माहवारी पर खुलकर बात करती हैं छात्राएं

13 Nov 2019
0 mins read
माहवारी पर खुलकर बात करती हैं छात्राएं
माहवारी पर खुलकर बात करती हैं छात्राएं

हम भले ही आधुनिक समाज की बात करते हों, नई नई तकनीकों के आविष्कार का दंभ भरते हों, चाँद से आगे बढ़ कर मंगल पर बस्तियां बसाने का खाका तैयार करते हों, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि महिलाओं के प्रति आज भी समाज का नजरिया बहुत ही संकुचित है। बराबरी का अधिकार देने की बात तो दूर, उसे अपनी आवाज उठाने तक का मौका नहीं देना चाहते हैं। विशेषकर माहवारी जैसे विषयों पर बात करना आज भी समाज में बुरा माना जाता है। यही कारण है कि भारतीय उपमहाद्वीप में माहवारी से जुड़ी कई गलतफहमियां लंबे अर्से से चली आ रही हैं। जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं को अछूत माना जाना, पूजा घर में प्रवेश नहीं देना, अचार नहीं छूना और स्कूल नहीं जाने देने के साथ साथ नहाने से भी परहेज किया जाना जैसा अंधविश्वास हावी है।

वर्ष 2016 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस द्वारा कराये गये एक स्टडी के अनुसार 10 में से 8 लड़कियों को पीरियड्स के दौरान धार्मिक स्थलों में जाने की मनाही थी। जबकि 10 में से 6 को खाना छूने नहीं दिया जाता था और इस दौरान किचन में प्रवेश वर्जित था। कुछ इलाकों में माहवारी के दौरान लड़कियों को घर के कोने में अलग कमरे में रखा जाता था। इस स्टडी में देशभर के 97 हजार लड़कियों से बातचीत की गई थी। सर्वे में चौंकाने वाली बात यह थी कि बहुत सी लड़कियों को पीरियड्स से जुड़े साफ-सफाई के बारे में जानकारी तक नहीं थी। जबकि माँ या घर की बुजुर्गों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए थी कि वह किशोरावस्था में पहुँचने वाली घर की लड़कियों को माहवारी और अन्य शारीरिक बदलावों के बारे में समय रहते अवगत कराएं। उचित जानकारी के अभाव में पहली बार माहवारी का सामना करने वाली लड़कियां दिग्भ्रमित रहती हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और भी खराब रही है। जहाँ लड़कियों को पानी लाने तालाब पर जाना पडता है, लेकिन हाइजीन के कारण उन्हें बैक्टिरिया और इंफेक्शन होने का खतरा रहता है।

तालाब के पानी स्थिर से उनमें बैक्टीरिया फैलने का डर बना रहता है। सभी शोधों से यह साबित हो चुका है कि माहवारी के दौरान महिलाओं के अशुद्व होने का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं हैं बल्कि यह समाज में सदियों से चली आ रही गलत परंपरा रही है। अक्सर पीरियड्स में महिलाओं के लिये एक असुविधाजनक स्थिति रहती है। इस अवधि में उन्हें कई प्रकार की पीड़ा सहनी पडती है। मासिक धर्म के दौरान महिलाएं उचित खान पान नहीं ले पाती हैं और न ही वह इस मुद्दे पर खुलकर चर्चा कर पाती हैं। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब यह विषय शर्म और झिझक वाला नहीं रहा है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर ही नहीं बल्कि झारखंड जैसे राज्यों की किशोरियां भी अब पीरियड्स में आने वाली समस्याओं पर खुलकर स्कूलों में शिक्षिका और घर में माँ से बातें करने लगी हैं। इसकी एक प्रमुख वजह राज्य सरकार द्वारा चलाये गए जन जागरूकता कार्यक्रम भी है। झारखंड के स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ने वाली और महिला छात्रावास में रहनेवाली छात्राओं को उड़ान कार्यक्रम के माध्यम से शरीर में हो रहे बदलाव को लेकर कई प्रकार की जानकारियां दी जा रही हैं। इस सफल कार्यक्रम के बाद किशोरियां अब बेझिझक अपनी महावारियों और शारीरिक बदलावों के बारे में शिक्षिकाओं से बात करने लगी हैं। इस संबंध में कस्तूरबा गाँधी आवासीय बालिका विद्यालय की शिक्षिका उषा किरण टुडू बताती हैं कि विद्यालय में पढ़ने वाली 11 वर्ष से 14 वर्ष की बालिकाओं को मासिक धर्म के बारे में बताया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि उनके शरीर के अंदर अब बदलाव होने वाला है और पीरियड्स से घबराना नहीं है। विद्यालय में उड़ान कार्यक्रम छठी क्लास से ही शुरू हो जाती है, जो काफी लाभप्रद साबित हो रही है। उन्होंने बताया कि पहले की अपेक्षा अब छात्राओं में जागरूकता बढ़ी है और वह इसपर खुलकर बात करने लगी हैं। इस दौरान वह न सिर्फ स्वछता के प्रति जागरूक हो गईं हैं बल्कि अपने गांवों में भी सहेलियों के साथ विद्यालय की बातें शेयर करने लगी हैं।

