मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य

स्वास्थ्य भौतिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से पूर्ण कुशलता की अवस्था है। मात्र रोग की अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य नहीं है। वर्ष 1979 में अल्मा् आटा के अंतराष्ट्रीय सम्मेलन ने स्वास्थ्य नीतियों के विकास में एक अहम् भूमिका निभाई है। इसी सम्मेलन में सभी लोगों तक स्वास्थ्य पहुंचाने की बात रखते हुये स्वास्थ्य को नई परिभाषा दी गई। यहीं से वर्ष 2000 तक 'सभी के लिए स्वास्थ्य उपलब्धता' पर पहल प्रारंभ की गई। आज 2006 के खत्म होते यह पहल कारगर क्यूं ना हो पाई, प्रतिबध्दताओं में कहां कमी रही या एक सवाल और भी है कि क्या इस मसले की व्यापकता को नहीं मापा गया? क्योंकि एकीकृत प्रयासों की तो भरमार रही परन्तु समग्रता पर प्रश्नचिन्ह आज भी है।

स्वास्थ्य की व्यापकता यानि संविधान की धारा-47 भी जिसकी वकालत करती है और वह यह कि 'सबके लिये स्वास्थ्य का अर्थ यह सुनिश्चित करना कि सस्ती व उत्तम् स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता प्रबन्ध, पर्याप्त पोषण, वस्त्र, आवास तथा रोजगार तक हर किसी की पहुंच हो तथा वर्ग, जाति, लिंग या समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो। अर्थात् जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो वह महज रोग या रोग का प्रतिरोध तक सीमित ना रहने वाली चीजों के बजाये जुड़ी पूरक स्थितियों पर भी केन्द्रित होगी।

यहां एक और चीज में सूक्ष्म सी विभिन्नता है और वह यह कि 'स्वास्थ्य' और स्वास्थ्य सेवायें दो अलग-अलग भाग हैं परन्तु हम कभी-कभार इसे एक मानने की भूल कर बैठते हैं। क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा होती है जो कि ऐसी विधियों व तकनीकों पर आधारित होती है जिन तक आम आदमी व साधारण परिवारों की पहुंच हो और जिसमें समाज की पूर्ण हिस्सेदारी हो, लेकिन जब हम स्वास्थ्य की बात करेंगे तो हम धारा- 47 के अंतर्र्गत, व्याख्यायित व्यापकता को आधार मानेंगे।

मध्यप्रदेश में आज स्वास्थ्य की स्थिति देखते हैं तो जहां एक ओर स्वास्थ्य संकेतक चीख-चीखकर प्रदेश की कहानी बयां कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी लग रहे हैं। शिशु मृत्यु दर के मामले में प्रदेश सरकार अव्वल स्थान पर है तो मातृ-मृत्यु के मसले पर द्वितीयक स्थान पर है। प्रतिदिन प्रदेश में 371 शिशु एंव 35 महिलायें प्रसव के दौरान या प्रसव में आई जटिलताओं के कारण दम तोड़ रही है, ऐसे में प्रदेश की स्थिति नाजुक जान पड़ती है। संस्थागत-प्रयास को बढ़ावा देने में लगी सरकार ने अधोसंरचना विकास की प्राथमिकता स्पष्ट नहीं की है और एक के बाद योजनायें लादकर वाहवाही लूट रही है।

संविधान की धारा-47 का व्यापक अर्थ 'सबके लिये स्वास्थ्य की दिशा में यह है कि 'यह सुनिश्चित करना कि सस्ती व उत्तम स्वास्थ्य सेवाओं, सुरक्षित पेयजल तथा स्वच्छता प्रबन्ध, पर्याप्त पोषण, आवास तथा रोजगार तक हर किसी की पहुंच हो। साथ ही वर्ग, जाति, लिंग या समुदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो।

स्वास्थ्य भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक सभी पूर्ण रूप से कुशलता की अवस्था है। मात्र रोग की अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य नहीं है। स्वास्थ्य के विषय में आल्माआटा के इस घोषणा पत्र 1978 का यह वाक्य बड़ा ही उल्लेखनीय है।

