माँझी

माँझी! जल का छोर न आता
अब भी तट आँखों से ओझल माँझी! जल का छोर न आता
भरी नदी बरसाती धारा
घन-गर्जन अंबर अँधियारा
काली-काली मेघ घटाएँ आ पहुँची रजनी अज्ञाता
माँझी! जल का छोर न आता
क्षुब्ध पवन वन-पथ में रोता दुर्दिन को उन्मत्त बनाता
नभ अश्रांत गाढ़ी तम छाया
मन वियोगिनी का भर आया
प्राणों की आशा बादल पर खींच रही जो मौन सुजाता
माँझी! जल का छोर न आता
एक अकेला उत्कंठित जलपक्षी कब से उड़ता जाता
ये लहरें ऊपर से शीतल
दाह भरा इनका अंतस्तल
तट न मिले पर अब तो इनकी ज्वाला से संबंध ने जाता
माँझी! जल का छोर न आता
बीत गया पूरा दिन चलते ओझल कूल कहाँ ले जाता
माँझी! जल का छोर न आता।

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