मैं नदिया फिर भी प्यासी

5 Jul 2009
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आज पानी की कमी को लेकर कोहराम मचा हुआ है। तालाब सूख रहे हैं। नदियां अपना रूप बदल रही हैं। भूजल स्तर नीचे जा रहा है। ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर होगा। इस सबके बावजूद भारत के हर रंग-ढ़ंग में पानी है।

कला की विभिन्न विधाओं में इसकी मौजूदगी अपने विविध रूपों में बेहद खूबसूरती के साथ है। वह कभी हरहराती बाढ़ की तरह आती है तो कभी रिमझिम-रिमझिम बारिश की तरह यह प्रेम की सरस बूंदों का स्पर्श लिए आती है और कभी नीर भरी दुख की बदली के रूप में। इसका मतलब यह है कि कालिदास के ‘मेघदूत’ या उसके भी पहले से यह हमारे रंगमंच में मौजूद है। मोहन राकेश ने तो ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाम से नाटक ही लिख डाला।

खैर! रंगमंच से अलग सिनेमा में पानी की उपस्थिति बहुत सहज तथा सघन है। वह बारिश के रूप में हो या झील के रूप में। समुद्र के रूप में हो या नदी के रूप में। जल यानी पानी किसी न किसी रूप में उपस्थित होता ही है। यह हमें महसूस करना चाहिए कि पानी हवा के बाद हमारे लिए सबसे जरूरी चीज है। लेकिन, एक कमी रह जाती है कि पानी के स्वाभाविक तथा प्राथमिकता के आधार पर उसके उपयोग को सिनेमा ने अछूता ही रखा है। सामान्यतया सिनेमा में पानी का इस्तेमाल श्रृंगार के लिए होता है। इसका राजकपूर ने खूब इस्तेमाल किया है।

सिनेमा में पानी के दूसरे सिरे पर कई निर्देशक हैं। एक नाम और एक फिल्म तत्काल ध्यान में आती है। महबूब और ‘मदर इंडिया’ का बाढ़ से त्रस्त गांव और बरबाद होती गृहस्थी तथा उसमें शोषक का उभरता डरावना चेहरा। नर्गिस की आंखों से बहता पानी। यानी, एक बाढ़ बाहर, एक बाढ़ भीतर। पानी से भीगने की पूरी प्रक्रिया त्रासदी का नया आख्यान रचती है। फिल्मों में आए मांझी के गीत पानी को पूरी संवेदना में बदल देते हैं। जगह-जगह पर पानी है। वह शब्दों में ढलता है और संगीत में बह उठता है- ”सुन मेरे बंधुरे। सुन मेरे मितवा… जिया कहे तू सागर मैं होती तेरी नदिया… लहर बहर करती… अपने पिया से मिल जाती रे।”

एक दूसरा उदाहरण देखते हैं- जरा ‘नौकरी’ फिल्म के उस गीत को याद करें जहां एक सुन्दर सपना है- ”छोटा सा घर होता बादलों की छांव में।” यहां सूफियाना अंदाज और रंग भी है- ”मैं नदिया फिर भी प्यासी। भेद ये गहरा बात जरा सी”। कुल मिलाकर लोक गीतों से लेकर सिनेमाई गीतों तक हर रंग-ढंग में पानी मौजूद है। बारिश के रूप में पानी अच्छे-भले कई अनुभवों के साथ सिनेमा में आता है। दृश्यों को रंगीन और रमणीय बनाता है।

पानी भारतीय संदर्भों में पंचतत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह अपनी परिभाषा में रंगहीन, गंधहीन, पारदर्शी द्रव है। हम इसके आर-पार देख सकते हैं। बहुत जरूरी बात यह है कि यह हमारी प्यास बुझाता है। सिनेमा के माध्यम से प्यास बुझाने का यह काम ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया है। यहां हम ‘दो बूंद पानी’ फिल्म को याद कर सकते हैं। लेकिन, पानी के प्रति सामान्य लापरवाह नजरिया यहां भी नजर आता है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का जिक्र तो खूब होता है। लेकिन, वहां भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता है।

इतने के बाद चित्रकला को भूल पाना असंभव है। जब पानी के इन रूपों से जन सामान्य का मन निर्लिप्त नहीं रह पाया है तो चित्रकार का भावुक संवेदनशील मन कैसे निर्लिप्त रह पाता। अजंता की गुफाओं के भित्ति-चित्रों के चितेरों ने कमल खिलाए हैं। जैन, मुगल, राजपूत और पहाड़ी शैली के चित्रकारों ने जल के इस रूप को अपनी तूलिकाओं से सृजित किया है। बात यहीं खत्म नहीं होती है। हर काल और प्रत्येक देश के सम-सामयिक चित्रकारों ने इन रूपों को अपने-अपने ढंग से विभिन्न राग-रंग में चित्रित किया है।

ऐसा हो भी क्यों न! आखिर इस तत्व की अपनी प्रधानता है जिसके बिना अस्तित्व का होना मुमकिन नहीं है। यानी, पानी पर्वत शिखर पर हिम हो जाता है और नीचे जल। ‘आदि तत्व’ भी यही है।
 
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