मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

Aadhartal
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1. लोक संस्कृति


भाषायी और सांस्कृतिक दृष्टि से मालवा में मध्य प्रदेश के इंदौर, उज्जैन, देवास, रतलाम, मंदसौर, नीमच, धार का पूर्वी भाग, सीहोर, शाजापुर, विदिशा का पश्चिमी भाग, राजगढ़ जिले के मालवी भाषी क्षेत्र आते हैं। यह भाषायी सीमांकन है। इस सीमांकन का आधार भाषा की समानता के अतिरिक्त खान-पान, जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक एकरूपता है। मालवांचल की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिये सम्भवतः यही सबसे अधिक सटीक सीमांकन है, पर उसकी स्पष्ट सीमा रेखा खींचना सम्भव नहीं है।

लोक संस्कृति व्यापक शब्द है। यह (लोक संस्कृति) बहुसंख्य समाज के स्तर पर अंकुरित हो पनपती है और लगभग पूरे समाज को संस्कारित करती है। नर्मदाप्रसाद गुप्त (1995) के अनुसार वह इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित संस्कृति के स्थान पर लोक-मानस एवं लोक-आचरण से पल्लवित होती है। लोक-मूल्यों से संस्कारित संस्कृति में समयानुकूल और परिस्थितिजन्य परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन, उसकी अनुपयोगी सामाजिक मान्यताओं तथा अवांछित मूल्यों को विलुप्त करते जाते हैं। लोक-संस्कृति कलकल करती सदानीरा नदी के निर्मल तथा स्वच्छ जल की तरह है। कुछ लोगों का मानना है कि लोक-मूल्यों तथा लोक-संस्कृति का सही स्वरूप, दरबारी लेखकों द्वारा लिखे दस्तावेजों के आधार पर लिखी इतिहास की पुस्तकों के स्थान पर, लोक काव्यों तथा लोक साहित्य में मिलता है। वास्तव में, लोक संस्कृति, मानव सभ्यता से जुड़ा बहुसंख्य समाज का इतिहास है। वह बहुसंख्य समाज की ऊर्जा से पल्लवित होता है। वह गरीबी-अमीरी और वर्ग भेद के ऊपर है। लोक संस्कृति का पोषण किसी वर्ग विशेष, सम्राट या बादशाह के द्वारा नहीं होता। वह, बहुसंख्य समाज के संस्कारों, मान्यताओं तथा आचरण का प्रतिनिधित्व करती है। वह समाज के संस्कारों की धरोहर का प्रामाणिक एवं स्वीकार्य दस्तावेज है।

लोक साहित्य में किसी बात को समझाने के लिये व्यवहृत शब्द ही संस्कृति है। रामनारायण उपाध्याय के अनुसार जब कोई व्यक्ति किसी विशेष प्रकार से रहने का अभ्यस्त हो जाता है और लाख कठिनाइयों के बावजूद अपने मार्ग से विचलित नहीं होता तो लोग कहते हैं कि वह नहीं बदलेगा, ये उसके संस्कार हैं। अर्थात व्यक्ति विशेष के कार्य, जहाँ संस्कार कहलाते हैं वहीं वे, जब समष्टिगत स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं तो संस्कृति कहलाते हैं। लोक संस्कृति की अनेक विधाएँ हैं। ये विधाएँ, विविध रूपों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। वे रहन-सहन, खान-पान, वस्त्राभूषण, आचार-विचार, रीति-रिवाज, धर्म तथा आस्था, विश्वास और मान्यताओं, उत्सवों, मेलों, गीतों, तमाशों, कथाओं, कहावतों, नृत्य, संगीत, कलाओं, भाषा और बोलियों के माध्यम से अपनी पहचान सुनिश्चित करती हैं तथा अपने अस्तित्व का एहसास कराती हैं। लोक संस्कृति का परिचय भौगोलिक, प्रशासनिक या राजनीतिक सीमाओं द्वारा दिया जाना सम्भव नहीं है।

