मैला प्रथा से मुक्ति कब

22 Aug 2016
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इस साल मैगसेसे पुरस्कार दो ऐसे व्यक्तियों को मिला है जो जाति प्रथा के ढाँचे, पेशेगत गुलामी को चुनौती दे रहे हैं। इनमें बेजवाड़ा विल्सन मैला प्रथा से मुक्ति के संघर्ष के अग्रणी और अनथक कार्यकर्ता हैं। उनसे एक बातचीत।



.एशिया का नोबेल कहा जाने वाला सम्मानित रमन मैगसेसे पुरस्कार इस बार भारत में दो ऐसे व्यक्तियों को मिला है जो जाति प्रथा के ढाँचे, पेशेगत गुलामी को चुनौती दे रहे हैं। सामाजिक क्षेत्र में अभूतपूर्व काम करने के लिये सफाई कर्मचारी आंदोलन के बेजवाड़ा विल्सन और संस्कृति के क्षेत्र में टीम.एम. कृष्णा को जो कर्नाटक संगीत में हाशिये के समुदायों को प्रवेश दिलाने के लिये सक्रिय है। पचास वर्षीय बेजवाड़ा विल्सन का जन्म कर्नाटक के कोलार गोल्ड माइंस में एक दलित परिवार में हुआ। उनका परिवार अंग्रेजों द्वारा बनायी गई इस खान में मैला ढोने का काम करता था। पिछले 35 सालों से उनके जीवन का एक ही मकसद है, मैला प्रथा का सम्पूर्ण खात्मा। बेजवाड़ा विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक हैं। सहज-सरल व्यक्तित्व वाले विल्सन भीमराव अंबेडकर की विचारधारा में गहरा विश्वास रखते हैं। विल्सन से बातचीत के कुछ अंश।

एशिया का नोबेल कहे जाने वाले रमन मैगसेसे पुरस्कार पाने वाले आप पहले भारतीय दलित हैं, इससे आपकी लड़ाई को कितना बल मिलेगा।

हम पहले भी लड़ रहे थे और आगे भी लड़ाई जारी रखेंगे। रमन मैगसेसे पुरस्कार उन तमाम महिलाओं के प्रयास को सम्मान है, जिन्होंने मानवीय गरिमा के लिये मैले के काम को छोड़ा, अपनी टोकरियां जला दीं। आंध्र प्रदेश की नारायणअम्मा से लेकर हरियाणा की सरोज दी, बिहार की गीता, बंगाल की हीरा बहन, लखनऊ की विमला देवी... जैसी लाखों महिलाओं ने जिस तरह से अपनी टोकरियों को जलाकर मुक्ति की राह अपनायी, उसने आंदोलन को जिंदा रखा। यह पुरस्कार हमारे प्रयासों की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता है। इससे समुदाय और समाज की अपेक्षायें बढ़ेंगी, हमें उस पर खरा उतरना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपको रमन मैगसेसे पुरस्कार मिलने पर बधाई नहीं दी और न ही कोई ट्वीट किया, क्या वजह होगी?

यह तो प्रधानमंत्री मोदी ही बता सकते हैं। लगता है हमारा काम उनकी मन की बात के खांचे में फिट नहीं होता। हमें वह अपना विरोधी स्वर मानते होंगे... (हँसते हुए) हम मैला प्रथा के खात्मे, जाति के खात्मे के लिये काम कर रहे हैं, उनकी तरह इसमें आध्यात्मिक अनुभव नहीं देख रहे। बेहतर हो यह सवाल आप उनसे पूछें।

आप स्वच्छ भारत के खिलाफ हैं, क्यों?

