खतरे में प्रवाल-भित्तियाँ

Coral reefs
Coral reefs

दुनिया भर में कोरल रीफ (प्रवाल-भित्ति या मूँगे की चट्टानों) को जैसा नुकसान आजकल पहुँच रहा है, इतना गम्भीर खतरा कभी नहीं देखा गया। इससे इनका अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। पृथ्वी की यह बहुमूल्य धरोहर क्यों विनाश के कगार पर है और इसे लेकर हमें क्यों चिन्तित होना चाहिए?

Fig-3रोहन आर्थर, मैसूर स्थित नेशनल कंजर्वेशन फाउंडेशन में तटीय और समुद्री विषयों के वैज्ञानिक हैं और आजकल काफी चिन्तित हैं। आर्थर का मानना है कि लक्षद्वीप का मानचित्र से सफाया होने वाला है। कारण हैः एल-नीनो के कारण प्रवाल या मूँगे का बड़े पैमाने पर क्षय हो रहा है, जिसे ब्लीचिंग कहते हैं। एल-नीनो एक गर्म समुद्री धारा है, जो दुनिया भर में तापमान बढ़ाती है। लक्षद्वीप, केरल तट के पास 36 प्रवालद्वीप और मूँगे की चट्टानों का एक उष्ण कटिबंधीय द्वीप समूह है। समुद्री तापमान बढ़ने से प्रवाल का क्षय हो रहा है और यदि इसे रोका नहीं गया, तो ये समाप्त हो जाएँगे, इसके साथ ही कई अन्य द्वीप भी खत्म हो जाएँगे।

आर्थर कहते हैं, “वर्ष 2016 उष्ण कटिबंधीय मूँगे की चट्टानों के लिये महत्त्वपूर्ण समय होगा, जब पिछली बार ऐसा वर्ष 1998 में हुआ था। तब एल-नीनो के कारण एक ही साल में दुनिया से 15 फीसदी से अधिक प्रवाल भित्तियों का सफाया हो गया था। इस बार कितना नुकसान होगा, इसका अंदाजा लगाने में कई साल लगेंगे, लेकिन संकेत मिल रहे हैं कि वर्ष 2016 का एल-नीनो अपनी ताकत और प्रभाव में वर्ष 1998 की टक्कर का होगा।” वह कहते हैं कि लक्षद्वीप के लोग भारत में सबसे पहले जलवायु परिवर्तन शरणार्थी हो सकते हैं।

पहले अनुमान था कि भारत की मूँगा चट्टानें ब्लीचिंग की मार से बच जाएँगी। लेकिन अप्रैल के बाद स्थितियाँ बदल गईं। नैचुरल कंजर्वेशन फंड (एनसीएफ) द्वारा अप्रैल और मई में किए गए अध्ययन बड़े पैमाने पर ब्लीचिंग की हकीकत पेश करते हैं। एनसीएफ की श्रेया यादव बताती हैं, “हमने सात द्वीपों पर जिन प्रवाल भित्तियों का दौरा किया उनमें से लगभग 80% ब्लीचिंग से प्रभावित हैं। पानी का तापमान काफी अधिक है, 32 से 34 डिग्री सेल्सियस, जो इस क्षेत्र में आज तक नहीं रहा। ब्लीचिंग से भारी नुकसान हो रहा है, हालाँकि अभी हमारे पास आँकड़े नहीं हैं, क्योंकि अभी रिपोर्टों का विश्लेषण किया जा रहा है।”

केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय के नेशनल सेन्टर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट के शोधार्थी पी. कृष्णन बताते हैं कि मन्नार की खाड़ी में भी 40-50% ब्लीचिंग हो रही है। तमिलनाडु स्थित सुगंती देवदासन मरीन रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक जेके पैटरसन एडवर्ड के अनुसार, खाड़ी में ब्लीचिंग से प्रभावित प्रवाल भित्तियों की संख्या लगभग 60 प्रतिशत है। पैटरसन बताते हैं, “तापमान बढ़कर लगातार 33.6 डिग्री सेल्सियस के आस-पास बना हुआ है, जिसके चलते इस वर्ष 10-12 फीसदी प्रवाल भित्ति समाप्त हो जाएँगे। गत मई में दक्षिण भारत में चक्रवातीय गतिविधियों से थोड़ी राहत मिली थी, लेकिन तापमान में बढ़ोत्तरी फिर शुरू हो गई।”अडंमान और निकोबार के प्रवाल इस साल बड़े नुकसान से बचे हुए हैं।