लोक साहित्य, वास्तव में मनुष्य की अनादिकाल से चली आ रही जीवन यात्रा के अनुभव का अमृत है। इस अमृत की खोज, मनीषियों के लिये शोध और चिन्तन का विषय रहा है। विद्वानों के अनुसार लोक साहित्य को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग लोक कथाओं, लोक गीतों और कहावतों का समृद्ध संसार है तो दूसरा भाग उस समृद्ध संसार की संकलित सामग्री के सम्पादन, अनुसंधान और अध्ययन का अथाह सागर। रामनारायण उपाध्याय के अनुसार पहला भाग यदि सर्च (Search) है तो दूसरा भाग रिसर्च (Research) है। पहले भाग की जड़ें, ग्रामों में बसती हैं इसलिये उन्हें समझने के लिये लोक साहित्य के विद्यार्थी को लोक या ग्रामीण समाज से जीवन्त सम्पर्क स्थापित करना होता है। यही युक्ति लोक संस्कारों में जल विज्ञान तथा प्रकृति को जानने तथा समझने के लिये आवश्यक है।

लोक साहित्य में लोक विश्वास और मान्यताओं का अनूठा संग्रह मिलता है। मनुष्य की अनादि काल से चली आ रही जीवन यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभवों का निचोड़ लोक विश्वास है। वह, समाज को एकजुट रखने तथा भावनात्मक रूप से जोड़ने वाला अदृश्य बंधन है। वह, अपने मूल स्वरूप में विज्ञान सम्मत होता है। यह लोक विश्वास, बहुसंख्य समाज द्वारा व्यवहृत लोकाचारों, रीति-रिवाजों, लोक कहावतों और मान्यताओं में परिलक्षित होता है। रामनारायण उपाध्याय के अनुसार ये (लोक साहित्य) ज्ञान के ऐसे सिक्के हैं जो सभी देशों और सभी कालों में समान रूप से चलते आये हैं। ये राज-आज्ञाएँ नहीं हैं वरन मानव-हृदय से उद्भूत भावनाओं के ऐसे पंछी हैं जो शताब्दियों के ओर-छोर नापते आये हैं। वे विचारों के तिनके हैं जो डूबते को, उबरने के लिये, सहारा देते हैं। इसी आधार पर लोक साहित्य को संस्कृति एवं सभ्यता के विकास का संकेतक माना जाता है। वह प्रकृति की समझ सृजनशिलता, नवाचार और जीवन को प्रभावित करने वाले विविध पक्षों पर आधारित अनुभवजन्य समझ के सतत विकास का विलक्षण उदाहरण है।

इसी समझ में, विविध रूप में जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करने वाला लोक विज्ञान बसता है। वह अनुभव जन्य विज्ञान है जिसे कहावतों, संस्कारों तथा जीवन शैली के कण-कण में हर क्षण, पूरी संजीदगी से अनुभव किया जा सकता है। लोक विज्ञान, प्रकृति से जुड़ा विज्ञान है जो पोषण, शिक्षण, आलोचना और चेतावनी की शैली में मार्गदर्शी भूमिका का निर्वाह करता है। प्रकृति से शक्ति प्राप्त करने वाला देशज विज्ञान, संस्कार एवं जीवनशैली से जुड़े सभी पक्ष, इसी लोक-विज्ञान का हिस्सा हैं।

