खंडवा में पानी का निजीकरण विरोधी अभियान

छटनाक्रम का संक्षिप्त ब्यौरा


स्वतंत्र समिति ने पाया कि नागरिकों की आपत्तियों में पानी से संबंधित हर प्रकार की चिंताएं और नगरनिगम की सामाजिक जवाबदेही का उल्लेख था। नागरिकों की सबसे प्रमुख आपत्तियों में चौबीसों घंटे जलप्रदाय को अनावश्यक बताते हुए इस अवधारणा को खारिज किया जाना शामिल था। सार्वजनिक नल खत्म न किए जाने, सार्वजनिक जल संसाधन निजी कंपनी को न सौंपे जाने, पानी की अधिक मांग दिखाने हेतु गलत तथ्य पेश करने, नॉन रेवेन्यू जलप्रदाय की अवधारणा खत्म करने, महंगे पानी के मीटर की अनिवार्यता होने, जल दर निर्धारण में निजी कंपनी वर्चस्व होने जैसी 51 प्रकार की आपत्तियां उठाई गई थी। खंडवा में जलप्रदाय आवर्धन की नई योजना पर नवंबर 2006 से काम प्रारंभ हुआ। 2007 में जब इसे केंद्र सरकार समर्थित UIDSSMT में शामिल किया गया है तभी से मंथन अध्ययन केंद्र द्वारा इसका अध्ययन किया जा रहा है। अध्ययन के दौरान स्थानीय समुदाय से आपसी चर्चाओं, बैठकों के माध्यम से संवाद कर उन्हें UIDSSMT में निहित निजीकरण के खतरे से अवगत करवाया गया। इसके लिए मीडिया का भी सहारा लिया गया था। लेकिन हर बार नगरनिगम और जिम्मेदार जनप्रतिनिधियों ने बयान देकर निजीकरण की संभावना को खारिज किया तथा इसे नगरनिगम तथा सत्ताधारी पार्टी के प्रति दुष्प्रचार निरूपित किया।

सितंबर 2011 में एक पुस्तिका प्रकाशित कर निजीकरण के प्रति जन जागृति का एक और प्रयास किया गया लेकिन खंडवा वासियों में अपेक्षित प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी। लेकिन जब योजना पूरी होने की आई और 27 मार्च 2012 को मजबूरन खंडवा नगरनिगम को जलप्रदाय की शर्तों का खुलासा करना पड़ा तो समुदाय संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करने लगा। इस अभियान में जिला अधिवक्ता संघ, पेंशनर एसोसिएशन, व्यापारी संघ, नागरिक संगठन, राजनैतिक कार्यकर्ता, मीडिया आदि शामिल रहे हैं। इन समूहों ने ज्ञापनों, मीटिंगों, धरना-प्रदर्शनों, जनमत संग्रह आदि के माध्यम से लगातार जनजागृति की है।

UIDSSMT के तहत मध्य प्रदेश के 47 नगरों में 990 करोड़ की जलप्रदाय संबंधी योजनाएं स्वीकृत है। लेकिन, क्रियान्वयन के मामले में प्रदेश की सारी योजनाएं पीछे चल रही हैं। फिलहाल प्रदेश के खंडवा और शुवपुरी की जलप्रदाय योजनाओं को पीपीपी के तहत निजी कंपनियों को सौंप दिया गया है। योजना आयोग समेत कई मंचों पर खंडवा में पानी के निजीकरण को छोटे और मझौले नगरों के लिए सफल पीपीपी मॉडल के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

3 दिसंबर 2012 को नगर निगम द्वारा वाटर मीटरिंग और नल संयोजन नियमितीकरण नियम की अधुसूचना प्रकाशन के बाद नागरिकों ने अधिकृत रूप से निजीकरण पर अपनी आपत्तियां दर्ज करवाई। निर्धारित 30 दिनों में 10,334 परिवारों, जो कि कुल नल कनेक्शनधारियों की संख्या के 60 प्रतिशत से अधिक है, ने पानी के निजीकरण के संबंध में निजी कंपनी के साथ किए गए अनुबंध की वैधानिकता पर सवाल उठाते हुए अनुबंध रद्द करने की मांग की थी।

