मैंग्रोव :- प्रस्तावना

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मैंग्रोव शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द ‘मैंग्यू’ तथा अंग्रेजी शब्द ‘ग्रोव’ से मिलकर हुई है। मैंग्रोव शब्द का उपयोग पौधों के उस समूह के लिये किया जाता है जो खारे पानी और अधिक नमी वाले स्थानों पर उगते है। इस शब्द का प्रयोग पौधों की एक विशेष प्रजाति के लिये भी किया जाता है। मैंग्रोव, उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों के तटों पर उस स्थान पर उगने वाली वनस्पति को कहा जाता है जहां ज्वार के समय समुद्र का खारा पानी भर जाता है। पौधों के इस समूह को दो भागों में बांट सकते हैं।

1. वास्तविक मैंग्रोव वनस्पति या कच्छ वनस्पति

2. मैंग्रोव सहयोगी पौधे

मैंग्रोव उष्णकटिबन्धीय एवं उपोष्ण प्रदेशों के नदी मुहानों, खारे समुद्री पानी की झीलों, कटाव वाले स्थानों तथा दलदल भूमि में उगने वाले पौधों को कहा जाता है। वे क्षेत्र जहां इस प्रकार की वनस्पति उगती है, मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र कहलाते हैं। इस वर्गीकरण के बाद भी कभी-कभी मैंग्रोव पौधे को सही-सही परिभाषित करना कठिन हो जाता है। मैंग्रोव समूह, मैंग्रोव पारिस्थितिकी, मैंग्रोव वन, मैंग्रोव दलदल आदि शब्दों का प्रयोग मैंग्रोव समूह के पौधों का वर्णन करने के लिये परस्पर किया जाता रहा है। मैंग्रोव वनों में पाये जाने वाले पौधे वर्गीकरण के आधार पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। परन्तु इन सभी में अनुकूलन की कुछ समान विशेषताएं पायी जाती हैं। इन क्षेत्रों में मैंग्रोव वनस्पति के अलावा दूसरे पौधे तथा जीव जन्तु भी पाये जाते हैं। ये उत्पादकता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण किन्तु संवेदशील क्षेत्र होते हैं।

मैंग्रोव वनस्पति का वर्णन सर्वप्रथम यूनानी खोजकर्ता नियरकस ने ईसा से 325 वर्ष पूर्व किया था। वनस्पति विज्ञान के जनक कहे जाने वाले थियोफ्रेट्स ने इन पौधों का वर्णन करते हुए लिखा है कि ”ये पौधे अपनी आधी ऊंचाई तक पानी में डूबे रहते हैं और अपनी जड़ों द्वारा एक पॉलिप की भांति सीधे खड़े रहते हैं।“ लाल समुद्र में पाये जाने वाले मैंग्रोव पौधों का वर्णन प्लाईनी द्वारा उनकी पुस्तक ‘हिस्टोरिया नेचुरेलिस’ में किया गया है। वॉन रेल्डे द्वारा हिन्द महासासगर में पाये जाने वाले मैंग्रोव पौधों का वर्णन उनकी पुस्तक ‘होर्टस मालाबेरिकस’ में किया गया है।

इनमें से अधिकतर तथा बाद के वर्षों में किये गये वर्णन वर्गीकरण की दृष्टि से किये गये थे। मैंग्रोव क्षेत्रों में पायी जाने वाली वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं की विशेषताओं का पता बहुत पहले ही चल गया था परन्तु उनमें क्रियात्मक सम्बन्धों की अधिक जानकारी पिछले कुछ वर्षों में ही प्राप्त हुई है। यह भी सम्भव है कि अन्य खोजकर्ता तथा प्रकृति विज्ञानी इनकी जानकारी रखते थे परन्तु इनकी बुरी छवि के कारण इनका वर्णन करने से बचते थे। ऐसा इस गलत अवधारणा के कारण भी हो सकता है कि मैंग्रोव क्षेत्रों में बदबूदार दलदल होता है जिसमें खतरनाक मगरमच्छ रहते हैं।

ऐसा समझा जाता है कि मैंग्रोव वनों का सर्वप्रथम उद्गम भारत-मलय क्षेत्र में हुआ और आज भी इस क्षेत्र में विश्व के किसी भी स्थान से अधिक मैंग्रोव प्रजातियां पायी जाती हैं। आज से 660 से 230 लाख वर्ष पूर्व ये प्रजातियां पश्चिम की ओर भारत तथा पूर्व अफ्रीका तथा पूर्व की ओर मध्य तथा दक्षिणी अमेरिका तक समुद्री धाराओं के माध्यम से पहुंची होंगी। उस समय मैंग्रोव प्रजातियों का विस्तार उस खुले समुद्री मार्ग के माध्यम से केरेबियाई समुद्र में हुआ होगा जहां आज पनामा नहर है। बाद में समुद्री धाराओं के माध्यम से इनके बीज अफ्रीका के पश्चिमी तट तथा न्यूजीलैण्ड तक पहुंचे होंगे। इसी कारण अफ्रीका के पश्चिमी तट तथा अमेरिका में कम तथा एक जैसी प्रजातियां पायी जाती हैं जबकि एशिया, भारत तथा पूर्व अफ्रीका में मैंग्रोव पौधों की अधिकतर प्रजातियां पायी जाती हैं।

यह धारणा कि मैंग्रोव केवल खारे पानी में ही उग सकते हैं, सही नहीं है। ये ताजे पानी वाले स्थानों पर भी उग सकते हैं लेकिन तब इनकी वृद्धि सामान्य से काफी कम होगी। किसी मैंग्रोव क्षेत्र में पौधों की प्रजातियों की संख्या तथा उनके घनत्व को नियन्त्रित करने वाला मुख्य कारक उस क्षेत्र की वनस्पतियों की खारे पानी को सहन करने की क्षमता है।

विश्व में मैंग्रोव का वितरण

मैंग्रोव वनों में पौधों की प्रजातियों के वितरण के आधार पर उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है। पहले समूह में वे पौधे आते हैं जिनमें खारे पानी को सहने की क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है और जो समुद्री पानी से 2 से 3 गुना अधिक खारे पानी में भी जीवित रह सकते हैं जबकि दूसरे समूह में वे पौधे आते हैं जो केवल समुद के पानी से कम खारे पानी में ही जीवित रह पाते हैं। अपने आस-पास की प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने तथा उनसे अनुकूलन के कारण इन पौधों में कुछ आश्चर्यजनक गुणों का विकास हुआ है।

मैंग्रोव प्रजातियां बहुत सहनशील होती हैं और प्रतिदिन दो बार खारे पानी के बहाव को झेलने के लिये ऐसा होना आवश्यक भी है। उन्हें ऐसी भूमि में जीवित रहना होता है जो अस्थिर होती है तथा जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। इसके अतिरिक्त उन्हें वर्षा ऋतु में उफनती नदियों तथा समुद्री तूफानों को भी सहन करना होता है। मैंग्रोव वनस्पति की इन विशेषताओं के अध्ययन से हमें उनकी विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने के उनके विशिष्ट तरीकों की जानकारी मिलती है।

मैंग्रोव वनों के अनुकूलन के विशिष्ट तथ्यों के प्रति वैज्ञानिक उत्सुकता के अतिरिक्त इन वन क्षेत्रों के अन्य लाभ भी हैं। अपने अनुभवों से हमें पता चला है कि तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वनों की उपस्थिति से प्राकृतिक आपदाओं जैसे चक्रवात तथा तूफान के समय जान-माल के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन वनों का आर्थिक महत्व भी है। ये वन नदी मुहानों तथा समुद्रों में पाये जाने वाले अनेक जीव-जन्तुओं के लिये भोजन, प्रजनन, तथा उनके छोटे बच्चों के लिये शरण स्थल उपलब्ध कराते हैं। इन क्षेत्रों का उपयोग व्यावसायिक मछली उत्पादन के लिये भी किया जाता है। इन क्षेत्रों का उपयोग औषधीय गुणों वाले प्राकृतिक पदार्थों, नमक उत्पादन, ईंधन के लिये लकड़ी, पशुओं के लिये चारे के उत्पादन तथा मधुमक्खी पालन के लिये भी किया जाता है।

सौभाग्य से पिछले कुछ समय में मैंग्रोव वनों में लोगों की रुचि जाग्रत हुई है। मानव सभ्यता के तथाकथित विकास के कारण अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की तरह मैंग्रोव क्षेत्रों के लिये भी खतरा उत्पन्न हो गया है। तटीय इलाकों में बढ़ते औद्योगीकरण तथा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को समुद्र में छोड़े जाने से इन क्षेत्रों में प्रदूषण फैल रहा है। मैंग्रोव वनों के संरक्षण के लिये प्रयास करने के लिये आवश्यक है कि इन पारिस्थितिकी तंत्रों का बारीकी से अघ्ययन किया जाये।

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