मध्य प्रदेश के निमाड़, बघेलखंड, बुन्देलखण्ड और मालवा अंचलों की संस्कृति प्राचीन तथा समृद्ध है। माना जा सकता है कि उपर्युक्त सभी अंचलों की लोक संस्कृति का विकास मुख्यतः स्थानीय स्तर पर हुआ है। लोक संस्कृति की इस विकास यात्रा में अनेक महत्त्वपूर्ण पड़ाव आये होंगे जब समाज ने प्रकृति, पर्यावरण, जल, भूमि और वायु के रहस्यों को समझकर अपनाया होगा। उन्हें जीवनशैली का हितैषी अंग बनाने के लिये जुगत की होगी। कुप्रभावों को त्याज्य बनाने के लिये वर्जनायें विकसित की होंगी। यही समझ लोक विज्ञान बनी। इसी लोक विज्ञान में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो स्वीकार्य और अस्वीकार्य घटकों और भिन्नता को उजागर करते हैं। निरगुणे इसे ही लोक विज्ञान कहते हैं।

प्राचीन काल में, मौजूदा मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों को अलग-अलग नामों से जाना जाता था। इन अंचलों का उल्लेख पौराणिक गाथाओं और प्राचीन इतिहास में मिलता है। आधुनिक मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों के बारे में ईसा से छह सौ साल पहले से जानकारी मिलती है। यह अच्छी तरह ज्ञात नहीं है कि उन अंचलों की सीमायें कहाँ से कहाँ तक थीं, पर उस कालखंड में बुन्देलखण्ड का इलाका चेदि महाजनपद के अधीन तथा मालवा का इलाका अवन्ति महाजनपद के अधीन तथा अनूप जनपद में निमाड़ का इलाका आता था। प्राचीनकाल में बुन्देलखण्ड क्षेत्र को जैजाकभुक्ति तथा जबलपुर के आस-पास का इलाका डाहल कहलाता था।

सांस्कृतिक सीमांकन


सांस्कृतिक सीमांकन का नियंता बहुसंख्य समाज होता है। उसी के कारण और प्रभाव से किसी क्षेत्र या अंचल के खान-पान, जीवन-शैली, संस्कारों और भाषा में एकरूपता होती है। इस एकरूपता को आसानी से समझा तथा अनुभव किया जा सकता है, पर उसे प्रशासनिक या प्राकृतिक सीमाओं की तरह प्रदर्शित करना सम्भव नहीं होता। इस एकरूपता आधारित क्षेत्र को सांस्कृतिक क्षेत्र कहते हैं। सांस्कृतिक क्षेत्रों की सीमायें हमेशा अस्पष्ट होती हैं। कहा जा सकता है कि एक अंचल की संस्कृति, भाषा तथा विशेषता धीरे-धीरे अपनी पहचान खोकर दूसरी भाषायी या सांस्कृतिक इकाई में बदल जाती है। उनके बीच का अस्पष्ट क्षेत्र, मिश्रित संस्कृति तथा मिश्रित भाषा का क्षेत्र होता है। यह स्वाभाविक स्थिति है। सामान्यतः इस आधार पर सांस्कृतिक सीमाओं को परिभाषित किया जा सकता है।

सांस्कृतिक आधार पर भारत या मध्य प्रदेश का पहला सीमांकन कब हुआ, ज्ञात नहीं; पर जब अंग्रेज भारत आये, तो उनका सामना भारत के विभिन्न अंचलों की सांस्कृतिक एवं भाषायी विविधता से हुआ। सम्भव है, उन्हें इन विविधताओं को समझने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। विलियम कैरे ने भाषायी-सर्वेक्षण कराया था। सन 1843 के बाद, जार्ज ए. ग्रियर्सन ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भाषा पर विचार कर विभिन्न भाषायी क्षेत्रों की सीमाओं का अनुमान लगाया। इस सीमांकन का आधार भाषा की समानता के अतिरिक्त खान-पान, जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक एकरूपता रहा होगा। माना जाता है कि मध्य प्रदेश में मोटे तौर पर निमाड़, बघेलखंड, बुन्देलखण्ड और मालवांचल समाहित हैं।

