मायके में सूख रही गंगा


उत्तराखंड इस समय पानी की कमी के संकट से गुजर रहा है। यहां की नदियों, तालाबों, जलस्रोतों में लगातार पानी कम हो रहा है। यहां तक कि हरिद्वार के महाकुंभ में डुबकी लगाने के लिए कई घाटों पर चार फुट पानी भी न मिलने की लोगों ने शिकायतें की हैं। पूरे राज्य में जगह-जगह नदी बचाओ, घाटी बचाओ आंदोलन चल रहे हैं। जल स्रोतों के सूखने या उन तक पानी न पहुंचने से करोड़ों रुपये की पाइप लाइन योजनाएं बेकार हो गई हैं। तल्ला नागपुर पेयजल योजना इसका उदाहरण है। दरअसल, पानी का यह संकट कुछ भ्रष्टाचार ने, कुछ प्रकृति के प्रति मानवीय असहिष्णुता ने पैदा किया, तो कुछ जल विज्ञान की नासमझी ने। वरना हिमालय, जिसे जल मीनार भी कहा जा रहा है, वह जलविहीन क्यों होने लगता?

विडंबना यह है कि इन सब मुश्किलों के बावजूद पिछले दस वर्षों में राज्य में कोई ठोस जलनीति नहीं बन पाई है। इसके विपरीत उत्तराखंड, जो गंगा, यमुना समेत कई सदानीरा नदियों का मायका रहा है, वह अपनी गलत योजनाओं के चलते अपनी इन सदानीरा नदियों को न सिर्फ विषैला बना दिया है, बल्कि सदैव संकटग्रस्त रहने की स्थिति में भी पहुंचा दिया है।

असल में, जल संकट के कारणों में एक प्रमुख कारण है, पानी को महज इंजीनियरिंग व प्रशासकीय मुद्दा भर मान लेना। उत्तराखंड में हुआ कुछ ऐसा है कि नदियों को जब सुरंगों से भेजा जाता है या बिजली पैदा करने के लिए उनकी राह बदली जाती है, तो वे जलस्रोत, जो उस नदी से अपना पानी पाते रहते थे, उनमें पानी पहुंचना बंद हो जाता है। इससे भी पुरानी आवासीय बस्तियों को पानी की दिक्कत होने लगती है।

पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर तालाब होते थे, जो स्थानीय भाषा में 'खाल’ कहलाते थे। यद्यपि भूगर्भीय गहराई वाली इन संरचनाओं में बरसाती पानी जमा होता था, लेकिन उनके नीचे के पर्वतीय जलस्रोतों में लगातार या ज्यादा समय तक पानी देने की संभावनाएं बनी रहती थीं। खालों की महत्ता इसी बात से समझी जा सकती है कि उत्तराखंड में कई स्थलों के अंत में 'खाल’ जुड़ा होता है। लेकिन इन पारंपरिक 'खालों’ पर या तो बस्तियां बस गईं या वे सूख गए हैं। किसी भी पहाड़ी पेयजल संग्रहण क्षेत्र का रख-रखाव महत्वपूर्ण है, ताकि बरसाती जल भीतर ही भीतर स्रोत तक पहुंचे। इसमें वानस्पतिक आवरण की वृद्धि के साथ ही यह भी देखना होता है कि इन क्षेत्रों में चुगान नियंत्रित रहे।

दरअसल, नए राज्य के गठन के बाद शहरीकरण तेजी से बढ़ा है। राज्य में निर्माण कार्य बढ़े हैं, इससे भी जल संकट गहराया है। सहायक नदियों-नालों में कूड़े-कचरों, प्लास्टिकों के जमा होने और सड़कों के विस्तार ने भी पानी का संकट बढ़ाया है। असल में, सड़कों पर कोलतार-सीमेंट की मोटी परतों से भी जल भंडारों में पानी पहुंचने में दिक्कत आई है। इन स्थितियों से बचने के लिए हमें हिमनदी के आस-पास हर प्रकार की मानवीय गतिविधि को रोकना होगा।

वातावरण और धरती की सतह पर नमी बनी रहे, यह जल समस्या से निपटने का मूलमंत्र है। आम नागरिकों व सरकार को यह समझना होगा कि पाइप, बिजली या पंप पानी नहीं देते हैं। पानी केवल जल स्रोत देते हैं। प्रकृति देती है। जल जलचक्र में प्रवाहित होता है और ऊपर उड़ा हुआ पानी ही फिर जमीन पर लौटता है। इसलिए हमें बूंद-बूंद सहेजने की आदत डालनी चाहिए।

(लेखक पर्यावरण वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
 
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