लघुता को उधेड़ते महान के जंगल

अमेलिया गांव के ही हरदयाल आदिवासी कहते हैं कि आप जंगल को कुछ नहीं समझते होंगे पर हमारे लिए यह हमारे शरीर का आधा भाग है। यदि पैर में कांटा गड़ जाता है तो हमें कितना दर्द होता है फिर यहां तो शरीर के आधे हिस्से को अलग करने की बात है। तो हम जिएंगे कैसे? राधाकली कहती हैं कि यह जंगल तो हमारा साहूकार है। कभी गए तो तेंदूपत्ता तोड़ लिया, बेचा और तुरंत पैसा बन गया। बोनस अलग। चार, चिरौंजी बेच ली। कुक्कुट (कुकुरमुत्ता) की सब्जी खाते हैं और उसे बेच भी लेते हैं। महुआ की बात ही अलग है, हमारे जीवन में खुश्बू उसी से है और इसी जंगल को हमसे छीना जा रहा है। इन दिनों एशिया के सबसे बड़े और पुराने जंगलों की सूची में शुमार सिंगरौली जिले के महान के जंगलों में विकास की आग लगी हुई है। महान नदी के किनारे बसे इन जंगलों पर 62 गाँवों के लोग निर्भर हैं तथा यहां वन सम्पदा के साथ 102 जंतु प्रजातियाँ मौजूद हैं। यहां गिद्धों की कुछ दुर्लभ प्रजातियों की पनाहगाह भी है। इसी जंगल के नीचे काले सोने का भी अपार भंडार है और जिस पर अब कंपनियों की नजर लगी है। यहां पर लंदन स्टाक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनी एस्सार के 1200 मेगावाट और हिंडाल्को के 650 मेगावाट के प्रस्तावित विद्युत संयत्रों के लिए कोयले की ज़रूरतों को पूरी करने के लिए संयुक्त रूप से सन् 2006 में इस कोल ब्लाक का आवंटन हुआ। सन् 2009 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने इस कोयला ब्लाक को पर्यावरणीय स्वीकृति दी, लेकिन बाद में केंद्रीय आयोजना एवं विकास संस्थान ने वर्ष 2010 में इसे निषिद्ध जोन (नो-गो) के रूप में चिन्हित किया। इसी मंत्रालय की ही एक और सलाहकार समिति (एएफसी) ने चार बार समीक्षा करने के बाद सन् 2011 में परियोजना की मंजूरी के खिलाफ मत दिया। इस पर तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इसकी मंजूरी को लेकर यह कहते हुए मना किया कि “इस कोयला ब्लाक में खनन की अनुमति दिए जाने से अन्य खंडों में भी खनन की इजाज़त मिलने के रास्ते खुल जाएंगे। यह मात्रा और गुणवत्ता दोनों के लिहाज से बेहद समृद्ध वनाच्छादित क्षेत्र को तहस नहस कर देगा।”

लेकिन इसी कोल ब्लाक आवंटन के लिए मध्य प्रदेश सरकार भी हाथ-पैर मार रही थी और प्रधानमंत्री कार्यालय भी दवाब बना रहा था। विदेशी कंपनियों के लिए स्थानीय निवासियों की आजीविका, सघन वन क्षेत्र व जैव विविधता को किनारे करते हुए लूट की छूट दिए जाने के इस सियासी गठजोड़ के चलते अंततः पर्यावरण व वन मंत्रालय को 18 अक्टूबर 2012 को इस ब्लाक के लिए पहले चरण की स्वीकृति देना पड़ी। पर अभी दूसरे चरण की स्वीकृति बाकी है और जिसके लिए 36 शर्तें जोड़ी गई हैं। महान कोल लिमिटेड को यह कोल ब्लाक आवंटित करने के मायने हैं 14 गाँवों के 14,990 लोग जिनमें 5,650 आदिवासी हैं, की जीविका खत्म करना। साथ ही आदिवासियों और स्थानीय निवासियों के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक सरोकारों को सूली पर टांगना तथा 5 लाख 12 हजार 780 पेड़ों की बलि, जिनमें से सबसे ज्यादा महुए के पेड़ हैं, रिहंद बांध के जलभराव क्षेत्र में कमी लाना और यह भी तब जबकि इस कोल ब्लाक में केवल 14 वर्षों के लिए ही कोयला उपलब्ध है। इसके अलावा आवंटन के लिए प्रतीक्षारत छत्रसाल और अन्य कोल ब्लॉक के लिए दरवाज़े खोल देना।

