मध्यप्रदेश पर एक नजर

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अनियोजित विकास कार्यक्रमों और भ्रष्टाचार के कारण मालवांचल में पानी के संकट ने बहुत ही गंभीर रूप ले लिया है। यहां के 12 जिलों में रेगिस्तानीकरण की आहट को अब हर पल महसूस किया जा सकता है। मध्यप्रदेश के जिन इलाकों में भूजल स्तर खतरे के निशान से नीचे जा चुका है उसमें इस अंचल का हिस्सा सबसे बड़ा है।

मध्यप्रदेश अपने आप में ऐतिहासिक अनुभवों के संदर्भ में एक समृद्ध राज्य है। आज के राज्य, या कहें कि राजनैतिक मानचित्र ने तो 1 नवम्बर 1956 में रूप लेना शुरू किया था। यह रूप 1 नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के साथ ही बदल भी गया परन्तु इस राज्य का इतिहास भारतीय गणराज्य के हृदय क्षेत्र को कभी विस्मृत नहीं होने देगा। मध्यप्रदेश भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे पुराने-सबसे प्राचीन हिस्सों में से एक है। राज्य की राजधानी के पास बसे भीम बैटका में जो गुफायें और पाषाण चित्रकारी पाई गई है उससे यह सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक सभ्यता का प्रत्यक्ष गवाह रहा है। इतिहास के नजरिये से यह पाया गया है कि यहां पाषाणकालीन व्यवस्था से लेकर वर्तमान इतिहास तक के एक श्रृंखलाबद्ध जुड़ाव रहा है। वर्तमान समय के सामाजिक विकास की विडम्बनाओं और उपेक्षा की ही तरह मध्यप्रदेश के पुरातात्विक और ऐतिहासिक तथ्यों को भी नजरअंदाज ही किया गया है। यह राज्य भारत में पाषाण चित्रकला, प्राचीन गुफाओं और प्राचीन अवशेषों के मायने में सबसे समृद्ध राज्य है और यह सम्पदा राज्य के सीहोर, भोपाल, रायसेन, होशंगाबाद और सागर जिलों में पाई गई है। मध्यप्रदेश का यह इलाका गुप्तवंशियों के प्रभाव में आने के बाद गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। और इसके साथ ही हर्षवर्धन के साम्राज्य का हिस्सा बन गया और फिर जैसे कि राजशाही के इतिहास में होता रहा है वैसा ही भारत के इस विशाल मध्य प्रांत में भी हुआ।

जब बड़े साम्राज्य का विघटन होना शुरू हुआ तो मध्य प्रांत को छोटे-छोटे राज्यों (रियासतों में) तोड़ा जाने लगा ताकि कमजोर होने के बाद भी साम्राज्य इन छोटे-छोटे राज्यों पर अपनी हुकूमत कायम रख सकें। इसके बाद चंदेल वंश ने अपना साम्राज्य स्थापित किया; यह माना जाता था कि चंदेल वंश चंद्रमा से अवतरित हुये हैं। यह तो कोई नहीं जानता कि वास्तव में यह सच है या नहीं किन्तु 10वीं और 11वीं शताब्दी में चंदेल शासकों ने अद्भुत वास्तुकला के अकल्पनीय आयाम स्थापित किये। दुनिया भर में विख्यात खजुराहों के मंदिर इसी कलाकारी के नमूनें हैं। मध्यप्रदेश में सांची को विश्वप्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ के रूप में स्वीकार किया जाता है। पुरातात्विक अध्ययनों से पता चलता है कि यहां के स्तंभ, इमारतें, मंदिर और स्तूपों का निर्माण ईसा से 300 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा के बाद 12वीं शताब्दी के बीच हुआ है। इसके बाद धार के परमार राजा भोज ने भी इतिहास को अविस्मरणीय बनाने के काम किये। राजाभोज ने रायसेन जिले के भोजपुर गांव में शानदार शिवमंदिर बनवाया। 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में बुन्देला राजाओं ने ओरछा में मध्यकालीन वास्तुकला के अभूतपूर्व निर्माण करवाये। (भोपाल जो अब मध्यप्रदेश की राजधानी है) भी इतिहास का एक अहम् पन्ना है। केवल इसलिये नहीं क्योंकि यहां एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी मस्जिद है बल्कि इसलिये कि भोपाल रियासत पर बेगम का राज चलता था।