आल्मा आटा घोषणा पत्र के इसी जुमले को स्वास्थ्य की व्यावहारिक परिस्थितियों में जांचने का प्रयास करते हैं।

स्वास्थ्य संकेतक –

प्रदेश

शिशु मृत्यु दर

कुल

ग्रामीण

शहरी

बिहार

61

63

47

उत्तरप्रदेश

72

75

53

मध्यप्रदेश

79

84

56

उड़ीसा

77

80

58

केरल

12

13

09


शिशु मृत्यु दर - प्रदेश शिशु मृत्यु के मामले में अव्वल स्थान पर है, यहाँ 79 बच्चे प्रति 1000 की जनसंख्या पर असमय काल के गाल में जाते हैं जिसमें से ग्रामीण क्षेत्रों के 84 तथा शहरी क्षेत्रों में 56 शिशु होते हैं। अन्य राज्यों से तुलना करें तो हम पाते हैं कि अन्य बीमारू कहे जाने वाले राज्यों यथा बिहार, उत्तरप्रदेश तथा उड़ीसा की स्थिति भी मध्यप्रदेश से बेहतर है। वर्ष 1993 में जहाँ प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 106 थी जो कि घटकर 2003 में 82 रह गई, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह कमी 1993 में 74 से घटकर 60 ही रह पाई । अतएव उपरोक्त अवधि में प्रदेश स्तर पर यह कमी 24 तथा राष्ट्रीय स्तर पर यह कमी 14 ही दर्ज की गई।

प्रदेश

मातृ मृत्यु दर

बिहार

452

उ.प्रदेश

707

मध्यप्रदेश

498

राजस्थान

670

तमिलनाडु

79

भारत

407


दसवीं पंचवर्षीय योजना के एप्रोच पेपर में सन् 2007 तक यह दर 45 प्रति हजार जीवित जन्म पर लाने का लक्ष्य रखा गया है परन्तु वर्तमान स्थिति और निपटने के प्रयासों से स्थिति पर काबू नहीं पाया जा सकता है। वर्तमान में प्रदेश में 371 शिशु प्रतिदिन खत्म हो जाते हैं। बाल मृत्यु दर 137 प्रति हजार है। राज्य शासन वर्तमान में संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देकर शिशु मृत्यु को रोकने का प्रयास कर रहा है, परन्तु अन्य पूरक स्थितियों को नजरअंदाज किये हुये है।

मातृ मृत्यु दर - प्रति एक लाख प्रसव पर प्रदेश की 498 महिलायें मौत के मुँह में चलीं जाती हैं, यह दर बहुत उच्च है जो कि अन्य प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेश को तीसरे स्तर पर लाती है। प्रदेश में प्रतिवर्ष 13,000 महिलायें प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं, यानि प्रतिदिन 35-36 महिलायें असमय काल का षिकार बन जाती हैं। ये वे महिलायें हैं जिन्हें बचाया जा सकता है।

हम देखते हैं कि प्रदेश में आज भी लगभग 70 प्रतिशत घरों में होते हैं। और उन घरों में होने वाले प्रसवों में से भी लगभग 72 प्रतिशत प्रसव दाई/अप्रशिक्षित महिलाओं द्वारा सम्पन्न कराये जसते हैं।

सरकार सन् 2011 तक मात् मृत्यु पर नियंत्रण के दावे कर रही है। 10वीं पंचवर्षीय योजना के एप्रोच पेपर में सरकार ने यह लक्षित किया है कि वह 2007 तक प्रति लाख प्रसव पर 298 मातृ मृत्यु का लक्ष्य प्राप्त कर लेगी। ग्यारहवीं पंचवर्ष के मुहाने पर खड़ें प्रदेश के लिये आज भी यह आंकडा जादुई ही है। हालांकि प्रदेश में टीकाकरण का अभाव, पोषणाभाव, बाल्यावस्था के दौरान सामान्य व चिकित्सकीय सहायता का ना मिलना, बालिकाओं की उपेक्षा, सुरक्षित पेयजल का अभाव तथा पर्याप्त सड़कों का अभाव आदि ऐसे कारक हैं जो कि प्रदेश में बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति व अत्याधिक शिशु व मातृ मृत्यु को बनाये रखने में मददगार हैं।

मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य केन्द्रों में ढांचागत स्थिति -


प्रजजन एंव शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम (1997-2004) के अंतर्गत, किये गये प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आधार पर प्रदेश में स्वास्थ्य केन्द्रों में ढांचागत स्थिति का एक चित्र उभरा। यह चित्र प्रदेश में मातृत्व एवं शिशु स्वास्थ्य के लिये उठाये जा रहे प्रभावी कदमों की वास्तविकता परिलक्षित करता है। यदि हम पेयजल की स्थिति देखते हैं कि प्राथमिक, सामुदायिक व शहरी ईकाईयों में क्रमश: 58 प्रतिशत 58: एवं 21.73 प्रतिशत तथा 40 प्रतिशतए एवं स्वस्थ्य ईकाईयाँ में ही पेयजल की उपलब्धता है, मात्र 17.09, 10.86 तथा 17.77 प्रतिशत ईकाईयों में ही प्रसव कक्ष है तथा कुछ इसी तरह की स्थिति उपकरणों को लेकर है। चालू वाहन जो कि वह भी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सबसे कम यानि 9.06 प्रतिशत है। इस सर्वेक्षण से उभरे चित्रों में एक बात स्पष्ट परिलक्षित है कि इन विसंगतियों के बीच में भी सर्वाधिक सुविधायें शहरी क्षेत्रों भी स्वास्थ्य सेवायें लगभग नगण्य ही हैं।

स्तर

प्रतिवर्ष सर्वेक्षण

पेयजल

प्रसव कक्ष

दूरभाष वाहन (चालू हालत में)

वाहन (चालू हालत में)

प्रसव कक्ष उपकरण

एससी

386

224
(58.3 प्रतिशत)

66
(17.09 प्रतिशत)

8
(2.07 प्रतिशत)

35
(9.06 प्रतिशत)

85
(22.02 प्रतिशत)

सीएसी

46

10
(21.73 प्रतिशत)

5
(10.86 प्रतिशत)

10
(21.73 प्रतिशत)

31
(67ण्39 प्रतिशत)

21
(45.62 प्रतिशत)

एफआरयूएस

45

18
(40 प्रतिशत)

8
(17.77 प्रतिशत)

20
(44.44 प्रतिशत)

34
(75.55 प्रतिशत)

29
(64.44 प्रतिशत)

स्रोत : प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य सर्वेक्षण (1997-2004)


अतएव यह एक विडम्बना ही है कि सरकारें एवं और तो संस्थागत, प्रसव को बढ़ावा देने की बात कहती है और इल्ली और संस्थाओं को खस्ताहाल सर्वेक्षण से स्पष्ट है।

कालाबाजारी की भेंट चढ़ा दी गई लाख शिशुओं एंव 7 हजार प्रसूताओं की मौत


जैसा कि हम जानते हैं कि दर से किसी स्थिति की व्यापकता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। स्वास्थ्य विभाग कहता है कि विगत् वर्ष 2005-06 में कुल 1,71,6355 जन्म/प्रसव हुये और शासन के अनुसार 30,157 शिशुओं की मुत्यु हुई परन्तु भारत सरकार द्वारा जारी दर कहती है कि प्रति 1000 जन्म पर 79 शिशु मौत के मुँह में चले जाते हैं। इस दर को आधार मानकर विष्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि उपरोक्त अवधि में 1,35,591 शिशुओं की मृत्यृ हुई है। अर्थात् लगभग 371 शिशु प्रतिदिन प्रदेश में मरते हैं।

भारत सरकार द्वारा जारी दर (498 प्रति लाख) के आधार पर किया गया विश्लेषण कहता है कि उपरोक्त अवधि में 8547 महिलायें मरीं।

अतएव प्रदेश में लगभग 1 लाख शिशुओं की तथा 7139 माताओं की मौत कागजों में दबा दी गई।

जन स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति –

जन स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति

संस्थायें

मानक के अनुरूप आवश्‍यकता

2001 की स्थिति

कमी

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