मानव के जीवन मरण का सवाल है पर्यावरण संरक्षण

4 Aug 2017
0 mins read
meet on environment issues
meet on environment issues

पर्यावरण वैज्ञानिक प्रो. एस.पी.राय ने कहा कि इस जीवमंडल में मनुष्य के साथ—साथ अन्य जीव, पौधे और जंतुओं को जीने का उतना ही अधिकार है जितना मनुष्य को है। यदि अब भी प्रकृति के साथ तालमेल नहीं बिठाते हैं या प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन बंद नहीं करते हैं तो मानव जाति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

मानव की उत्तरोतर बढ़ती आकांक्षाओं और मौलिक सफलताओं ने आज मानव समाज को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसका मतलब यह नहीं कि मनुष्य को अपनी सुख सुविधाओं की पूर्ति के लिये भौतिक सुख साधन विकसित नहीं करने चाहिये, वरन यह कि प्राकृतिक संसाधनों का जितना हिस्सा मनुष्य के लिये नियत था उसने उससे कहीं अधिक ले लिया और यह भूल ही गया कि उसके अपने अस्तित्व के लिये प्राकृतिक सामंजस्य भी आवश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों का जितना अधिक दोहन इस समय हो रहा है उतना कभी नहीं हुआ, लिहाजा पर्यावरण संकट सामने है। इस संदर्भ में छात्र छात्राओं को जागरूक करने के लिये 'पर्यावरण संरक्षण: गांधीवादी दृष्टिकोण' विषयक कार्यशाला का आयोजन गांधी शांति प्रतिष्ठान केंद्र भागलपुर में किया गया। यह चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में किया जा रहा है। दस दिवसीय कार्यशाला में पर्यावरण के विशेषज्ञ, शोधार्थी के साथ-साथ विभिन्न महाविद्यालय के छात्र-छात्राएँ शिरकत कर रहे हैं। 12 अगस्त को इस कार्यशाला का समापन होगा।

दस दिवसीय कार्यशाला का उदघाटन सुप्रसिद्ध गांधीवादी और पूर्व कुलपति प्रो. रामजी सिंह ने किया। अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि गांधी का चिंतन न तो पुराना और न नया है, बल्कि शाश्वत और चिरंतन है। उन्होंने काफी पहले आने वाले संकट से आगाह करते हुए कहा था कि प्रकृति के पास मनुष्य की आवश्यकता को पूरा करने के लिये बहुत कुछ है लेकिन लोभ और लालच को पूरा करने के लिये कुछ नहीं है। प्रकृति के अनुचित दोहन का नतीजा है कि अगले पचास साठ वर्षों में कोयले का भंडार खत्म हो जाएगा। दोहन का यह आलम है कि खनिज संपदा कौड़यों के भाव नीलाम किया जा रहा है या बेचा जा रहा है। प्राकृतिक संपदा के दोहन का नतीजा है ​कि हर क्षेत्र में अवांछनीय परिवर्तन हो रहे हैं। ओजोन की परतों में छेद होना, समुद्र के जल का गरम होना और ग्लेशियर का पिघलना पर्यावरण संकट का ही नतीजा है। पर्यावरण संरक्षण का सवाल मानवता के लिये जीवन और मरण का सवाल है। यदि सच में पर्यावरण संरक्षण का काम करना है तो हमें अपनी जीवन शैली को बदलना होगा, आवश्यकताओं को कम करना होगा।

उन्होंने इस बात को विस्तार से रेखांकित किया कि मशीनीकरण और पूँजीवादी व्यवस्था के कारण किस प्रकार यह समस्या दिन प्रतिदिन जटिल होती जा रही है। गाँव खत्म हो रहे हैं। पहले गाँव खेती में लगने वाले बीज, खाद, कीड़ों को नष्ट करने की दवाओं के बारे में स्वावलंबी और अपनी आवश्यकताओं के लिये उत्पादन करने के कारण बाजार पर उतने अवलंबित नहीं थे। आज स्थिति विपरित है। इसी का नतीजा है कि किसानों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। हरित क्रांति के क्या नतीजे हुए हैं, इसे हर कोई जानता है। कैंसर जैसी बीमारी काफी बढ़ी है।

कार्यशाला की अध्यक्षता गांधी शांति प्रतिष्ठान केंद्र भागलपुर के अध्यक्ष रामशरण ने की। अध्यक्षीय उद्गार में उन्होंने कहा कि संभावित खतरा महात्मा गांधी को 1909 में दिख गया था। इसलिए इसका जिक्र अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में किया। संसार की सारी मानव जाति के लिये पर्यावरण का सवाल विकट रूप धारण कर चुकी है। पानी की उपलब्धता जीवन का संकेत है। दोहन के कारण पानी घट तो रहा ही है। साथ ही प्रदूषण के अनेक स्तर देखने को मिल रहे हैं। गांधी का दर्शन मानवता, धर्म और नैतिकता पर आधारित है।

पर्यावरण वैज्ञानिक प्रो. एस.पी.राय ने कहा कि इस जीवमंडल में मनुष्य के साथ—साथ अन्य जीव, पौधे और जंतुओं को जीने का उतना ही अधिकार है जितना मनुष्य को है। यदि अब भी प्रकृति के साथ तालमेल नहीं बिठाते हैं या प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन बंद नहीं करते हैं तो मानव जाति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। उन्होंने कीटनाशकों के प्रयोग से जलाशय कैसे दूषित हो रहे और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यह विभिन्न रूप में दीख रहा है। कार्यशाला के संयोजक डॉ. दीपक कुमार दिनकर ने कार्यशाला के मकसद को बताते हुए कहा कि छात्र—छात्राओं को पर्यावरण संरक्षण की दिशा में संवेदनशील बनाना है। इस अवधि में अलग—अलग विषय चयन किये गये हैं। इन विषयों के विशेषज्ञ जानकारी देंगे।

kumar krishnan (journalist), mob.09304706646

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading