खेती में मशीनीकरण का अव्यावहारिक पक्ष

3 Dec 2017
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भारत में खेती की स्थिति कमाल की है। राजनीति में इसका जितना ऊँचा स्थान है, नीति-निर्माण में इसे उतना ही नजरअंदाज किया गया है। आजीविका के लिहाज से यह जितनी व्यापक है, अर्थव्यवस्था में योगदान के लिहाज से इसका स्थान उतना ही गौण है। इस विरोधाभासी स्थिति का ही नतीजा है कि किसान से करीबी का दावा करने वाले नेताओं और मंत्रियों से भरे इस देश में आजादी के 70 साल बाद भी जब खेती का जिक्र आता है, तब किसानों की आत्महत्या सबसे बड़ा मुद्दा बन जाती है। दरअसल, इस विरोधाभास की कहानी आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1954 में उस समय उद्योगों को आधुनिक भारत के मंदिर करार दिया था, जब देश की तीन-चौथाई से ज्यादा आबादी आजीविका के लिये खेती पर ही निर्भर थी।

गेहूँ की खेतीयह महज एक जुमला नहीं था, बल्कि आने वाले दशकों में भारत की सरकारों के नीतिगत फोकस का एक स्टेटमेंट था। नतीजा हुआ कि किसानों के बेटों से भरी सरकारों में किसान कभी सरकारी नीतियों के केंद्र में नहीं आ सका। मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने, मॉनसून पर पूरी तरह आश्रित भारतीय खेतों तक पानी पहुँचाने, किसानों को उपज का सही भाव दिलाने, प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में किसानों को बर्बाद होने से बचाने, किसानों को उत्तम गुणवत्ता के बीज उपलब्ध करवाने, उन तक कृषि क्षेत्र की आधुनिकतम शोध और जानकारियाँ पहुँचाने जैसे मूलभूत विषय न तो नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता सूची में जगह पा सके और न ही देश की इंटेलिजेंसियों के बौद्धिक विचार-विर्मश का हिस्सा बन सके।

यह स्थिति दो तरह से देश के लिये बेहद नुकसानदेह रही। पहली की र्चचा तो गाहे-बगाहे हम करते रहते हैं कि जब देश में आजादी के केवल ढाई दशकों के भीतर भीषण अन्न संकट आया, जिसके कारण देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को ‘जय जवान-जय किसान’ के नारे के साथ हरित क्रांति की शुरुआत करनी पड़ी। लेकिन इसका दूसरा नतीजा यह हुआ कि खेती और इसलिए पूरा ग्रामीण भारत विकास की दौड़ में पिछड़ गया। शहर विकास और रोजगार का केंद्र बन गए और गाँवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हो गया। गाँव और खेती गरीबी का पर्याय बन गए। बहरहाल, हरित क्रांति की थोड़ी चर्चा कर लेते हैं। इसमें कोई दो मत नहीं कि हरित क्रांति देश की अन्न सुरक्षा के लिहाज से मील का पत्थर साबित हुई।

बुनियादी सोच में दोष


भारत ने अनाज के मामले में आत्मनिर्भर होने की दिशा में बड़ी छलांग लगाई। लेकिन हरित क्रांति की नींव में पड़ी सोच ने एक भयानक वातावरण को जन्म दिया। यह सोच थी उपभोग केंद्रित व्यवस्था निर्माण की। हमने खेती को केवल एक माध्यम यानी रिसोर्स के तौर पर चुना। माध्यम देश की भूख मिटाने का, माध्यम विदेशी मुद्रा बचाने का, माध्यम अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भरता पाने का। और इस सोच के कारण ही खेत, मिट्टी, पानी और किसान, इस सबके दोहन से अधिकतम फायदे की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। इन सबमें खेती, मिट्टी, किसान की भलाई और उन तमाम मुद्दों को कहीं जगह नहीं मिली, जिनका ऊपर जिक्र किया गया है।