चंदेल शासकों के बाद प्रतिहार और गहावर राजपूतों ने महाकाव्यों और ग्रंथों में उल्लिखित देवताओं -नायकों के वंशज होने का दावा करते हुये राजकाज किया। यह राजवंश संसाधनों के अभाव में भी भोग-विलासिता पूर्ण मंहगी जीवनशैली अपनाते हुये खत्म हो गया। यद्यपि राजपूत बहुत शूरवीर और बहादुर रहे किन्तु सामंतवादी प्रवृत्ति के चलते ये मध्यक्षेत्र में मुस्लिम ताकत के विस्तार को रोक नहीं पाये। मालवा क्षेत्र के शासकों ने गुजरात के आक्रमणकारियों और सुल्तान (दिल्ली के मुगल शासक) के सेनापातियों से रणभूमि में संघर्ष करने की कोशिशें पूरे मुगल शासन काल में की। इतिहास में महान कहे जाने वाले मुगल शासक अकबर ने इस क्षेत्र के ज्यादातर राज्यों को हरा कर उन पर कब्जा कर लिया और फिर बची खुची जरूरत उनके पौत्र औरंगजेब ने पूरी कर दी। बस यहीं से सत्ता में अहसान और अहसान की चुकाने का दौर शुरू होता है। एक नजरिये से दिल्ली की मुगल सल्तनत ने इस क्षेत्र में उन घरानों और रियासतदारों को छोटे-छोटे राज्यों की सत्तायें सौंपी जो दिल्ली सल्तनत की मदद करते और उनके आदेशों का पालन करते थे। जहांगीर ने वीरसिंह देव को ओरक्षा की रियासत भी इनाम में ही दी थी। उन्होंने अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुलफजल, को ग्वालियर के पास खत्म करके जहांगीर की उन्नति के रास्ते के एक कांटे को जो मिटाया था।

इसके साथ ही कुछ राज्य बड़े राजपरिवारों की शाखाओं के रूप में अस्तित्व में आये। रतलाम और सीतामऊ के राजाओं के निकट संबंध जोधपुर (राजस्थान) के राजपरिवारों से रहे। समय का चक्र आगे बढ़ने के साथ-साथ मराठाओं की शक्ति पर अंग्रेजी राज का ग्रहण लग गया। अंग्रेजों ने बड़े ही सुनियोजित ढंग से मध्यप्रांत के छोटे-छोटे राज्यों के साथ संधियों के जरिये अपनी ताकत का विस्तार किया। ये राज्य इतने निष्क्रिय, निस्तेज और उदासीन थे कि यहां अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये अंग्रेजों को विकास की रणनीति अपनाने की जरूरत ही नहीं पड़ी और देश का यह हिस्सा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ता चला गया। ज्यादातर राजाओं - शासकों और रियासतदारों के सामने अविश्वसनीयता और अलोकप्रियता का ही संकट छाया रहता है। इसी के दूसरी तरफ अब यह जरूरत पता चलना शुरू हुआ है कि मध्यप्रांत के आदिवासी समुदाय ने गुलामी और साम्राज्यवाद के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी। इतिहास के पन्नें में अब भी यह संघर्ष बहुत गर्व के साथ नहीं लिखा जा रहा है। यह भी इतिहासकारों का एक भेदभावपूर्ण नजरिया है जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष को राजघरानों और ख्यातनाम उच्चवर्गीय परिवारों की कहानियों के आस-पास केन्द्रित रखा है। समुदाय के स्तर पर शुरू किये गये संघर्षों की कहानियां अब भी लिखी जाना बाकी है।

