मैं एक नदी सूखी

24 Aug 2013
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मैं एक नदी सूखी सी
कल मैं कलकल बहती थी
उन्मुक्त न कोई बंधन
क्वांरी कन्या सी ही थी
पूजित भी परबस भी थी
जब सुबह सवेरे सूरज
मेरे द्वारे आता था
सच कहूँ तो मेरा आँगन
उल्लसित हो जाता था
आलस्य त्याग कर मुझ में
सब पुण्य स्थल को जाते
जब घंटे शंख,अज़ान
गूंजते थे शांति के हेतु
मैं भी कृतार्थ होती थी
उसमें अपनी छवि देकर
मुझे याद है वो मंजर भी
जब सबकी क्षुधा शांत कर
मैं पसरी रहती अपने में
कुछ नव यौवन के जोड़े
मेरी गीली माटी में
नित स्वप्न नए बुनते थे
नित नए घरोंदे उनका
भावी जीवन बनते थे
मैं साथ चली जन जन के
गण मन की कल्याणी थी
मैं जीवन भी देती थी
तो मोक्ष द्वार मुझ से था
पर समय बड़ा बलवान
मुझे बना दिया है बंधक
मुझे सांस भी मिलती गिन कर
मैं मिटती जाती हूँ
मैं तड़पूं हर पल जीने को
तिल तिल कर सूख रही हूँ
कोई तो परित्राण करेगा
क्या यूँ ही बिलख रही हूँ
थी जीवन दात्री सब की
जीवन को तरस रही हूँ
मैं एक नदी प्यासी हूँ
मैं एक नदी सूखी सी
सावन को तरस रही हूँ
बाट जोहती वो दिन
जब बादल घिर आयेंगे
रिमझिम रिमझिम बरसेंगे
धरती को नहलायेंगे
कुछ प्यास बुझा कर उसकी
गोद मेरी भर देंगे
उस पिता तुल्य पर्वत से भी
कुछ जलधाराएं सखी बन
मुझसे मिलने आएँगी
ये समय कभी बदलेगा
मैं भी कुछ इठलाऊंगी
यौवन में हो अनियंत्रित
बाधाएं तोड़ उफनती
अपनी उर्जा से सबके
जीवन को आलोकित कर
कल्याण मार्ग पर चलती
जन जन समृद्ध बनाती
आगे बढ़ती जाऊंगी
अपना अस्तित्व समेटे
सागर में मिल जाउंगी !!

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