हरित क्रांति के बाद ज्यादा उत्पादन खेती का मूल मंत्र हो गया और खेती पूरी तरह रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग पर निर्भर हो गई। हालाँकि बीजों पर अनुसंधान भी हुए और ज्यादा पैदावार देने वाले उन्नत किस्म के बीज आम किसानों तक पहुँचे लेकिन उनमें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बोलबाला होने से कुल मिलाकर खेती की लागत लगातार बढ़ती रही। और फिर आई मशीनों की बारी। मिट्टी तैयार करने से लेकर, कुड़ाई, गुड़ाई, बुवाई और कटाई तक में बड़ी-बड़ी मशीनों के इस्तेमाल को खेती में सफलता का रामबाण बताया गया और उसी लिहाज से बैंक ऋण की नीतियाँ बनाई गई। हालाँकि इस पूरी कवायद में इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया कि देश के 90 प्रतिशत से ज्यादा किसान छोटे या सीमांत किसान हैं, जिनके खेतों की जोत 5 एकड़ से भी कम है। इन किसानों के लिये बड़ी मशीनों का इस्तेमाल न केवल ज्यादा खर्चीला है, बल्कि अव्यावहारिक भी।

किसान खाद, कीटनाशक, महँगे बीजों और बड़ी मशीनों के चक्कर में कर्जदार बनता गया। खेती की लागत पहुँच गई आसमान पर, लेकिन कृषि उपज की सही कीमत दिलाने के मोर्चे पर कोई काम नहीं हुआ। लागत और आमदनी का अंतर कुछ ऐसा बढ़ा कि उसके नतीजे लाखों किसानों की खुदकुशी के तौर पर सामने आई है।

तो सवाल यह है कि इन भयानक परिस्थितियों का समाधान क्या है? समाधान ढूंढने के लिये पहले तो खेती को देखने का नजरिया बदलना होगा। खेती और किसान दूसरों की सेवा में लगे साधन नहीं हैं। ये जिंदा इकाई हैं, जो पारिस्थितिक संतुलन और मानव अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए इन्हें स्वस्थ और सुखी रखने की सोच से शुरुआत करनी होगी। खेती स्वस्थ तभी रहेगी जब मिट्टी स्वस्थ होगी, पानी स्वस्थ होगा और किसान सुखी तभी रहेगा जब एक ओर तो उसकी खेती की लागत कम होगी और दूसरी ओर उसे उसकी उपज का सही भाव मिलेगा। मृदा स्वास्थ्य, ऑर्गेनिक खेती, खाद और कीटनाशकों का तार्किक प्रयोग जैसे कदम खेती को स्वस्थ रखने के लिहाज से महत्त्वपूर्ण हैं। वहीं दूसरी ओर, छोटे किसानों की आमदनी बढ़ाने में एकीकृत खेती जैसी पद्धतियाँ अहम हैं। बाजार सुधारों के लिहाज से नरेन्द्र मोदी सरकार की ओर से ई-नाम यानी राष्ट्रीय कृषि बाजार की स्थापना का जिक्र होना चाहिए जो हालाँकि बहुत ही कठिन और लंबी प्रक्रिया है, लेकिन यदि इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सका तो यह किसानों को उनकी उपज का अधिकतम भाव दिलाने में युगांतकारी कदम साबित हो सकती है।

कर्नाटक के एकीकृत बाजार प्लेटफॉर्म (यूएमपी) ने इसकी सफलता को पहले ही साबित कर दिया है। सरकार कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानून, 2003 में भी सुधार लाने जा रही है, और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग मॉडल एक्ट भी जल्दी ही आने वाला है। ये सारे कदम किसानों को उनकी उपज का ज्यादा भाव दिलाने पर केंद्रित हैं। इसके अलावा, किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का निर्माण और उनके माध्यम से सामूहिक खरीद-बिक्री भी एक तरीका है, जिससे किसानों की किस्मत बदली जा सकती है। उदयपुर के नजदीक जहाँ राजीविका के तहत एफपीओ बड़ी मशीनों की खरीद कर छोटे किसानों को सस्ती दरों पर इसे उपलब्ध करवा रही है, वहीं बिहार के पूर्णिया में आरण्यक एफपीओ वायदा बाजारों में हेजिंग के जरिए सदस्य किसानों को मक्का की 30-40 प्रतिशत ज्यादा कीमत दिलाने में सफल रहा है। इन तरीकों से उत्पादन में जो बढ़ोतरी होगी, उसमें भारतीय कृषि और किसानों की समृद्धि होगी, शोषण नहीं।

लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।

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