश में ही अभी करीब 6 लाख हेक्टेयर इलाका ऊसर और बीहड़ की चपेट में है। नित नए इलाके जलाभाव व जलभराव क्षेत्रों की सूची में शामिल हो रहे हैं। नदियों पर आए संकट ने भी खेती पर संकट बढ़ाया है। कहीं दोहन की अधिकता, कहीं जलसंचयन की न्यूनता.. तो कहीं वर्षाक्रम में परिवर्तन के अनुंरूप खेती में बदलाव न किए जाने के कारण भी खेती पर संकट है। जहां-जहां बड़े बांध बने, वहां जल तो है, पर जल सुरक्षा नहीं। पानी है, किंतु खेती की पकड़ से बाहर है।

विसंगति यह है कि जलीय असंतुलन के नये समीकरणों के बावजूद जलदोहन बढ़ रहा है। तमाम सरकारी आदेशों और अदालती निर्देशों के जलसंचयन की कोशिशों के नाम पर आज भी खानापूर्ति ही हो रही है। धरती के पेट में पानी भरने के उपायों को लेकर किसान खुद भी संजीदा नहीं है। नकदी फसल का लालच खेतों मे रासायनिक उर्वरक के उपयोग के साथ-साथ ज्यादा सिंचाई करने की मजबूरी बढाता जा रहा है। पानी के अनुशासित उपयोग की सीख वह जरूरी नहीं समझ रहा। “जो जितना भूजल निकाले, उतना वर्षाजल संजोये’’ - इस अकेले सिद्धांत को सख्ती से लागू कर जलसुरक्षा हासिल की जा सकती है। आज नहीं तो कल, यह करना ही होगा। लेकिन खाद्यान्न सुरक्षा से जुङी एक विसंगति खुद खाद्यान्न और नकदी फसलों के बीच का वर्ग संघर्ष है।

चुनौती दो : खाद्यान्न-नकदी फसल संघर्ष


नकदी फसल का बुखार कुछ ऐसा है कि पानी की कमी वाले देश के बुंदेलखंड समेत कई इलाकों में आप लोगों को अधिक पानी पीने वाली राजमा, फूल, मिर्च और प्याज बोते देख सकते हैं। उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद, हरदोई, रायबरेली से लेकर बाराबंकी तक की पूरी पट्टी पीपरमेंट की कीमतों पर फिदा है। कई डार्क जोन वाले पंजाब के विकासखंडों का जोर अधिक पानी वाली नकदी फसलों पर से अभी भी हटा नहीं है। महाराष्ट्र अभी भी अंगूर, केले और गन्ने के लालच से निकल नहीं पा रहा। झारखंड के सूखे पठारी भूगोल का जोर भी अब मकई पर कम, सब्जी और फूलों की नकदी फसलों पर ज्यादा बढ़ गया है। लिहाजा एक ओर पानी की खपत और जरूरत और बढ़ती जा रही है, दूसरी ओर नकदी और खाद्यान्न फसलों के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है।

हकीकत यह है कि जिन खेतिहर मजदूरों की खाद्यान्न जरूरत दूसरो के खेतो में कटाई-बिनाई से पूरी हो जाती है, उन्होंने अभी ही खाद्यान्न की बजाय सागभाजी की नकदी खेती को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया है। आगे जिस भी कृषक वर्ग की खाद्यान्न जरूरत सरकारी राशन से पूरी होने लगेगी, खाद्यान्न उत्पादन उसकी प्राथमिकता से हट जाएंगे। खाद्य सुरक्षा की हकदारी कम रकबे वाले किसानों को भी नकदी खेती की ओर ले जाएगी। खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी खाद्यान्न मात्रा के मार्ग में यह बाधा बहुत बड़ी है और काफी जटिल भी। समाधान क्या है? एक ओर जब नौकरीपेशा वर्ग पैकेज का पहाड़ पाने में लगा हों, तो हम किसान को सादगी, संयम और देश की जरूरत का तकाजा देकर नकदी फसलों के उत्पादन का रास्ते जाने से रोक नहीं सकते। जाहिर है कि नकदी व खाद्यान्न के बीच बढ़ते संघर्ष का समाधान कम पानी वाले मोटे अनाज और चना, मटर तथा तिलहन, दलहन की फसलों की कीमत में वृद्धि कर ही होगा। इसके जरिए खाद्यान्न सुरक्षा के जरूरी खाद्यान्न की मात्रा तो सुरक्षित हो जाएगी। लेकिन दूसरों वर्गों की जेबों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के नतीजे क्या आयेंगे? यह एक दिलचस्प और जरूरी आकलन का विषय है।

चुनौती तीन: कुपोषित होती मिट्टी


खाद्य सुरक्षा से जुड़ा तीसरा महत्वपूर्ण जमीनी पहलू है मिलने वाले खाद्यान्न की गुणवत्ता की गारंटी। “जहां दूध दही का खाणा, उसका नाम हरियाणा’’ - जिस प्रदेश के बारे में यह कहावत तब से विख्यात हो, जब भारत के अनाज भंडार पूरी तरह भरे भी नहीं थे; यदि उस प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग प्रदेश के 74 फीसदी बच्चों में खून की कमी का आंकड़ा पेश करे, तो इस खाद्य सुरक्षा के तहत मिलने वाले हर निवाले में पोषक तत्वों की जरूरत और बढ़ जाती है। आज राजस्थान के अलावा पर्याप्त उत्पादन करने वाले राज्य भी कुपोषित हैं- गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार। कभी सूखी रोटी नमक-प्याज खाकर हाड़तोड़ मेहनत करने वाले मर्दों के बाजुओं की मछलियां को देखकर रईसजादे रश्क करते थे। आज हम अधिक उत्पादन के चक्कर में लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से यूरिया, डाई और पोटाश खिलाकर कुपोषित बना रहे हैं। उन्नत बीजों की पोषक शक्ति पर सवाल हैं ही। इन बातों के साफ संकेत हैं, वरना भरे अनाज भंडार वाले भारत के 50 फीसदी बच्चों के कुपोषित होने के कारण भला और क्या हो सकते हैं?

कुपोषण के खिलाफ जंग में खाद्य सुरक्षा की थाली में अनाज के अलावा और क्या-क्या हो, यह अलग बहस का विषय है। लेकिन यह सच है कि कुपोषण के खिलाफ जंग में जीत की गारंटी शहरी नाले के पानी से उगाई सब्जी और हिंडन नदी के जहर से उगाया गेहूं नहीं दे सकता। यह गारंटी सिर्फ पानी की शुद्धता और मिट्टी की जैविकी को बचाकर ही दी जा सकती है। रासायनिक खेती मिट्टी मे पोषक तत्वों की गारंटी दे सकते हैं, जैविकी की नहीं। वह भी अस्थायी गारंटी! स्थायी गारंटी तो खेती के जैविक तरीके व मवेशी बचाकर ही दी जा सकती हैं। अतः आप इंकार नहीं कर सकते कि यदि खाद्य सुरक्षा चाहिए, तो मिट्टी और पानी की जैविक सुरक्षा की गारंटी इसकी पहली शर्त है।

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