लक्ष्य पाने को तय करनी है लम्बी डगर

21 Nov 2018
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जागरुकता और सुविधाओं का अभाव
जागरुकता और सुविधाओं का अभाव

स्वस्थ व शिक्षित माताएँ और बच्चे किसी भी देश की रीढ़ होते हैं, लेकिन शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत के सन्दर्भ में कुछ वर्ष पहले तक ये आंकड़े नकारात्मक थे। हमारी हालत विश्व के अन्य देशों के मुकाबले बेहद खराब थी। प्रसव के दौरान अच्छी खासी तादाद में माँ और बच्चों की जानें चली जाती हैं, लेकिन वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की जो रिपोर्ट आई है वो हमें गौरवान्वित होने का अवसर देती है।

संयुक्त राष्ट्र की हालिया रोपोर्ट बयां करती हैं कि साल 2017 में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का आंकड़ा पहली बार 10 लाख से कम रहा। भारत में वर्ष 2017 में 8,02,000 बच्चों की मौत हुई और यह आंकड़ा 5 वर्ष में सबसे कम है। शिशु मृत्यु दर अनुमान पर यह दावा संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी इंटर एजेंसी ग्रुप फॉर चाइल्ड मॉर्टेलिटी (यूएनआईजीएमई) ने आपनी ताजा रिपोर्ट में किया है।

यूएनआईजीएमई की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में वर्ष 2017 में 6,05,000 नवजात शिशुओं की मौत दर्ज की गई। जबकि 5-14 साल आयु वर्ग के 1,52,000 बच्चों की मृत्यु हुई। हालांकि ये आंकड़ा अभी भी कम नहीं है और हम अपने लक्ष्य से कोसों दूर हैं। कुछ आंकड़े तो अभी भी चौंकाने वाले हैं और इन पर कैसे काबू पाया जाए, यह आज भी सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन जरा अलग नजरिए से सोचा जाए, तो 1990 में भारत की शिशु मृत्यु दर प्रति 1000 पर 129 थी जो बहुत बड़ी संख्या थी लेकिन साल 2005 में ये घटकर 58 हो गई, जबकि 2017 में ये प्रति 1000 पर मात्र 39 रह गई है, यानी औसतन हर दो मिनट में तीन नवजातों की मौत हो रही है।

नवजातों की मृत्यु के कारणों का जायजा लें तो इसके पीछे साफ पानी, स्वच्छता, उचित पोषाहार या बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है, अगर क्षेत्रवार रिपोर्ट का आकलन करें, तो केरल और तमिलनाडु में शिशु मृत्यु दर सबसे कम है, जबकि मध्य प्रदेश, असम और उत्तर प्रदेश में ज्यादा बच्चों की मौत होती है, यानि कही-न-कहीं इसमें शिक्षा की भी जरूरी भूमिका है। जिन राज्यों में माताएँ शिक्षित व समझदार हैं, वहाँ शिशु मृत्यु के आंकड़ों में कमी आई है।

हालांकि दूसरी ओर आज भी बालिकाओं की शिक्षा को लेकर कई जगहों पर उदासीनता देखने को मिल रही है। यही कारण है कि अभी भी 1000 बच्चों पर 39 मौतों का आंकड़ा बना हुआ है। जिस इलाके में शिक्षा का स्तर ज्यादा है और जहाँ आधारभूत स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर हैं, वहाँ शिशु मृत्यु दर कम हो रही है।

इस दिशा में किये गये कई शोध बताते हैं कि अगर माँ 12वीं पास है, तो बच्चे की मौत की आशंका 2.7 गुना तक कम हो जाती है, सम्भव है कि आने वाले वर्षों में सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलें, जिसका व्यापक प्रचार और प्रसार हो रहा है। यही वजह है कि तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में मृत्यु दर कम है। साथ ही इन राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएँ भी बेहतर हैं। हालांकि सरकार को कम प्रदर्शन करने वाले राज्यों पर अपना ध्यान पूरी तरह से केन्द्रित करना होगा।