एक अन्य शिक्षिका सोहागिनी मरांडी बताती हैं कि कुछ विद्यालयों में सरकार की ओर से सेनिटरी पैड और इंसिनेटर उपलब्ध कराई गई है, जहां सेनिटरी पैड के लिये प्रति छात्रा 5 रूपये देने होते हैं। लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर कई छात्राएं इसका उपयोग नहीं कर पा रही थी। जिसके बाद सरकार की ओर से सभी बालिका विद्यालय और छात्रावास में रहने वाली छात्राओं के लिए मुफ्त सेनिटरी पैड दिया जाने लगा है। हालांकि उपयोग किये गए पैड का उचित निस्तारण अब भी एक बड़ी समस्या। है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि मेरे विद्यालय में चार सौ छात्राएं हैं, जबकि केवल एक इंसिनेटर मशीन है, जिसमें पैड को जलाया जाता है, यह उसकी क्षमता से अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में कई छात्राएं विद्यालय के शौचालय से सटा अस्थाई इंसिनेटर में जाकर पैड को जलाती है। जिससे निकलने वाले धुएं पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक होते है। इन्हें खुले में जलाने का एक कारण बिजली की कमी भी है। क्योंकि इंसिनेटर के लिये बिजली की जरूरत होती है, जबकि बहुत से विद्यालय में बिजली की कमी है, ऐसे में यह मशीन बेकार साबित हो रही है। ज्ञात हो कि आदिवासी बहुल झारखंड में ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकांश महिलाएं सेनिटरी पैड का प्रयोग नहीं करती हैं, वह परंपरानुसार सादा कपडा का प्रयोग करती हैं। लेकिन युवा अब पैड का प्रयोग कर रही है। जेंडर को-आर्डिनेटर मिनी टुडू बताती हैं कि देश में आज प्लास्टिक पर बैन लग चुका है, लेकिन सैनिटरी पैड बनाने वाली कंपनियां अब भी उसमें प्लास्टिक का उपयोग कर रही हैं, जिसको जलाने से प्रदूषण बढ़ता है। उन्होंने बताया कि सरकार को अविलंब इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है और इस दिशा में बेहतर विकल्प तलाश करने की जरूरत है ताकि महिलाओं के बेहतर स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण भी हो सके।

दुमका सदर अस्पताल में कार्यरत महिला परामर्शी सुनीता कुमारी बताती हैं कि पीरियड्स के समय महिलाओं को साफ सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए, इस दौरान उनमें कमजोरी, चिड़चिड़ापन और पेट दर्द होना आम बात है। सुनीता महिलाओं को सलाह देती हैं कि माहवारी के दौरान उन्हें अधिक-से-अधिक पानी का सेवन करना चाहिए, ऐसे में तरबूज का सेवन लाभदायक होता है। जबकि खाने में फल और दूध की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। उन्होंने बताया कि पीरियड्स के दौरान महिलाओं को पालक का साग अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक खाना चाहिए क्योंकि इसमें आयरन की मात्रा अधिक होती हैं जो खून की कमी को पूरा करता है। वहीं आहार विशेषज्ञा निरूपमा सिंह बताती हैं कि मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को केले का भी सेवन अधिक करना चाहिए, इस फल में पोटेशियम और विटामिन बी की उच्च मात्रा होती है। जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थय के लिये आवश्यक है। महिला खानपान पर कम ध्यान देती हैं। इस पीरियड में महिलाओं को अक्सर थकान, मूड खराब रहना और शरीर में ऐंठन आदि की समस्याएं होती रहती हैं। अब महिलाएं स्वच्छ जिंदगी जी रही हैं और जिंदगी जीने के सारे संसाधन उपलब्ध हैं। बहरहाल अब माहवारी पर खुलकर बात करना गलत नहीं बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उचित है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर खामोशी न केवल महिलाओं के लिए घातक है बल्कि स्वस्थ्य समाज के निर्माण में भी बाधा है। जब बच्चियां बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश करती हैं तो यह समय उनके लिए बेहद अहम् होता है। शारीरिक बदलाव का प्रभाव सीधे उनके कोमल मन पर पड़ता है। यही वह समय है जब उनके मन से भ्रांतियों को दूर किये जाने की आवश्यकता होती है। (चरखा फीचर्स)

 

TAGS

sanitation, mensuration, sanitation and mensuration, cleanliness.

 

शैलेन्द्र सिन्हा,लेखक

Posted by
Attachment
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading