माण्डव : ए लव स्टोरी ऑफ वॉटर

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पानी यात्रा-3 संस्मरण


... मध्य प्रदेश के धार जिले का माण्डव यानि पर्यटन की दुनिया में भारत का सितारा...!
...बादलों के बीच पहाड़ियों, किलों, खण्डहरों से झाँकते इतिहास के इन्द्रधनुषी पृष्ठ...!
... सिटी ऑफ जॉय... आनन्द की नगरी... शादियाबाद!
... माण्डव यानि बाजबहादुर और रानी रूपमति का पवित्र अनुराग...!
... जिसके पीछे है- संगीत के राग...!
... महलों के जर्रे-जर्रे में छिपी प्रेम कहानी...!
... लेकिन, आज हम आपको माण्डव की एक और 'प्रतिभा’ से रूबरू कराएँगे ...!
... चौंकाने वाली, अद्भुत, माण्डव के तत्कालीन सत्ता पुरुषों व समाज के कौशल को दिल से आदाब कराने वाली !
... यह है - समाज और पानी की प्रेम कहानी ... !
... माण्डव : ए लव स्टोरी आफ वॉटर ... !!

रेवा कुण्ड में पानी की आवक के साथ-साथ जावक की भी प्रणाली रही है। इसके सामने की ओर बना है - बाजबहादुर महल। रेवा कुण्ड का पानी लिफ्ट कर बाजबहादुर महल में पहुँचाया जाता था। रहट प्रणाली से डिब्बों के माध्यम से पानी ऊपर लाकर एक हौज में डाला जाता था। यहाँ पत्थरों की पाइप लाइन प्रणाली मौजूद थी। इन्हीं के माध्यम से पानी- महल के भीतर जाता था। यहाँ एक कुण्ड भी बना हुआ है। किंवदन्ती है कि बाजबहादुर इस महल में संगीत की प्रतिस्पर्धाएँ कराता था। माण्डव को यह पहचान भी इसे दुनिया के परम्परागत पानी संचय के विरले उदाहरणों के बीच 'महलों’ जैसी स्थिति में ही रखती है। 8वीं शताब्दी से इसके इतिहास की शुरुआत मानी जा सकती है। कालखण्डों ने माण्डव को सभी तरह के वक्त दिखाए! इमारतें, किले बने... तो युद्ध में गिरे भी...! कहते हैं, कभी यह भारत का एक ऐसा शहर था... जिसमें सौ बाजार हुआ करते थे... और आज के मुम्बई... दिल्ली... कलकत्ता की भाँति लोग इसे देखने भी आते थे ! ...और आज- खण्डहरों का शहर- इसे नाम दे दिया गया है।

आमतौर पर यह किंवदन्ती प्रचलित है कि जितनी भी पुरानी सभ्यताएँ या शहर बसे हैं, वे किसी नदी के किनारे पाए जाते हैं- ताकि पानी और जीवन के रिश्तों को आँच न आए! लेकिन, यहाँ के इतिहास पुरुषों और समाज के लिये क्या कहा जाए कि- पहाड़ी पर बसे इस पुरातनकालीन समृद्ध विरासत वाले क्षेत्र में कोई नदी नहीं बहती है...! प्रश्न उठता है- फिर पानी...?

इसी का जवाब बताता है कि तत्कालीन समाज के ज्ञान, समझ, दूरदृष्टि और आत्मविश्वास का नाम ही उस काल में पानी संचय की कहानियाँ हैं... जो आज भी माण्डव में देखी जा सकती हैं... उस 'पर्यटक’ को दाँतों-तले ऊँगली दबाने पर भी मजबूर करती है, जो तमाम अत्याधुनिक साधनों के साथ अन्तरिक्ष में कुलाँचे लगा रहा है, लेकिन अपने परिवेश- और इसके साथ आत्मीय सम्बन्धों का 'पानी’- दोनों खो चुका है...! तब के 'पानीदार’ माण्डव की आज स्थिति क्या है?

यह यहाँ के नगर पंचायत अध्यक्ष, मुख्य गाइड और माण्डव पर लिखी पुस्तक के लेखक श्री मोहन कुमार चन्द्रेशी के इस अफसोस से साफ जाहिर होती है- 'सदियों पूर्व माण्डव की आबादी 4 से 5 लाख मानी जाती है। इसी वर्षाजल के आधार पर तब का समाज खुशी-खुशी जीता रहा... लेकिन आज 15 हजार की आबादी को इसी व्यवस्था से जल संकट का सामना करना पड़ता है।’ दरअसल, इसमें केवल माण्डव नहीं, बल्कि वर्तमान समाज की समग्र पीड़ा छिपी हुई है। इसमें कई सवालों का एक जवाब और भी छिपा है- पहला प्रश्न पानी प्रबन्धन का है, जनसंख्या विस्फोट तो दूसरे दर्जे पर आता है...!

माण्डव का जल प्रबन्धन- सभी आधुनिक तकनीकों को सदियों पहले ही करके छोड़ चुका था...! सरदार सरोवरों या नर्मदा सागरों जैसे 'बांधों’ वाले प्रयोगों को यहाँ आज़माया जाता रहा है। आज का बहुचर्चित रूफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम- यहाँ महलों की शान हुआ करता था..! पहाड़ से नीचे उतरते पानी को रोकने के लिये बनाए कई तालाब- आज भी आपको-तत्कालीन तकनीक समझा सकते हैं। आज के साइफन सिस्टम को उस काल में चुटकियों में तैयार कर लिया गया था।

जल संग्रहण के लिये तैयार की गई बावड़ियाँ केवल पानी संग्रह का स्थान नहीं, बल्कि सुरक्षित महलनुमा 'वातानुकूलित’ बरामदों वाली और जीवन रक्षक जैसी उपाधियों से विभूषित रही हैं। आज का 'लिफ्ट सिस्टम’ वे आजमा लेते थे...! रानी साहिबान... के लिये स्नानगृहों की व्यवस्थाएँ भी उत्कृष्ट जल प्रबन्धन की मिसाल प्रस्तुत करती है। पानी की स्वच्छता के लिये- फिल्टर तकनीक भी मन मोहने वाली रही है।

जल संचय अभियान में आज के नारे- 'गाँव का पानी गाँव में, खेत का पानी खेत में’ -को वे सदियों पहले- 'महल का पानी महल में -जैसे माइक्रोलेवल पर- सफलतम प्रयोग कर चुके थे। वर्षा की बूँदों की सही मायने में वे मनुहार करते थे- और इसे ज़मीन के सुकून का आधार बना चुके थे। पानी की किसी बूँद को बेकार नहीं बहने दिया जाता था- तब एक ही मकसद था- पानी रोको ...! और इसी मकसद के सहारे माण्डव इस किंवदन्ती को झुठला सका कि समाज यदि दृढ़ संकल्पित है तो केवल वर्षाजल से, बिना नदी के किनारे भी- आत्मशक्ति के साथ सभ्यताएँ जिन्दा रह सकती हैं।

माण्डव, विन्ध्याचल पर्वत माला के आखिरी छोर पर बसा है। उत्तर से दक्षिण के बीच यह मालवा क्षेत्र का प्रमुख सत्ता केन्द्र रहा है। माण्डव के इतिहास को चार भागों में बाँटा जा सकता है- (1) परमार काल- 800 से 1300 तक। (2) सुल्तान काल- 1300 से 1535 तक। (3) मुगल काल 1536 से 1725 तक। (4) मराठा काल 1725 से 1947 तक। यहाँ राजा भोज, राजा मुंज से लगाकर तो सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ का आधिपत्य रहा। कहते हैं, यहाँ 40 तालाब, 70 तत्कालीन तकनीक के स्टॉपडैम और 12 सौ बावड़ियाँ व कुएँ थे। जल प्रबन्धन की अनेक मिसालेें यहाँ अपनी-अपनी तरह की तकनीकें प्रदर्शित करती हैं।

माण्डव के पूर्व हिस्से में सात सौ सीढ़ी नामक स्थान है, जो तत्कालीन समय में जल संरक्षण की अनूठी तकनीक प्रस्तुत करता है। यह ऐसा स्थान है, जहाँ दोनों ओर से साढ़े तीन-साढ़े तीन सौ सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाती हैं- इसीलिये इसका नाम सात सौ सीढ़ी पड़ गया। यहाँ अनेक नालों का पानी आता है। तत्कालीन शासकों ने यहाँ पत्थरों का बाँध बनाया था।

बड़े पैमाने पर यहाँ पानी को रोका जाता था। यहाँ रहट प्रणाली से पानी लिफ्ट किया जाता था। रहट का पानी बैलों, ऊँट, घोड़े आदि के माध्यम से डिब्बों के द्वारा बाँध से ऊपर खींचा जाता रहा है। इतिहासकारों का मत है कि इस बाँध का निर्माण 13वीं और 14वीं सदी के आसपास हुआ होगा। यानि परमारों के अन्त व सुल्तानों की शुरुआत के दरमियान। परमार शासकों में राजा भोज व राजा मुंज ने मालवा क्षेत्र में अनेक तालाब बनाए।

इस बात पर भी शोध किया जा सकता है कि क्या भोजपुर का तत्कालीन बाँध व माण्डव का यह बाँध एक जैसी संरचनाएँ रही हैं- क्योंकि वह भी लगभग इसी शैली में बनाया गया था। माण्डव के इस बाँध को बाहरी आक्रमणों से रक्षा के दौरान समय-समय पर तोड़ा भी जाता रहा। अभी भी इसके अवशेष देखे जा सकते हैं। माण्डव के इस पूर्व भाग में आम जनता निवास करती थी।

लाल बंगला वाले क्षेत्र में अनेक तालाब बने हुए थे। इनमें मुख्य रूप से राजा हौज, भोर, लम्बा, समन, सिंगोड़ी व लाल बंगले का तालाब आदि हैं। इनका पानी ओवर-फ्लो होकर एक-दूसरे में जाता रहता था। इन तालाबों के सूख जाने पर सात सौ सीढ़ी से पानी लिफ्ट कर इनमें डाला जाता था।

इस आबादी वाले इलाके में अनेक बावड़ियाँ व कुएँ थे, जो इस पूरे सिस्टम के कारण जिन्दा रहा करते थे। अभी भी लाल बंगला क्षेत्र के जंगलों में हजारों मकानों की नीवों के अवशेष देखे जा सकते हैं। यह तकनीक-डैम व तालाबों पर आधारित रही।

अब कुछ उदाहरण तत्कालीन समय में वर्षा जल को महलों अथवा आसपास के स्थानों में 'रूफ वाटर हार्वेस्टिंग’ पद्धति द्वारा संचित करने के देखते हैं...! माण्डव किले का क्षेत्रफल 48 मील है। यह देश के बड़े किलों में से एक है। इसके उत्तरी भाग में रानी रूपमति महल, बाजबहादुर महल, रेवा कुण्ड आदि का जल प्रबन्धन देखने लायक है।

रानी रूपमति महल उस समय में वॉच टॉवर के रूप में भी उपयोग में लाया जाता था। यह पहाड़ी के शीर्ष पर है। कहते हैं, बाजबहादुर की प्रेमिका रानी रूपमति यहीं से हर रोज सुबह दूर दिखती नर्मदा मैया के दर्शन करने आती थीं। दरअसल, रूपमति धरमपुरी के राजा की बिटिया थी। अकबर के प्रशासक बाजबहादुर का संगीत प्रेम ही रूपमति से भी प्रेम का कारण बना।

इस महल को रूपमति के नाम से जानने लगे। रूपमति महल में पानी प्रबन्धन 'महल का पानी महल में -की अवधारणा पर आधारित था। यहाँ छत पर आई वर्षाजल की बूँदों को सहेजकर पाइप व नालियों के माध्यम से पहली मंजिल पर उतारने की व्यवस्था है। इस पानी को पहले हौज में एकत्रित किया जाता रहा।

यहाँ कोयले व रेती के जरिए इसको फिल्टर किया जाता था। यहाँ से पानी एक बड़े हौज में एकत्रित होता था। यहाँ सैनिक इसका उपयोग पीने के लिये करते थे। सदियों का वक्त बीतने के बावजूद- इस व्यवस्था को आसानी से उसी स्थिति में समझा जा सकता है।

रानी रूपमति महल के सामने जल प्रबन्धन की एक और मिसाल है- रेवा कुण्ड। यहाँ दो कुण्ड हैं- छोटा व बड़ा। इन कुण्डों में आज भी पानी देखा जा सकता है। बड़े कुण्ड में नीचे उतरने के लिये बावड़ीनुमा संरचना की तरह सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। रेवा कुण्ड के पास एक धर्मशाला है।

जहाँ बाहर से आने वाले अतिथि उस काल में रुका करते थे। इसकी छत पर आया बरसात का पानी भी रेवा कुण्ड का बड़ा स्रोत रहा है। नालियों की पूरी प्रणाली के माध्यम से पहले पानी छोटे कुण्ड में आया करता था। यहाँ फिल्टर के बाद बड़े कुण्ड में उतारा जाता था। कुछ पानी रानी रूपमति महल के ओवर-फ्लो सिस्टम से भी यहाँ आता था।

रेवा कुण्ड में पानी की आवक के साथ-साथ जावक की भी प्रणाली रही है। इसके सामने की ओर बना है - बाजबहादुर महल। रेवा कुण्ड का पानी लिफ्ट कर बाजबहादुर महल में पहुँचाया जाता था। रहट प्रणाली से डिब्बों के माध्यम से पानी ऊपर लाकर एक हौज में डाला जाता था। यहाँ पत्थरों की पाइप लाइन प्रणाली मौजूद थी। इन्हीं के माध्यम से पानी- महल के भीतर जाता था। यहाँ एक कुण्ड भी बना हुआ है। किंवदन्ती है कि बाजबहादुर इस महल में संगीत की प्रतिस्पर्धाएँ कराता था।

इन तीनों स्थानों की प्रणाली स्वतन्त्र अस्तित्व लिये हुए थी। यहाँ रेवा कुण्ड को वापस इसकी पुरानी पहचान दिलाए जाने की जरूरत है। यहाँ अन्तिम संस्कार भी किया जाता है। कुण्ड फिलहाल दुर्दशा का शिकार हो चला है। माण्डव के गाइड श्री राधेश्याम चन्देसरी कहते हैं, यहाँ पानी की चिन्ता करने वाले लोगों का कहना है कि माण्डव में पानी का समृद्ध इतिहास रहा है। यदि हर जलस्रोत का बेहतर रखरखाव हो, पर्याप्त खुदाई की जाए व उनके आव क्षेत्रों की भी देखभाल की जाए तो माण्डव में पुन: इतने पानी का प्रबन्ध हो सकता है कि धार को भी आपूर्ति की जा सकती है।

(लेखक पत्रकार व प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन के अध्येता हैं)

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