सवाल स्वच्छ भारत के पक्ष या विरोध में होने का नहीं है। मेरा स्पष्ट मानना है कि स्वच्छ भारत से हमारे समुदाय की मुक्ति नहीं, गुलामी और मौतें बढ़ेंगी। बिना सेनिटेशन को आधुनिक किये, बिना पानी और सीवर की व्यवस्था किये शौचालय बनायेंगे तो इससे मैला प्रथा और बढ़ेगी। सीवर-सेप्टिक टैंक में लोग और ज्यादा मरेंगे। मेरा सीधा सवाल है इस देश में बुलेट ट्रेन पर पैसा खर्च करने की क्या जरूरत है, जब रेलवे सबसे बड़े पैमाने पर मैला ढोने का काम करवाता है। आज भी ट्रेनों से इंसानी मल पटरियों पर गिरता है, जिसे हमारा समुदाय साफ करता है। इसे रोकने की तकनीक पर बात करने के बजाय प्रधानमंत्री, रेल मंत्री बुलेट ट्रेन की बात करते हैं। जिस देश में इंसान का मल इंसान ढोने पर मजबूर है, वहाँ विकास के सारे दावे झूठे और बेईमानी वाले हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान पर तमाम कारपोरेट और विश्व बैंक सबने दाँव लगा रखा है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमें कोई विश्वास नहीं है। इसकी वजह है। जब वह 2005 में गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने लिखा था कि मैला प्रथा एक आध्यात्मिक अनुभव है। यानी, इंसान का मल हाथ से उठाकर उठाने वाली लाखों इंसानों पर होने वाले बर्बर जातिगत उत्पीड़न को नरेंद्र मोदी ने आध्यात्मिक अनुभव कहकर महिमामंडित किया। इसका सीधा संदेश था कि मैला उठाने वाला समुदाय इस आध्यात्मिक अनुभव को उठाता रहे और मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और समाज की इसके खात्मे में कोई भूमिका नहीं होगी। मोदी ने मैला प्रथा का बेशर्म समर्थन किया। दरअसल मोदी मैला मुक्ति आंदोलन के खिलाफ हैं। अब हमारे ऊपर थोपा गया, स्वच्छ भारत। साफ-सफाई के दो पहलू हैं। एक साफ करने वाले हैं और दूसरे गंदगी फैलाने वाले हैं। अपनी गंदगी हम कभी साफ नहीं कर सकते, साफ करने वाले की जरूरत पड़ती है। मैं भंगी खुद नहीं बना, आपने मुझे भंगी बनाया क्योंकि आपकी जरूरत है। समाज ने इस समुदाय को दूसरे पेशों, गैर सफाई वाले कामों में जाने से पूरी सोची-समझी रणनीति के तहत रोका। स्कैवेंजिंग आधुनिक छुआछूत है और यह हमारे समाज की क्रूर हकीकत है। समुदाय के बहुत से लोगों ने इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई चलाकर इससे बाहर आना शुरू किया। झाड़ू छोड़ो कलम पकड़ो। यही अंबेडकर का रास्ता है।

इसमें क्या अंतर्विरोध है?

ध्यान से देखिये तो पता चलेगा। दो अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया-चमचमाते हुए झाड़ू को पकड़कर, बटोरी गई पत्तियों के ढेर को साफ करके घोषणा की स्वच्छ भारत अभियान की। सारे मीडिया घरानों में छपने के पहले वह वापस अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जाकर बैठ गये। पिछले तीन हजार सालों से जिन्होंने इस देश को साफ किया, उनकी सेवाओं को न तो प्रधानमंत्री ने पहचाना और न ही इस पर चर्चा हुई कि इस देश को साफ रखने के लिये कितने लोगों का जीवन नरक किया गया। समुदाय का जो हिस्सा आंदोलन करके बाहर आने की कोशिश कर रहा है, उन्हें यह स्वच्छ भारत फिर से झाड़ू ही पकड़ो का संदेश दे रहा है। जिस झाड़ू को मेरी माँ ने इतनी मुश्किल से मुझसे दूर रखा, उसे ही फिर प्रधानमंत्री पकड़ा रहे हैं और इसका महिमामंडन कर रहे हैं। कहने के लिये कहा जाता है कि हम सब साफ कर रहे हैं, लेकिन दोनों अलग-अलग हैं। हमारे समुदाय को यही कहा जा रहा है कि ‘सब’ साफ करना। इसके तहत हमारे समुदाय के बच्चों को स्कूल में टायलेट साफ करने तक के लिये मजबूर किया जा रहा है। मैं कहना चाहता हूँ मोदी जी, हमें साफ-सफाई सिखाने की जरूरत नहीं है। इससे मेरा विचारधारात्मक विरोध है। यह अंबेडकर के रास्ते का अपमान है। आज जरूरत साफ-सफाई को जाति की बेड़ियों से मुक्त करने की है।

स्वच्छ भारत को भी मैला प्रथा के खात्मे से जोड़ा जा रहा है…

स्वच्छ भारत से और भी गहरी असहमतियां हैं। इसका नाम ही स्वच्छ है, जिसमें शुचिता-शुद्धता-पवित्रता का बोध है। यही वर्ण व्यवस्था का आधार है। विडंबना देखिये, यह दावा किया जा रहा है और मुझसे भी पूछा जा रहा है कि स्वच्छ भारत से मैला प्रथा समाप्त हो जायेगी। इससे बड़ा क्रूर मजाक और क्या हो सकता है कि देश में सिर्फ पिछले दो सालों में दो हजार से अधिक लोगों की मौतें सीवर और सेप्टिक टैंक में हुईं। इन मौतों को रोकने का इंतजाम करने के बजाय 2019 तक 12 करोड़ टॉयलेट बनाने की योजना है। मतलब लगभग 12 करोड़ सेप्टिक टैंक बनेंगे। मेरा प्रश्न है कि इन्हें कौन साफ करेगा। इससे हम कितने और लोगों को मारने की तैयारी कर रहे हैं। हमारे लिये यह हिटलर के गैस चैम्बर जैसे साबित हो सकते हैं। बिना सीवेज सिस्टम, अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम, बिना सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट-हमारा देश सिर्फ टॉयलेट बनाने की योजना चला रहा है। क्योंकि इसमें भी कारपोरेट का हित है। मेरी समझ से स्वच्छ भारत सफाई कर्मचारियों के खिलाफ खड़ा अभियान है।

