लकड़ी का टाल नहीं है जंगल

भीमशंकर वनों में निवास करने वाला यह समाज न्यूनतम उपभोग वाली ऐसी जीवनशैली का पालन करता है, जिसमें सब कुछ बहुत मितव्यय से इस्तेमाल किया जाता है। उनके घर पत्थर और मिट्टी के बने होते हैं और इन लोगों के पास कुछ बहुत आवश्यक वस्तुएं ही होती हैं। वे ऐसे आत्मीय समुदायों में रहते हैं जहां आपसी सहयोग ही जीवन जीने का तरीका है। वे एक साथ योजना बनाते हैं और फिर सब मिलकर एक साथ काम करते हैं।

महाराष्ट्र के पुणे जिले में सुदूर पश्चिम घाट के अत्यधिक वर्षा वाले पहाड़ी ढलान में अम्बेगांव विकास खंड में स्थित है भीमशंकर वन। यह एक अनछुआ, बारहमासी, चार तलीय वन है जहां बादल भी अठखेलियां करते नजर आते हैं। यहां की उपजाऊ मिट्टी उथली है। उसके नीचे कठोर चट्टानें। यहां भूगर्भ जल है ही नहीं। इसलिए यदि एक बार ये वन नष्ट हो गए तो उनका दोबारा फलना-फूलना बहुत कठिन है। यहां पर चलने वाली तेज हवाओं और भारी भूक्षरण को ये वन संभाल लेते हैं। ऊंचे पेड़, छोटे पेड़, घनी झाड़ियां, घास आदि मिलकर वर्षा के जल को अपने में समाहित कर यहां की कीमती मिट्टी को भी बहने से बचाते हैं।

महादेव कोली समाज यहां सदियों से निवास कर रहा है। उसने ऐसी जीवनशैली व दर्शन को अपना लिया है, जो कि यहां के पर्यावरण के अनुकूल है। लोग अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए वनों पर ही निर्भर हैं। इनका स्वयं के लिए उपयोग करते हुए वे इस बात के लिए सचेत रहते हैं कि इससे इन वनों को चोट न पहुंचे। उनका आपस में गुथा हुआ सामुदायिक जीवन सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित है और यही उनकी शक्ति भी है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए भीमशंकर के लोग भोजन, चारा, ईंधन और रेशों को जमा करते हैं। उनके भोजन में फूल, कलियां, पत्तियां, फल, कंद/जड़ें, कुकुरमुत्ते आदि शामिल हैं। वे अपने पोषण और वन्यजीवों की संख्या को नियंत्रण में रखने के लिए शिकार भी करते हैं। शिकार उनके अपने अस्त्रों से किया जाता है जिसमें शिकार और शिकारी बराबरी से जोखिम में रहते हैं। वे अतिरिक्त आहार हेतु मछली और केकड़े भी पकड़ते हैं।

सरकार ने सन् 1985 में इस क्षेत्र में वन्य जीवन अभ्यारण्य की स्थापना की घोषणा की थी। सदियों से यहां रह रहे इन लोगों से इस मामले में सलाह मशविरा तक नहीं किया गया। उन्होंने दूसरों के द्वारा जाना कि नए घोषित अभ्यारण्य क्षेत्र के भीतर आने वाले आठ गाँवों को खाली करवाया जाएगा। तब उन्होंने उस कानून की वैधता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए जो कि यहां के निवासियों के अधिकारों का न तो सम्मान करता है और न उन्हें विश्वास में ही लेता है।

सरकार को कुछ अकल आई। शीघ्र ही सरकार के साथ समझौता वार्ता प्रारंभ हो गई। लोगों को लगा कि उन्हें इस क्षेत्र पर अपना स्वामित्व स्थापित करना होगा। उन्होंने इस इलाके में वर्षों से काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन शाश्वत ट्रस्ट के सहयोग से वनस्पति संबंधी स्थानीय ज्ञान और वन व वनवासियों की परस्पर निर्भरता को कागज पर उतारना शुरू कर दिया। मन से तो वे इन सब बातों को जानते ही थे, पर सरकार तो कागज की भाषा जानती है न। वे अब वन उत्पाद, किस-किस उत्पाद का प्रयोग होता है, कब और क्यों होता है और खेती की पद्धतियों को लिख रहे हैं। वे महादेव कोली समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक पद्धतियों को भी सामने ला रहे हैं। यही तो उनके आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व की रीढ़ है।

इसी बीच पुणे शहर के कुछ वैज्ञानिक ववन अधिकारियों ने एकजुट होकर ‘जन वन शोध संस्थान’ स्थापित किया। इस शोध संस्थान का नेतृत्व स्थानीय आदिवासियों के हाथ में है। हर गांव में एक अध्ययन समूह बनाया गया है। यहां के स्थानीय विशिष्ट पौधों के लिए नर्सरी प्रारंभ करने की योजना भी हाथ में ली गई है। यह शोध संस्थान अन्य आदिवासी क्षेत्रों के साथ-साथ शहरों में भी जनचेतना कार्यक्रम आयोजित करता है।