इसी दौरान एक स्थानीय वरिष्ठ नागरिक लक्ष्मीनारायण भार्गव की याचिका पर 31 दिसंबर 2012 को जिला उपभोक्ता फोरम ने शिकायतों के पारदर्शी तरीके से निराकरण करने तक अनुबंध के अंतिम प्रकाशन पर रोक संबंधी आदेश दिया। इसके बाद राज्य शासन द्वारा श्री तरुण पिथोड़े, सीईओ, जिला पंचायत की अध्यक्षता में 22 मार्च 2013 को एक 7 सदस्यीय स्वतंत्र समिति गठित की गई थी। समिति में लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के कार्यपालन यंत्री, पॉलिटेक्निक कॉलेज के प्राचार्य, चार्टर्ड एकाउंटेट, वास्तुकार और राजनैतिक कार्यकर्ता शामिल थे।

स्वतंत्र समिति ने पाया कि नागरिकों की आपत्तियों में पानी से संबंधित हर प्रकार की चिंताएं और नगरनिगम की सामाजिक जवाबदेही का उल्लेख था। नागरिकों की सबसे प्रमुख आपत्तियों में चौबीसों घंटे जलप्रदाय (24x7) को अनावश्यक बताते हुए इस अवधारणा को खारिज किया जाना शामिल था। सार्वजनिक नल खत्म न किए जाने, सार्वजनिक जल संसाधन निजी कंपनी को न सौंपे जाने, पानी की अधिक मांग दिखाने हेतु गलत तथ्य पेश करने, नॉन रेवेन्यू जलप्रदाय की अवधारणा खत्म करने, महंगे पानी के मीटर की अनिवार्यता होने, जल दर निर्धारण में निजी कंपनी वर्चस्व होने जैसी 51 प्रकार की आपत्तियां उठाई गई थी। इन आपत्तियों के आधार पर निजी कंपनी के साथ किए गए अनुबंध को रद्द किए जाने की मांग की गई थी। इसके अलावा योजना के सलाहकार मेहता एंड एसोसिएट्स के चयन और निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने हेतु अनुबंध तथा निर्माण सामग्री में किए गए मनमाने बदलावों को भी प्रमुखता से उठाया था।

व्यक्तिगत आपत्तियों के अलावा कुछ शासकीय संस्थाओं ने भी शासकीय जलसंसाधनों के अधिग्रहण की स्थिति में पानी के बिल का अनावश्यक बोझ शासन पर पड़ने का उल्लेख करते हुए आपत्ति प्रकट की थी। आपत्तियों के अलावा नर्मदा योजना से प्राप्त जल को अतिरिक्त स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने और नगर में जलप्रदाय हेतु एक स्वायत्त जल बोर्ड बनाने संबंधी सुझाव दिए थे।

स्वतंत्र समिति द्वारा 3 जून 2013 को खंडवा कलेक्टर को सौंपी रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि निजीकरण लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए नहीं बल्कि निहित स्वार्थों के कारण नागरिकों पर जबरन थोपा गया है। निजी कंपनी के पक्ष में प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर एक गठजोर बना हुआ है। इसी के चलते मेयर इन कौंसिल और निगम कमिशनर ने न सिर्फ निजी कंपनी को अनुचित लाभ पहुँचाए बल्कि निजीकरण हेतु नगरपालिक अधिनियम 1956 का भी उल्लंघन किया गया।

मेयर इन कौंसिल (एमआईसी) द्वारा अपनी सीमाओं से परे जाकर निजीकरण का निर्णय लिया जाना तथा निगम कमिश्नर द्वारा सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बिना निविदा पत्र मे आमूलचूल बदलाव किए जाने को रिपोर्ट में गंभीर अनियमितता बताया गया है। नगरनिगम महापौर की अध्यक्षता वाली एमआईसी को कटघरे में खड़ा करते हुए लिखा गया है कि एमआईसी को योजना के संबंध में केवल वित्तीय अधिकार प्राप्त थे लेकिन उसने पानी के निजीकरण का निर्णय ले लिया। निगम कमिश्नर ने निविदा प्रपत्र में बदलाव कर ठेकेदार कंपनी की 120 किमी की नई वितरण लाइनें डालने की बाध्यता को घटा कर 60 किमी कर दिया गया तथा कंपनी को पाईप मटेरियल (योजना लागत का 70 प्रतिशत खर्च पाईप पर हुआ है) बदलने की भी छूट दे दी थी। इन विधि विरुद्ध कृत्यों से योजना का स्वरूप ही बदल गया तथा निजी कंपनी को गैरवाजिब सुविधाएँ प्रदान कर दी गई। समिति रिपोर्ट में बड़ी संख्या में नागरिकों की आपत्तियों पर टिप्पण्णी करते हुए कहा गया है कि निजीकरण जनता को स्वीकार नहीं है और यदि इसे लागू किया गया तो कानून व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो सकती है।