केन्द्र सरकार ने इस बार बजट में मैला प्रथा के उन्मूलन और पुनर्वास के लिये आंवटन में भयानक कटौती की है?

हमने 32 साल लम्बे आंदोलन के बाद दबाव बनाकर केन्द्र से 12वीं पंचवर्षीय योजना में 4,600 करोड़ रुपये आवंटित करवाने में सफलता हासिल की थी। पिछली केन्द्र सरकार ने हर साल 100 से 570 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनायी। लेकिन खर्च बहुत कम किया। लेकिन मोदी सरकार ने तो बेड़ागर्क कर दिया। इस साल के बजट में मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिये महज 10 करोड़ रुपये आवंटित किये। जबकि स्वच्छ भारत अभियान के लिये 11,800 करोड़ रुपये आवंटित किये हैं। इससे साफ होती है सरकार की प्राथमिकता।

सफाई कर्मचारी आंदोलन ने करीब तीन दशक का सफर पूरा किया है। अपनी इस यात्रा को कैसे देखते हैं?

सफाई कर्मचारी आंदोलन को कब शुरू किया, यह तो बताना मुश्किल है। दरअसल यह समुदाय के गुस्से और क्षोभ की अभिव्यक्ति है। यह कोई स्वयंसेवी संस्था नहीं है और न ही कोई पंजीकृत संस्था है। यह जनता का आंदोलन है। व्यवस्थित ढंग से 1982 में कर्नाटक के कोलार गोल्ड माइंस से इसकी गतिविधियाँ शुरू हुईं। शुरुआती दौर बेहद कठिन था। समुदाय को मैला प्रथा के खात्मे के लिये तैयार करने में ही इस बर्बर जातिप्रथा की गहरी जड़ों को नष्ट करने के तरीके खोजे। कितनी बार हिम्मत हारी, अकेला पड़ा, मरने की सोची, यह अलग बात है। मुझे लगता है कि मुझ जैसी हाशिये वाली पृष्ठभूमि से आने वाले तमाम लोगों को खास तौर से दलितों को ऐसी ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। यहाँ मैं एस.आर. संकरन को जरूर याद करना चाहता हूँ, जिनके मार्गदर्शन के बिना इतना लम्बा सफर तय करना मुश्किल होता। संकरन वरिष्ठ आईएएस अधिकारी तो थे ही, जिन्होंने त्रिपुरा के तत्कालीन मुख्यमंत्री नृपेंद्र चक्रवर्ती के प्रधान सचिव का कार्यभार संभाला था, साथ ही बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता और मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले थे। वह 1992 से लेकर अपने मृत्यु यानी 2010 तक सफाई कर्मचारी आंदोलन के चेयरपर्सन थे। केजीएफ से शुरू हुआ यह आंदोलन आज 22 राज्यों तक पहुँच गया है।

अब आप क्या चाहते हैं?

हमें न तो स्वच्छ भारत चाहिए न स्मार्ट सिटी। हमें आधुनिक, जाति के जकड़न से मुक्ति सेनिटेशन व्यवस्था चाहिए। प्रधानमंत्री को अविलंब देश को यह बताना चाहिए कि भारत कब मैला प्रथा से मुक्त होगा।

दलितों में आक्रोश उबल रहा है, हैदराबाद, गुजरात, उत्तर प्रदेश... हर जगह वे बहुत उग्र प्रतिक्रिया दे रहे हैं, इसे कैसे देखते हैं?

हमारा गुस्सा सदियों की नाइंसाफी के खिलाफ है। आज समाज में इस नाइंसाफी को जायज ठहराने वाली ताकतें बहुत सक्रिय हैं, उन्हें राजनीतिक सत्ता मिली हुई है। यह दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों के हकों और सम्मान के खिलाफ काम करने वाले ताकते हैं। गुजरात में हमारे भाई बंधुओं ने सही जवाब दिया है, गाय तुम्हारी माता है, मरी गाय भी तुम्हारी माता है, तुम इसे संभालो, यही अंबेडकर का रास्ता है, जाति प्रथा के उन्मूलन का।

(लेखिका जानीमानी पत्रकार हैं, जिन्होंने मैला प्रथा पर पुस्तकें भी लिखी हैं)

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