निमाड़ का सांस्कृतिक अंचल


निमाड़ शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। अनेक विद्वानों ने इसके नाम का आधार खोजने का प्रयास किया है। एक अनुमान के अनुसार यह नाम नर्मदा तट पर बसी उसकी राजधानी (नेमावर) के कारण पड़ा। रामनारायण उपाध्याय के अनुसार अनुमान है कि यह उत्तर और दक्षिण भारत का संधिस्थल होने से आर्य और अनार्यों की मिश्रित भूमि रहा होगा। इस नाते इसका नाम निमार्य (नीम-आर्य) पड़ा होगा। निमाड़ी भाषा में नीम का अर्थ आधा (जैसे नीम-हकीम) होता है। सम्भव है, निमार्य का नाम बदलते-बदलते निमाड़ हुआ हो। निमाड़ नाम के पीछे एक और कारण हो सकता है। यह क्षेत्र मालवा से नीचे की ओर बसा है। मालवा से निमाड़ की ओर जाने में लगातार घाट उतरना या नीचे आना होता है। इस प्रकार निम्नगामी होने से इसका नाम निमानी और बाद में बदलकर निमाड़ हो गया हो। कुछ लोगों के अनुसार यह नाम इस क्षेत्र में प्रचुरता से मिलने वाले नीम के वृक्षों के कारण था। पूर्वी निमाड़ के गजेटियर (1971, पेज 1) के अनुसार मूल रूप से पूर्व में गंजाल नदी तथा पश्चिम में हिरनफाल तक का नर्मदा घाटी का क्षेत्र निमाड़ कहलाता है।

निमाड़ी लोक-संस्कृति, कला और वाचिक साहित्य के अध्येता वसन्त निरगुणे (2002, पेज 13) के अनुसार वर्तमान मध्य प्रदेश के पश्चिमी अंचल के एक सांस्कृतिक हिस्से का नाम निमाड़ है। अंग्रेजों के शासन काल में निमाड़ को पूर्वी निमाड़ और पश्चिमी निमाड़ में विभाजित किया गया था पर रीति-रिवाज, रहन-सहन, आबोहवा, भाव-भाषा और संस्कृति की दृष्टि से दोनों ही भाग, एक और अभिन्न हैं। अनूप देश कहलाने वाले प्राचीन जनपद एवं उपर्युक्त सीमाओं से घिरे क्षेत्र की पहचान निमाड़ के रूप में है।

बघेलखंड का सांस्कृतिक अंचल


बघेलखंड का शाब्दिक अर्थ बघेलों का देश है। मूल रूप से पूर्व में उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद तथा पश्चिम में कटनी तक का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है। सन 1947 के पहले इस क्षेत्र पर बघेलों की सत्ता रही है इसलिये इस क्षेत्र के नाम का उद्भव बघेल राजपूतों से माना जाता है। यह शब्द सत्रहवीं या अठारहवीं सदी में प्रचलन में आया तथा क्षेत्र की पहचान बना। बघेलखंड के समूचे इलाके को विंध्याचल पर्वतमाला की कैमूर पर्वत श्रृंखला ने, मोटे तौर पर, दो भागों में विभाजित किया है। बघेलखंड के उत्तर में इलाहाबाद, दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत, पूर्व में छत्तीसगढ़ राज्य के जिले तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले का कुछ भाग एवं पश्चिम में मध्य प्रदेश के नवगठित कटनी जिले के कुछ भूभाग, मिलकर इसकी सांस्कृतिक सीमायें बनाते हैं। ये सीमायें, इस इलाके में रहने वाले लोगों के लोक जीवन की एक सूत्र में पिरोई अंतरंगता को प्रदर्शित करती हैं। बघेलखंड की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिये यह सबसे अधिक सटीक सीमांकन है।