भारत में हर साल ढाई करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं, पहले की अपेक्षा अब शिशु मृत्यु के मामलों में कमी आई है, यही नहीं लड़के और लड़कियों की मौत का अन्तर भी काफी हद तक कम हुआ है। जहाँ पहले लड़कों के मुकाबले 10 प्रतिशत ज्यादा लड़कियों की मौत होती थी, वहीं साल 2017 में लड़कों के मुकाबले 2.5 प्रतिशत ज्यादा लड़कियों की मौत हुई। सबसे अच्छी बात यह है कि पिछले 5 वर्षों में लिंगानुपात में आया सुधार और बालिकाओं के जन्म और जीवन प्रत्याशा दर में वृद्धि हुई है।

ये सारे आँकड़े भारत के लिये सकारात्मक संकेत दे रहे हैं क्योंकि शिशु मृत्यु दर किसी भी देश की सेहत को दर्शाती है, मृत्यु दर जितनी कम होगी, देश उतना अधिक सेहतमंद कहलाएगा। दरअसल, शिशु मृत्यु दर पर काबू पाने के लिये भारत में कई योजनाएँ लागू की गईं, जिनका असर धीरे-धीरे अब देखने को मिल रहा है।

इसके साथ ही ‘पोषण’ अभियान के तहत जरूरी पोषक तत्व मुहैया कराने, देश को 2019 तक खुले में शौच से मुक्त कराने और स्वच्छ भारत जैसे अभियानों से भी फर्क देखने को मिल रहा है। अगर हम स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रयासों और रणनीति की बात करें, तो टीकाकरण और मिशन इन्द्रधनुष योजना का इसमें बहुत बड़ा हाथ है, भारत विभिन्न सरकार की पहलों के माध्यम से शिशु मृत्यु के कारणों से लड़ने की दिशा में अच्छी प्रगति कर रहा है।

प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षा अभियान के भी सकारात्मक नतीजे देखने को मिले हैं, जिसकी वजह से सिर्फ माँ ही नहीं शिशुओं की भी जीवन प्रत्याशा बढ़ी है। अस्पतालों में प्रसव को प्रोत्साहन, नवजात शिशुओं की देखभाल के लिये सुविधाओं का विकास और टीकाकरण बेहतर होने से शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। वहीं सरकार ने हाल ही में होम बेस्ड यंग चाइल्ड प्रोग्राम शुरू किया है, जिसके तहत आशा वर्कर हर 3,6,9,12 और 15 महीने पर बच्चे के घर जाएँगी, वो बच्चों को सही पोषण, उनकी सेहत और विकास का ख्याल रखने में मदद करेंगी। निःसन्देह इस पहल का लाभ भी देखने को मिलेगा साथ ही आयुष्मान भारत योजना भी इसमें मील का पत्थर साबित होगा।

वहीं अगर बालिकाओं के जन्म की बात करें तो सरकारी योजनाओं द्वारा बच्चियों के पैदा होने पर कई जगह प्रोत्साहन राशि, मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएँ और शिक्षा दी जाती है, इन सब चीजों से लड़कों के मुकाबले लड़कियों की मृत्यु दर चार गुना घटी है, जो अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से 2030 के सतत विकास लक्ष्य- 3 के तहत तय बाल मृत्यु दर लक्ष्य को हासिल करने में हम आज भी कोसों दूर हैं, जिसको सिर्फ सरकारी योजनाओं के जरिये ही नहीं, बल्कि शिक्षा, समाज में जागरुकता और स्वच्छ्ता के माध्यम से भी रोका जा सकता है। निःसन्देह हमने बड़ी उपलब्धि हासिल की है, लेकिन डगर अब भी आसान नहीं क्योंकि सफर अभी भी लम्बा है और कठिन भी।


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