भीमशंकर वनों में निवास करने वाला यह समाज न्यूनतम उपभोग वाली ऐसी जीवनशैली का पालन करता है, जिसमें सब कुछ बहुत मितव्यय से इस्तेमाल किया जाता है। उनके घर पत्थर और मिट्टी के बने होते हैं और इन लोगों के पास कुछ बहुत आवश्यक वस्तुएं ही होती हैं। वे ऐसे आत्मीय समुदायों में रहते हैं जहां आपसी सहयोग ही जीवन जीने का तरीका है। वे एक साथ योजना बनाते हैं और फिर सब मिलकर एक साथ काम करते हैं। वे झूम खेती की जगह मिलकर चुनते हैं, बुआई करते तथा धान रोपते हैं और अन्य मोटे अनाज लगाते हैं। जंगली जानवरों से अपनी फसलों की रक्षा भी एक साथ मिलकर करते हैं। अधिकांश निर्णय समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और सभी मिलकर जिम्मेदारियाँ वहन करते हैं। यही वह जीवनशैली है, जिसने उन्हें वर्षों से इन जंगलों में आबाद रखा है। वन में आप लापरवाह नहीं हो सकते, अकेले नहीं जा सकते या अनावश्यक जोखिम नहीं ले सकते।

अंग्रेजों के आने के पहले ये वन यहीं के लोगों के हाथों में थे। अंग्रेजों ने इन्हें आदिवासी कहा और तब से हम भी इन्हें इसी पहचान से पहचान रहे हैं। ये समुदाय इन वनों की देख रेख करते थे और अपने अस्तित्व के लिए इनका प्रयोग करते थे। औपनिवेशिक काल में वन राजकीय संपत्ति बन गए और इन्हें लकड़ी के डिपो की तरह प्रयोग में लाया जाने लगा। जहाज और रेल निर्माण तथा रेल विस्तार के लिए मजबूत पेड़ों को काटा जाने लगा। दो विश्वयुद्धों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ।

उनकी संस्कृति का केंद्र बिंदु हैं ‘देवराई’। देवराई यानी ओरण। देव-देवी के सम्मान में छोड़ा गया वन क्षेत्र, पवित्र उपवन। भीमशंकर के आसपास के क्षेत्रों में कई देवराइयां हैं। ये देवताओं के नाम कर दिए गए वन हैं और इनका बहुत अच्छे से संरक्षण किया जाता है। हरेक देवराई में किसी विशिष्ट किस्म के पौधों को रखा जाता है। इसलिए हरेक देवराई के लिए एक अलग कानून और नियमावली बनाई गई है। इनका कड़ाई से पालन होता है। आज की वैज्ञानिक भाषा में कहें तो ये देवराइयां उस क्षेत्र के ‘जीन संग्रहण केंद्र’ भी हैं, जहां से पशुओं और पक्षियों द्वारा बीज फैलाए जाते हैं। यहां लोग जंगल को अपनी मां मानते हैं और कहते हैं कि उनका जीवन मां के दूध पर निर्भर है न कि उसके खून पर। आदिवासी बाघ को अपना देवता मानते हैं। वे भले ही इसके लिए ‘शीर्ष प्रजाति’ जैसे आधुनिक शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हों लेकिन वे अपने पूरे वन क्षेत्र को नियंत्रण में रखने के लिए बाघ जैसी प्रजाति का महत्व किसी भी जीव वैज्ञानिक से कम नहीं समझते हैं। भीमशंकर में बाघ देवता को समर्पित एक मंदिर भी है।

अंग्रेजों के आने के पहले ये वन यहीं के लोगों के हाथों में थे। अंग्रेजों ने इन्हें आदिवासी कहा और तब से हम भी इन्हें इसी पहचान से पहचान रहे हैं। ये समुदाय इन वनों की देख रेख करते थे और अपने अस्तित्व के लिए इनका प्रयोग करते थे। औपनिवेशिक काल में वन राजकीय संपत्ति बन गए और इन्हें लकड़ी के डिपो की तरह प्रयोग में लाया जाने लगा। जहाज और रेल निर्माण तथा रेल विस्तार के लिए मजबूत पेड़ों को काटा जाने लगा। दो विश्वयुद्धों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ। ठीक इसी तरह बांध, खदान, कारखानों, शहरों, राजमार्गों जैसे कामों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ। अनगिनत गैर इमारती पेड़ों को भी कोयले और प्लायवुड के लिए काटकर विशाल और बढ़ते हुए शहरों में भेज दिया गया।

पेड़ काटने से तो वन गए ही, नए पेड़ लगाने के अभियान ने भी वनों को समाप्त किया। विशाल व्यावसायिक रोपण के लिए प्राकृतिक वनों को नष्ट कर दिया गया। इससे वनों का संतुलन ही बिगड़ गया। यहां बसने वाले लोगों के साथ ही साथ वन्यजीवों का जीवन भी प्रभावित हुआ। जंगल अस्थिर और जोखिम भरे हो गए। हालांकि वन तो कृषि युग के आरंभ से ही सिकुड़ते जा रहे हैं, लेकिन पिछली दो शताब्दियों में इस सिकुड़न की रफ्तार बहुत तेजी से बढ़ी है।

अब तो कम से कम हम यह समझ लें, जान लें कि इन वनों की भूमिका हमारे जीवन के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण है। वन केवल लकड़ी का टाल नहीं है भीमशंकर के लोग बता रहे हैं यह बात। हम कब सुनेंगे उनकी आवाज!

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