दुनिया भर में 38 से अधिक देश इस आपदा की चपेट में हैं। अच्छी खबर यह है कि वर्तमान एल-नीनो खात्मे की ओर है। लेकिन बुरी खबर यह है कि एल-नीनो के कारण वर्ष 2014 में शुरू हुई ब्लीचिंग का असर घटने के आसार नहीं हैं। नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) की कोरल ब्लीचिंग की रिपोर्ट के अनुसार, हिन्द महासागर के पूर्वी हिस्सों और प्रशांत व कैरेबिआई सागर के पश्चिम में ब्लीचिंग जनवरी, 2017 तक जारी रहेगी।

वर्तमान में जारी प्रवाल भित्ति की ब्लीचिंग वर्ष 2014 के मध्य में हवाई से शुरू हुई। इसने कम-से-कम 38 देशों और द्वीप समूहों की प्रवाल भित्तियों को खोखला कर दिया है। इस ब्लीचिंग ने दुनिया की विशालतम ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ से लेकर भारत में लक्षद्वीप तक किसी को नहीं बख्शा है। वर्तमान ब्लीचिंग के चलते वैज्ञानिक 15 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में प्रवाल भित्तियों के स्थाई रूप से नष्ट हो जाने को लेकर चिन्तित हैं। इस वर्ष अप्रैल में हुए हवाई सर्वेक्षण में पता चला है कि ग्रेट बैरियर रीफ का 93 फीसदी हिस्सा ब्लीचिंग से प्रभावित है। दुनिया की 50 फीसदी प्रवाल-भित्ति पहले ही समाप्त हो चुकी हैं शेष बचे प्रवालों का वर्तमान ब्लीचिंग के चलते विनाश हो सकता है। कुल 2300 किलोमीटर लम्बे ग्रेट बैरिअर रीफ का उत्तरी हिस्सा इस लहर से सबसे ज्यादा पीड़ित है। सर्वे की गई 522 मूँगा-चट्टानों में से 81 प्रतिशत में भयंकर ब्लीचिंग हो रही है।

पृथ्वी पर समुद्री क्षेत्र का केवल 0.2 से 0.25 फीसदी हिस्सा होने के बावजूद प्रवाल समुद्री जीवन की एक चौथाई 20 लाख प्रजातियों का संरक्षण करते हैं। कई द्वीपीय देशों और उष्ण कटिबंधीय देशों के लिये ये मौसम के प्रभावों से बचाव और राहत का काम करते हैं। प्रवाल संरचनाएँ जेनेटिक संग्रहालय का भी काम करती हैं और इनकी जैव विविधता के कारण इन्हें समुद्री क्षेत्र के वर्षा वन भी कहा जाता है।

समय के साथ बढ़ता क्षय


पिछले कुछ समय से विशेषज्ञ यह मानने लगे हैं कि प्रवाल भित्ति जलवायु परिवर्तन से प्रभावित सबसे संवेदनशील जीवन स्थल हैं। पिछली तीन सर्वाधिक भीषण ब्लीचिंग बीते 20 वर्ष में हुई हैं। पहली, वर्ष 1997-98 में, फिर 2010 में और तीसरी अभी जारी है। ग्रेट बैरियर रीफ तथा प्रशान्त के सुदूर क्षेत्र, जो अब तक ब्लीचिंग से अप्रभावित रहे हैं, के कारण यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि दुनिया से प्रवाल भित्ति का अस्तित्व समाप्त होने में शायद कुछ ही समय शेष है। यूनिवर्सिटी ऑफ क्वींसलैंड के प्रोफेसर टिरोनी रिजवे कहते हैं, “कहा जा रहा है कि वर्ष 1998 में पहली वैश्विक ब्लीचिंग के दौरान दुनिया ने 16 फीसदी मूँगा चट्टानों को खो दिया है। वर्तमान ब्लीचिंग सर्वाधिक मारक प्रतीत हो रही है इसमें प्रवाल को 1998 से अधिक हानि पहुँचाने की क्षमता है।” दुनिया में कुल प्रवाल भित्ति क्षेत्र के 30-40% से अधिक के समाप्त हो जाने के बाद वर्तमान ब्लीचिंग के गहरे दूरगामी परिणाम होने के संभावना है।

कितना बड़ा नुकसान?