अमेलिया गांव के ही हरदयाल आदिवासी कहते हैं कि आप जंगल को कुछ नहीं समझते होंगे पर हमारे लिए यह हमारे शरीर का आधा भाग है। यदि पैर में कांटा गड़ जाता है तो हमें कितना दर्द होता है फिर यहां तो शरीर के आधे हिस्से को अलग करने की बात है। तो हम जिएंगे कैसे? राधाकली कहती हैं कि यह जंगल तो हमारा साहूकार है। कभी गए तो तेंदूपत्ता तोड़ लिया, बेचा और तुरंत पैसा बन गया। बोनस अलग। चार, चिरौंजी बेच ली। कुक्कुट (कुकुरमुत्ता) की सब्जी खाते हैं और उसे बेच भी लेते हैं। महुआ की बात ही अलग है, हमारे जीवन में खुश्बू उसी से है और इसी जंगल को हमसे छीना जा रहा है। जंगल से इनके अभिन्न हिस्से को समझना है तो हमें इनके संघर्ष के झंडे को देखना होगा। इनके झंडे में हरा रंग हरियाली का, महुए का पेड़ तथा तेंदु पत्ता उससे जुड़ी जीविका पर निर्भरता का, तथा मोर पंख जंगली जानवरों के प्रति इनके स्नेह का प्रतीक है। झंडे में एक-दूसरे का हाथ पकड़े लोग जंगल पर अपने अधिकारों के लिए अपनी संकल्पबद्धता को दर्शाते हैं।

इस पूरे इलाके में सरकारी मशीनरी कंपनी के साथ कदमताल करती नजर आती है। इसके कई उदाहरण हैं। 15 अगस्त 2012 को जिला कलेक्टर को एक विशेष ग्रामसभा के लिए आवेदन दिया। लेकिन यह ग्रामसभा सात माह बाद 6 मार्च को हो पाई। इस ग्रामसभा में केवल 184 लोग उपस्थित थे लेकिन जब सूचना के अधिकार से इस ग्रामसभा के प्रस्ताव की प्रति निकाली गई तो इसमें 1125 लोगों के हस्ताक्षर पाए गए। इनमें मृतकों के हस्ताक्षर भी शामिल थे। इस बात के वीडियो प्रमाण हैं कि इस ग्रामसभा के नोडल अधिकारी ग्रामसभा की प्रक्रिया के दौरान 20 बार कंपनी के दफ्तर में गए थे। आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय के खात्मे के लिए लाए गए वन अधिकार कानून के अनुसार ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य है पर इन क्षेत्रों में वनाधिकार कानून ही लागू नहीं है। कानून के तहत सामुदायिक अधिकार की मांग जोर पकड़ते ही सरकारी अधिकारियों ने आकर वनाधिकार समिति ही बदल दी। इस मामले को लेकर जब इन स्थानीय लोगों ने केन्द्रीय जनजातीय मंत्री वी. किशोर देव से मुलाकात की, तो उन्होंने कहा कि यह तो कानून का उल्लंघन है। उन्होंने मध्य प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री को जून 2013 में एक पत्र लिखकर यह कहा कि “मोटे तौर पर सिंगरौली में बड़ी मात्रा में वन भूमि को गैर वन उद्देश्यों के लिए परिवर्तित किया गया है, लेकिन एक भी जगह सामुदायिक वन अधिकार प्रदान नहीं किए गए हैं। स्थानीय लोगों की शिकायतें होने के बावजूद भी महान कोल लिमिटेड को वन तथा खनन की स्वीकृति कैसे दे दी गई? “इस पर आज तक प्रदेश सरकार ने कोई भी जवाब नहीं दिया है और जब स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर इस सवाल का जवाब मांगने समुदाय राज्यपाल के पास गया तो उन्होंने ज्ञापन इनके मुंह पर फेंक दिया। सोचिए आज़ादी पर्व के लिए इमारतों पर हुई रोशनी क्या ऐसी आज़ादी की गवाही देती है?

इस गांव की ग्रामसभा द्वारा दो बार यह प्रस्ताव पारित करने के बाद कि हमें यह परियोजना नहीं चाहिए, अनुमति देना समझ से परे है? फिर यह तो आदिम मानव बैगा का घर है। यह घटनाक्रम संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के प्रति सरकार की विफलता की द्योतक है। हाल ही में कोयला बिजली क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन के कारण हो रही मौतों और रोग पर आई पहली रिपोर्ट का अनुमान है कि साल 2011-12 में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से उत्सर्जन के कारण भारत में एक लाख लोगों की असमय मृत्यु हो गई है। अध्ययन से पता चलता है कि कोयला आधारित बिजली स्टेशनों से उत्सर्जन के कारण अस्थमा, श्वसन समस्या और हृदय रोग के हजारों मामले सामने आए हैं। ऐसे में इस परियोजना को हरी झंडी देना कहां तक उचित है? भारत को अपनी उर्जा उत्पादन प्रणाली और विधियों में व्यापक बदलाव करने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय पवन ऊर्जा परिषद के सचिव जनरल स्टीव स्वेयर कहते हैं, “विश्व में पवन उर्जा के लिहाज से भारत बहुत बड़ी संभावना वाला देश है।’’ ऐसे में सरकार कोयले से पैदा होने वाली बिजली के लिए हाथ धोकर क्यों पीछे पड़ी है?

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