निगम कमिश्नर द्वारा किए गए कुछ अन्य बदलावों के बारे में रपट में स्पष्ट किया गया है कि कमिश्नर ने जल वितरण निजी कंपनी से ही करवाने तथा इसी अनुरूप निविदा करवाने का पहले से ही निर्णय ले लिया था। राज्य स्तरीय साधिकार समिति ने भी इस विधि विरुद्ध कार्यवाही के रेखांकित करते हुए साधिकार समिति के निर्णय अनुरूप कार्य नहीं किया जाना तथा बिना अनुमति के कार्यदेश जारी किया जाना बताया था।

‘बहुत सारी अनियमितताओं’ के कारण स्वतंत्र समिति ने निजीकरण अनुबंध को निरस्त कर एक जल बोर्ड गठित करने की सिफारिश की है। समिति ने धार्मिक एवं सामाजिक दायित्वों के परिप्रेक्ष्य में जलस्रोतों को निजी कंपनी को हस्तांतरित किए जाने का विरोध किया है। नागरिकों के जल अधिकारों का समर्थन करते हुए गरीब बस्तियों में ‘अधिक से अधिक सार्वजनिक स्टेंड पोस्ट’ लगाने की मांग की है। कंपनी को दी गई ‘नो पेरेलल कंपीटिंग फेसिलिटी’ के विरुद्ध अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि नगरनिगम के जलप्रदाय के विरुद्ध कोई समानांतर जलप्रदाय नहीं होना चाहिए। समिति ने निजी कंपनी की कार्यप्रणाली पर टिप्पण्णी करते हुए कहा है कि जो कंपनी 2 वर्ष का निर्माण कार्य साढ़े तीन सालों में भी पूरा नहीं कर पाई उसे 23 वर्षों के लिए नगर की जलप्रदाय व्यवस्था कैसे सौंपी जा सकती है। रिपोर्ट में योजना के सलाहकार मेहता एंड एसोसिएट्स के चयन पर सवाल उठाते हुए कहा है कि सलाहकार के पास अपेक्षित अनुभव नहीं था तथा उसे निर्धारित से अधिक मेहनताना दिया गया।

यूआईडीएसएसएमटी के संबंध में निर्णय मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय साधिकार समिति तथा नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के मुख्य अभियंता की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय तकनीकी समिति करती है। जबकि राज्य स्तर पर इन योजनाओं के समन्वय का काम ‘मध्य प्रदेश विकास प्राधिकरण संघ’ करता था। राज्य स्तरीय साधिकार समिति ने खंडवा की निविदा में बार-बार किए जा रहे अनधिकृत बदलावों तथा निर्माण सामग्री के बदलावों के परिप्रेक्ष्य में नई निविदा आमंत्रित करने का निर्णय लिया था। इसी निर्णय के प्रकाश में नोडल एजेंसी ने नई निविदा आमंत्रित करने का निर्देश दिया। लेकिन खण्डवा नगरनिगम ने इस मामले अनावश्यक भ्रम फैलाकर निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने हेतु शातिराना तरीके अपनाए जिसमें नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के मुख्य अभियंता, जो राज्य स्तरीय तकनीकी समिति के अध्यक्ष भी है, ने पूरा सहयोग दिया। राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णय को चुनौती देने हेतु मुख्य अभियंता ने 2 पत्र जारी किए। पत्रों की विषयवस्तु से स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी ओर से इस मामले में कोई स्पष्ट विनिश्चय व्यक्त नहीं किया है बल्कि गलत तथ्य प्रस्तुत कर अनावश्यक भ्रम फैलाने का प्रयास किया ताकि नगरनिगम को कंपनी के पक्ष में मनमानी जारी रखने का बहाना मिल जाए। खंडवा नगरनिगम ने मुख्य अभियंता के अवांछित पत्रों के आधार पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय साधिकारी समिति के निर्णय को बदल दिया तथा निजी कंपनी के साथ अनुबंध कर लिया।

विशाल योजना लागत


यूआईडीएसएसएमटी के तहत मांग पर आसानी से धन उपलब्ध होने से स्थानीय निकायों का रुझान अधिक लागत वाली योजनाओं तरफ बढ़ रहा है। खंडवा की योजना का आंकलन 36 करोड़ रुपए से शुरू हुआ तथा केंद्र सरकार द्वारा लागत बढ़ाने से इंकार के बाद 115 करोड़ रुपए पर रोका गया अन्यथा लागत बढ़ाने के प्रयास जारी ही थे।

इस खेल में निजी सलाहकारी फर्मों के शामिल होने से योजना लागतें तेजी से बढ़ने लगी है। सलाहकारी फर्में परसेंटेज के आधार पर अपनी फीस लेती है। खंडवा में मेहता एंड एसोसिएट्स ने योजना लागत के डेढ़ प्रतिशत यानी 1 करोड़ 73 लाख रुपए (इस भुगतान पर टैक्स नगरनिगम चुकाएगा) पर सौदा पटाया है। यदि योजना की लागत 36 करोड़ ही होती तो इसी काम के सलाहकारी फर्म को 54 लाख रुपए ही मिलते। कंपनियां भी योजना लागत बढ़ाकर (cost padding) अपने हिस्से का निवेश भी अनुदान से निकालना चाहती है। इस प्रकार सलाहकार और निजी कंपनियों सहित अन्य सभी पक्ष (जनता को छोड़कर) भी योजना की लागत बढ़ने से खुश रहते हैं।

इसका असर यह हो रहा है कि योजनाओं की लागत बढ़ाने के लिए दूर के जलस्रोतों का चयन और पानी की अधिक मांग दिखाई जाने लगी है। UIDSSMT के तहत मिलने वाले अनुदान स्थानीय निकायों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक बड़े होने के कारण स्थानीय स्तर पर उचित निर्णय लेने की प्रक्रिया प्रभावित हुई है तथा निर्वाचित नगरनिकाय अपने ही कर्मचारियों एवं नागरिकों के हितों के बजाए निजी कंपनियों के हितों के प्रति अधिक संवेदनशील बन रहे हैं।

प्रशासनिक कार्यवाही में राजनैतिक हस्तक्षेप संदेह पैदा करते हैं। जब नोडल एजेंसी द्वारा राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णयानुसार योजना में बदलाव के खिलाफ सख्ती दिखाई गई तो तत्कालीन महापौर श्री वीरसिंह हिडोन इस मामले में कूद पड़े। निगम कमिश्नर को लिखे गए पत्र का जवाब महापौर ने दिया। महापौर ने सख्त लहजे में पत्र लिखकर नोडल एजेंसी की कार्यकारी निर्देशिका को धमकाया कि वे इस मामले पर मुख्यमंत्री का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। अगले कुछ दिनों तक नगरनिगम ने नोडल एजेंसी की मीटिंगों में शामिल होने से परहेज किया। अंत में राज्य स्तरीय साधिकार समिति का निर्णय नज़रअंदाज़ कर नगरनिगम ने जलप्रदाय योजना निर्माण एवं संचालन हेतु निजी कंपनी से अनुबंध कर लिया। नोडल एजेंसी द्वारा योजना को जारी की गई मंजुरी में उल्लेख किया गया है कि नगरनिगम ने राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णय अनुरूप कार्य नहीं किया है। लेकिन बाद में इस अवैधानिक कृत्य को राज्य के मुख्य सचिव को भी मंजूरी देनी पड़ी। खंडवा में निजीकरण विरोधी जनमत और निजीकृत योजना के संबंध में स्वतंत्र समिति की तथ्यात्मक रिपोर्ट की उपेक्षा करते हुए योजना को इसी रूप में जारी रखने का प्रयास है। जिम्मेदारों का यह तानाशाही रवैया कहीं नगर में कानून व्यवस्था की स्थिति, जैसा की स्वतंत्र समिति की रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गई है, निर्मित न कर दें।

संक्षेप में खंडवा में पानी के निजीकरण प्रयासों के संबंध में स्वतंत्र समिति की रपट ने एक बार सिद्ध कर दिया है कि निजीकरण को आगे बढ़ाने हेतु जिस प्रकार के घोटाले हर जगह किए जाते हैं खंडवा भी न सिर्फ उनसे अछूता रहा है बल्कि यहां तो निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने हेतु प्रशासनिक प्रक्रियाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप, निजीकरण पर नागरिकों और जनप्रतिनिधियों की राय की उपेक्षा करना जैसे कई अवैधानिक काम किए गए हैं।

इस सब के लिए केवल नगरनिगम के कर्मचारी या निर्वाचित परिषद को दोष दिया जाना पर्याप्त नहीं है। खंडवा में पानी में निजीकरण की प्रक्रिया के पहले 5 सालों के दौरान सबसे दुखद था सामाजिक एवं राजनैतिक स्तर पर प्रतिक्रिया का अभाव जिसके कारण निजीकरण की राह आसान हुई। उम्मीद करें कि खंडवा के अनुभव से दूसरे नगर कुछ सीखेंगे और समय रहते अपने पानी को निजी कंपनियों की जागीर बनने से रोकेंगे।

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