Fig-2वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की गणना के अनुसार, विश्व की समस्त प्रवाल भित्तियाँ करीब 800 अरब अमेरिकी डॉलर की पूँजी हैं और धरती पर लगभग 85 करोड़ लोग खाद्य सुरक्षा व आजीविका के लिये प्रवाल-आधारित इकोसिस्टम पर निर्भर हैं। लगभग 100 देश प्रवाल भित्ति में मौजूद जैव विविधता के कारण मछली पालन, पर्यटन और तटीय सुरक्षा का लाभ पा रहे हैं। इन 100 देशों में से एक चौथाई के सकल घरेलू उत्पाद का 15% पर्यटन पर निर्भर है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की वर्ष 2003 की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रवाल भित्ति से दुनिया भर में तीन करोड़ अमेरिकी डॉलर का वार्षिक लाभ कमाया जाता है। इन्हें ब्लीचिंग और दूसरे कारणों से हो रहे नुकसान के चलते मछली उद्योग और पर्यटन को प्रतिवर्ष क्रमशः 57 लाख और 96 लाख अमेरिकी डॉलर का घाटा उठाना पड़ रहा है।

प्रवाल के वैश्विक स्तर पर क्षरण से सर्वाधिक आर्थिक नुकसान दक्षिण-पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओसियाना के द्वीपों को पहुँचने की आशंका है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रवाल भित्तियों के तीन करोड़ अमेरिकी डॉलर के योगदान का 60 प्रतिशत हिंद-प्रशांत कटिबंधीय क्षेत्र से होता है।

प्रतिकूल जलवायु


धरती के तापमान में वृद्धि और उससे जुड़े जलवायु परिवर्तनों को प्रवाल पर मंडरा रहे संकट का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। औद्योगीकरण से पूर्व धरती के सामान्य तापमान की तुलना में 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पहले ही हो चुकी है और सभी पूर्वानुमान इसी दर या इससे भी अधिक तेजी से तापमान बढ़ने की आशंका जता रहे हैं। मानव गतिविधियों से पैदा होने वाली गर्मी का 90 फीसदी से अधिक हिस्सा समुद्र में जाकर एकत्रित होता है। यह कितना बड़ा ऊर्जा संग्रह है, इसका अनुमान इससे लगाइए कि 30 वर्षों में समुद्रों द्वारा झेली गई गर्मी 30 वर्ष तक हरेक सेकण्ड एक परमाणु बम गिराने के बराबर है। पिछले 40 वर्षों के दौरान यह ऊर्जा खपत बहुत बढ़ी है और सर्वाधिक भरोसेमंद जलवायु मॉडल के अनुसार, कम-से-कम आने वाले कुछ दशकों तक यह वृद्धि जारी रहेगी। एनओएए का अनुमान है कि वर्ष 1880 के बाद से उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार पिछले 30 वर्ष से समुद्र का सतही तापमान लगातार बढ़ रहा है और लगभग 70 प्रतिशत उष्ण कटिबंधीय और उप-कटिबंधीय समुद्रों में, जहाँ सर्वाधिक रीफ स्थित हैं, तापमान की वृद्धि दर काफी अधिक है।

प्रवाल का एक खास तरह के शैवाल जूक्सेंथाले के साथ विशेष प्राकृतिक सम्बन्ध है, जिससे दोनों का फायदा होता है। प्रवाल भित्ति इस शैवाल को आवास और कुछ पोषक तत्व उपलब्ध कराती हैं और ये फोटोसिंथेटिक शैवाल बदले में चट्टान बनने तथा अन्य गतिविधियों के लिये आवश्यक पोषण उपलब्ध कराती है। कोरल की लगभग 90 फीसदी ऊर्जा जरूरत इसी व्यवस्था से आती है। कोरल के कोनों और किनारों पर मौजूद शैवाल प्रवाल भित्ति को एक बेहतरीन और सुन्दर आकार देती हैं।

तापमान, रोशनी, विकिरण और पानी में बदलाव से प्रवाल आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। तापमान के दबाव, यहाँ तक कि 1-2 डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी से ही प्रवाल और शैवाल के बीच सन्तुलन गड़बड़ा जाता है और शैवाल अलग होकर बिखरने लगते हैं। इस बिखराव से मूँगे का रंग और चमक फीकी पड़ जाती है और वे बेजान से दिखने लगते हैं।

ब्लीचिंग से कोरल तुरन्त निर्जीव नहीं होते। पिछली सदी में कई जगहों पर छोटे स्तर और थोड़े समय के लिये मूंगे का क्षरण हुआ है और आमतौर पर तापमान के सामान्य होने पर इसे सुधरने का समय मिल जाता है। रिजवेल कहते हैं, “यदि स्थिति जल्दी सामान्य हो जाए, तो कोरल में अपने आपको संभालने की कुदरती क्षमता होती है। इस प्रक्रिया में इनके कुछ-कुछ हिस्सों पर चिपके शैवाल पुनर्जीवित होकर इन पर छा जाते हैं।”

बीते कुछ समय से ब्लीचिंग की घटनाएँ दुनिया भर की चिन्ता का कारण बन गई हैं, क्योंकि तापमान में बढ़ोत्तरी कई-कई महीनों तक जारी रही है और ये बेहद खतरनाक हैं। एनओएए के चित्रों से पता चलता है कि इस साल भूमध्य रेखा के आस-पास अप्रैल और मई के दौरान तापमान सामान्य से काफी अधिक था। इसी क्षेत्र में प्रवाल का क्षय सबसे अधिक दिखा है। ब्लीचिंग से प्रवाल कमजोर पड़ जाते हैं और इनमें इनके अस्तित्व को बचाए रखने के लिये ऊर्जा भी नहीं बचती। इस कारण लगातार ब्लीचिंग से इनमें खुद ही सुधार होने की संभावनाएँ कम बचती है।

एक और समस्या यह है कि मृत शिलाओं पर अक्सर ऐसे अनुपयोगी शैवाल चिपक जाते हैं, जो समुद्री-जीवन के लिये हानिकारक हैं। कैलिफोर्निया रॉकी रीफ्स और दो उष्ण कटिबंधीय प्रवाल भित्तियों के संरक्षण में जुटी एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था रीफ चेक फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार, हांगकांग के मृत प्रवाल लाल शैवाल की गिरफ्त में हैं।

प्रवाल भित्ति मृत होने के बाद भी पुनर्जीवित हो सकती है, लेकिन इसमें बहुत समय लगता है, जो कुछ वर्षों से लेकर दशकों तक हो सकता है। सेंट्रल कैरेबियन मरीन इंस्टीट्यूट की अध्यक्ष कैरी मंफ्रिनो कोरल रिकवरी का उदाहरण देती हैं। वे बताती हैं, “वर्ष 1998 में केमन आइलैंड की ब्लीचिंग के बाद हमने पाया कि तापमान बढ़ने से कोरल तुरन्त समाप्त नहीं हुए बल्कि एक सफेद प्लेग का रोग कोरल पर छाया और चार वर्ष के दौरान 40 फीसदी से अधिक कोरल समाप्त हो गए। वर्ष 2009 तक कुछ नहीं हुआ और फिर अचानक हमें रीफ सिस्टम और उसके सभी प्रजातियों में तेजी से पुनर्जीवन दिखाई दिया।” मंफ्रिनो आगे बताती हैं कि समुद्री जल क्षेत्र संरक्षित होने के बावजूद ब्लीचिंग से बचाव संभव नहीं है, हालाँकि, इससे रिकवरी में जरूर मदद मिलती है।

क्षय होने के बाद प्रवाल भित्ति का पुनर्जीवित होना सम्भव है, लेकिन लम्बे समय तक इसके बचे रहने की गारंटी नहीं है। लगातार ब्लीचिंग की चपेट में आने की आशंका के साथ-साथ पुनर्जीवित होने और भित्ति निर्माण की क्षमता भी घट में जाती है। इसके अलावा, क्षय हो चुके प्रवाल के रोगों से ग्रसित होने और अन्य जीवों द्वारा खाए जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। वास्तव में, कैरेबियन क्षेत्र में वर्ष 2005 की भयंकर ब्लीचिंग के बाद प्रवाल का क्षरण ब्लीचिंग के बजाय रोगों की वजह से हुआ था। रिजवेल कहते हैं, “कोरल के एक बार अपना रंग-रूप वापिस पा लेने के बाद भी यह जरूरी नहीं है कि वे पूरी तरह स्वस्थ भी हों।” यानी प्रवाल का खतरा जितना दिखता है उससे भी कहीं अधिक हो सकता है।

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