मैक्सिको में अहिंसा का पौधा

हमने अपने देश में गांधी जयंती का कार्यक्रम बहुत बड़े पैमाने पर मनाया। दूर-दूर से लोग आए। उसमें लोगों ने कई तरह की बातें कीं, कई नए संकल्प लिए। मांटेरी शहर में कोई 30 लाख लोग रहते हैं। यहां अब अनेक स्कूलों में कक्षा सात, आठ और नौ में नव निर्माण, शांतिमय समाज, नशामुक्त परिवार जैसे विषय पढ़ाए जा रहे हैं।

मैक्सिको के एक औद्योगिक घराने में जन्मे फैरनांडो फैराटा ने तरह-तरह की कंपनियां चलाईं; खूब सारा लाभ कमाया पर न जाने क्यों उन्हें एक तरह का घाटा दिखने लगा उस जीवन में। उन्होंने कुछ कड़े फैसले लिए और अपने जीवन को सेवा की तरफ मोड़ दिया। आज तरह-तरह की हिंसा से घिरे मैक्सिको के एक शहर मोंटेरी में वे बच्चों, लोगों, जेल में कैदियों के बीच प्रेम, करुणा और अहिंसा को आधार बना कर काम कर रहे हैं और जीवन में एक नया आनंददायी लाभ अर्जित कर रहे हैं। गांधीजी से मेरी पहली मुलाकात? आप यह जानकर हैरान होंगे कि सन् 1994 में मैं उनसे मिला था। जी हां, 1994 में यानी आज से कोई 16 बरस पहले! चलिए पहेली छोडूं और आपको सच्ची बात बता दूं। मैं सुदूर देश मैक्सिको का निवासी हूं। सन् 94 में पहली बार यहां आया और मेरी भेंट हुई एक गांधीजन से श्री रामचन्द्र पोट्टीजी से। वे शिक्षक के रूप में केरल के एक छोटे-से शहर में रहते थे। उसी वर्ष फिर सेवाग्राम (वर्धा) में दो और गांधीजनों से मिलना हुआ श्री रवीन्द्र वर्मा और एम. पी. मथाई से। बस इन मित्रों से मिलकर ही मुझे लगा कि मैं गांधीजी से, गांधी विचार से मिला हूं।

गांधीजी के ‘सत्य’ संबंधी विचार जानने के बाद सर्वोदय और स्वदेशी जैसे शब्द मेरे इष्ट बन गए। गांधीजी के माटी और मानुष की सेवा का अर्थ क्या है? मैंने स्वयं को अपने देश मैक्सिको की पृष्ठभूमि में रखा और फिर अपने देश को इस आलोक में समझने का प्रयास किया। देश लौटकर इन विचारों के अनुसार कुछ करने का भी मन बना लिया। मैंने सबसे पहले तो उनकी मदद शुरू की जो सबसे ज्यादा जरूरतमंद थे।

जैसा कि साने गुरूजी ने कहा हैः सबसे पहले उनकी सहायता करो जिनकी कोई नहीं करता। सेवा उसकी करो, जिसे सहारे की जरूरत है। आज हमारे पास समर्पित कार्यकर्ताओं की एक टोली है, जिसकी सहायता से हम कई कार्यक्रम चला रहे हैं। इसमें स्वास्थ्य केन्द्र, सामुदायिक केन्द्र के अलावा मांटेरी की बस्ती में बच्चों के लिए नाश्ते की व्यवस्था भी शामिल है। ये सब काम दिखते तो साधारण से ही हैं पर ये सभी काम हमने अहिंसा के आत्मिक बल से खड़े किए हैं। केवल पैसे, अनुदान या चंदे से नहीं। हमने एक ऐसे संसार की रचना की कोशिश की हैं जहां एक ऐसे सर्वोदय का दर्शन हो सके जिसमें एक साथ टाल्सटॉय, गांधी और रस्किन शामिल हों। आप मैक्सिको की परिस्थिति से परिचित नहीं होंगे। वहां की हालत आपको कुछ पता चले तो आपको भी लगेगा कि हमारा यह काम काफी कठिन था फिर भी हमने इसे जारी रखा।

शांति, अहिंसा का काम एक अशांत बन चुके समाज में कठिन तो है ही पर वहीं तो इसकी जरूरत भी है। सो हम तो लगे रहे। कभी थोड़ा भटक गए तो भी आखिर में सेवा का आनंद बार-बार सच्चाई के रास्ते पर खींच कर ले आता था। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बिना न्याय के कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता, जैसाकि गांधीजी ने कई बार जाहिर भी किया था।

हम सभी जानते हैं कि भोगवाद, उपभोक्तावाद हमारे समाज को, हमारे जीवन को हिंसक रास्ते पर ले जा रहा है। यह हमें अधिक लालची बना रहा है। क्षणिक सुख के भ्रम जाल में भी फंसा रहा है। आज संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो कह सके कि उसके समाज और पड़ोस में हिंसा नहीं होती। मैं भी नहीं।

हमारे देश में हिंसा के स्तर को समझने के लिए एक छोटी-सी जानकारी पर्याप्त होगीः हमारे 40 लाख लोग नशीली दवाओं का सेवन करते हैं। अपहरण, मारकाट, लूटपाट और तरह-तरह का खून खराबा- सब हैं यहां। आज हमारे समाज को युद्ध, लड़ाई करने के लिए किसी बहाने की भी जरूरत नहीं बची है। हम सब तो ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां हिंसा हमारी दिनचर्या का अंग हो गई है। हम कहीं इसके चश्मदीद गवाह बनते हैं तो कहीं इसके शिकार।

रोज घट रही ऐसी घटनाओं के बीच एक बार हम कुछ लोग मैक्सिको की मांटेरी नामक जगह में एकत्र हुए। हमने अहिंसा के लिए काम करने का निर्णय ले लिया। हिंसा रोज देखते थे। इसलिए अहिंसा क्या है यह पता तो था, पर बता नहीं सकते थे। तो हम सबने अहिंसा के पुजारी गांधीजी को समझने, पढ़ने का निर्णय लिया। फिर इस काम में कुछ गैर सरकारी संगठन आगे आए। फिर कुछ विश्वविद्यालय भी जुड़े। हम लोग इस निर्णय पर पहुंचे कि हमें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो हमको गांधीजी की अहिंसा का पाठ पढ़ा सके। तब हम लोगों ने गांधी शांति प्रतिष्ठान के एम.पी. मथाई भाई से सहायता मांगी। मैक्सिको आकर उन्होंने हमें अहिंसा की बात बताई। व्यावहारिक बातें समझाने के लिए शिविर भी लगाए। उन्होंने हमें एक अच्छे अहिंसक संगठन को खड़ा करने का रास्ता भी दिखाया।

जो कुछ नया हमने सीखा, उसे आधार बनाकर हमने एक संगठन का निर्माण भी किया। आज इसे ‘मेजा डी पैज’ यानी ‘टेबल ऑफ पीस’ के नाम से जाना जाता है। यह बाकायदा एक ऐसा मंच है जो अहिंसा के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व को तय करने का है। उसको विपरीत परिस्थितियों में भी निभाते रहने का काम करता है।

आज से तीन साल पहले दो अक्तूबर 2008 को हमने अपने देश में गांधी जयंती का कार्यक्रम बहुत बड़े पैमाने पर मनाया। दूर-दूर से लोग आए। उसमें लोगों ने कई तरह की बातें कीं, कई नए संकल्प लिए। मांटेरी शहर में कोई 30 लाख लोग रहते हैं। यहां अब अनेक स्कूलों में कक्षा सात, आठ और नौ में नव निर्माण, शांतिमय समाज, नशामुक्त परिवार जैसे विषय पढ़ाए जा रहे हैं। दंड पर आधारित न्याय व्यवस्था की ओर भी हम लोगों का ध्यान खींच रहे हैं। हमारा जोर दंड से ज्यादा सुधार और पश्चाताप पर है। हिंसा पर टिका आज का हमारा समाज बदले की दुर्भावना को ही तो बढ़ावा दे रहा है। हम संवाद के माध्यम से इसे धीरे-धीरे क्षमा और करुणा तथा परस्पर समझौते की ओर मोड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं।

‘मेजा डी पैज’ के हम सब लोग बिलकुल सीधे-सादे लोग हैं। जितना समझ में आता है, उतना करते हैं। बस हमारी प्रेरणा है वह गांधी जो आज पूरी दुनिया में फैल गया है। हमारे मन में मस्तिष्क में, उनके विचारों, वचनों की गूंज फैले- यही हमारी कोशिश है। हमारे लिए गांधी ‘आपके’ नहीं हैं। वे हमारे भी हैं उतने ही। हम भी उन पर अपना दावा कर सकते हैं आज!

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