बुन्देलखण्ड का सांस्कृतिक अंचल


बुन्देलखण्ड का शाब्दिक अर्थ बुंदेलों का देश है। बुंदेला शब्द की उत्पत्ति बूँद से मानी जाती है। कहा जाता है कि बुंदेलों के पूर्वज गहरवार थे जिन्होंने मिर्जापुर स्थित विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर में अपनी बलि चढ़ाने का प्रयास किया था। वेदी पर गिरे रक्त की बूँद से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह बुंदेला कहलाया। यह बुंदेला राजपूतों की उत्पत्ति की लोककथा है। उल्लेखनीय है कि पन्द्रहवीं सदी के मध्यकाल से अठारहवीं सदी तक जिस क्षेत्र पर बुंदेलाओं की सत्ता रही वह क्षेत्र बुन्देलखण्ड कहलाता है।

बुन्देलखण्ड की पहचान चन्देल और बुंदेला राजाओं, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महाराजा छत्रसाल, आल्हा-ऊदल, लोक कवि ईसुरी, खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध मन्दिरों, पन्ना अभ्यारण्य, दतिया की पीताम्बर पीठ, ओरछा के रामराजा मन्दिर और पन्ना क्षेत्र में सदियों से मिलने वाले प्राकृतिक हीरों के कारण भी है।

बुन्देलखण्ड भाषायी क्षेत्र उत्तर में चम्बल नदी के उस पार उत्तर प्रदेश के आगरा, इटावा तथा मैनपुरी जिलों के दक्षिणी भागों तक; पश्चिम में चम्बल नदी के स्थान पर पूर्वी ग्वालियर तक; दक्षिण में सागर तथा दमोह के अतिरिक्त भोपाल के पूर्वी भागों; नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर तथा होशंगाबाद; सिवनी, बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के उत्तरी भागों और पूर्व में बाँदा के पश्चिमी भाग तक फैला हुआ है। इस सीमांकन का आधार भाषा की समानता के अतिरिक्त खान-पान, जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक एकरूपता है। बुन्देलखण्ड अंचल की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिये यह सबसे अधिक सटीक सीमांकन है।

मालवा का सांस्कृतिक अंचल


वर्तमान मध्य प्रदेश के पश्चिम में मालवा अंचल स्थित है। मालवा के पूर्व में बुन्देलखण्ड, दक्षिण में निमाड़, उत्तर में गुना, शिवपुरी तथा पश्चिम में गुजरात राज्य स्थित हैं। संत कबीर ने मालवा के बारे में कहा है-

देश मालवा, गहन गम्भीर।
डग डग रोटी, पग पग नीर।।


कबीर का दोहा मालवा की गहरी काली मिट्टी, भोजन की सहज उपलब्धता एवं पानी के बारहमासी स्रोतों को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, मालवा की पहचान उज्जैन के विश्व प्रसिद्ध महाकाल मन्दिर, सान्दीपनी आश्रम, सिंहस्थ मेला, प्रसिद्ध विद्वान कालीदास और आचार्य वराहमिहिर; मंदसौर के पशुपतिनाथ मन्दिर, धारानगरी के महाप्रतापी राजा भोज, महारानी अहिल्याबाई और दर्शनीय स्थल माण्डू के कारण भी है।

भाषायी और सांस्कृतिक दृष्टि से मालवा में मध्य प्रदेश के इंदौर, उज्जैन, देवास, रतलाम, मंदसौर, नीमच, धार का पूर्वी भाग, सीहोर, शाजापुर, विदिशा का पश्चिमी भाग, राजगढ़ जिले के मालवी भाषी क्षेत्र आते हैं। यह भाषायी सीमांकन है। इस सीमांकन का आधार भाषा की समानता के अतिरिक्त खान-पान, जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक एकरूपता है। मालवांचल की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिये सम्भवतः यही सबसे अधिक सटीक सीमांकन है, पर उसकी स्पष्ट सीमा रेखा खींचना सम्भव नहीं है।

 

जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आओ बनायें पानीदार समाज

2

मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

3

निमाड़ की चौपाल

4

बघेलखंड की जल चौपाल

5

बुन्देलखण्ड की जल चौपाल

6

मालवा की जल चौपाल

7

जल चौपाल के संकेत

 
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