ऐसी स्थिति में ही एक उपनिवेशवादी व्यवस्था से भारत स्वतंत्र हुआ। जब 15 अगस्त 1947 को लाल किले पर तिरंगा फहराया गया तब भारत अपने आप में एक राष्ट्रीय ईकाई नहीं था बल्कि यह पांच सौ से ज्यादा स्वतंत्र रियासतों का संघ था। अंग्रेजी शासन के पहले भी यहां स्वतंत्र सत्ता थीं और अंग्रेजों ने भी इस विभाजन को बरकरार रखा था। भारत में कभी एक राष्ट्रीय सत्ता रही ही नहीं। यह सही है कि सामाजिक व्यवहार विश्वास, संस्कृति और रहन-सहन एक जैसा था किन्तु राजनैतिक सत्ता एक न थी। स्वतंत्रता के बाद सभी राज्य और रियासतों को भारत नाम की राष्ट्रीय राजनैतिक सत्ता का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य अस्तित्व में आया जिसमें मध्य प्रांत के राज्य और रियासतें भी शामिल थीं। इसके बाद 1 नवम्बर 1956 को मध्य प्रांत की रियासतों - राज्यों को मिलाकर मध्यप्रदेश का निर्माण किया गया। पूरे 44 सालों तक मध्यप्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से छत्तीसगढ़ को एक अलग राज्य का रूप दे दिया गया।

मध्य प्रदेश के बारे में कुछ तथ्य

क्र.

विवरण

संख्या

1.

जनसंख्या

6,03,85,118 (जनगणना 2001)

2.

पुरुष

3,14,56,873 (52.09 प्रतिशत)

3.

महिला

2,89,28,245 (47.91 प्रतिशत)

4.

स्त्री-पुरुष अनुपात

933-1000

5.

आदिवासी जनसंख्या

12233 (हजार में)

6.

दलित जनसंख्या

9155 (हजार में)

7.

क्षेत्रफल

308,000 (वर्ग किलोमीटर)

8.

राजस्व संभाग

9

9.

जिले

48

10.

तहसील

260

11.

विकासखंड

313

12.

आबाद गांव

51,808

13.

ग्राम पंचायतें

23051

14.

साक्षरता

64.11 प्रतिशत

15.

पुरुष साक्षरता

76.80 प्रतिशत

16.

महिला साक्षरता

50.28 प्रतिशत

17.

जनसंख्या घनत्व

196 प्रति वर्ग किलोमीटर

वर्तमान मध्यप्रदेश


वर्तमान मध्यप्रदेश की पहचान बीमारू (गरीब और पिछड़े) राज्यों के समूह के एक सदस्य के रूप में तो होती ही रही है किन्तु पिछले 15 सालों में अपने पिछड़ेपन की छवि से मुक्त होने के लिये इसने भरसक कोशिशें की हैं। ऐसी ही कोशिशें करते हुए मध्यप्रदेश देश का सबसे प्रयोगधर्मी राज्य बन गया। प्रयोगों की यह श्रृंखला सत्ता के विकेन्द्रीकरण यानी पंचायती राज से शुरू हुई, फिर जल संकट के समाधान के लिये जलग्रहण कार्यक्रम (जो कई नामों से संबोधित हुआ और अब जलाभिषेक के नाम से प्रचलित है) वन सम्पदा के संबंध में संयुक्त वन प्रबंधन, ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिये नर्मदा नदी पर बड़े-बड़े बांध और एशियाई विकास बैंक की शर्तों पर बाजारीकरण, कृषि के क्षेत्र में नकद फसलों का खूब विस्तार और अब निजी क्षेत्र की कम्पनियों को खेती-किसानी के काम में प्रोत्साहन, शिक्षा और स्वास्थ्य का काम अनुबंधित कर्मचारियों (एक तरह से ठेके के कामगार) से करवाना जैसे कई सारे प्रयोग इस राज्य ने कर डाले। इन प्रयोगों के पीछे वास्तव में राजनैतिक इच्छाशक्ति के बजाय ख्याति और व्यक्तिगत प्रचार की लालसा ज्यादा नजर आती है। ज्यादातर कार्यक्रम शुरू हुये पर बिना मुकाम तक पहुंचे ही या तो दम तोड़ गये या फिर उन्हें उदासीनता के सीखचों के पीछे बेड़ीबंद कर दिया गया।

सामाजिक व्यवस्था


इस राज्य में व्यापक सामाजिक-राजनैतिक विविधता से ज्यादा विरोधाभास देखने को मिलता है। मध्यप्रदेश भारत के हृदय स्थल में बसा हुआ हैं सामाजिक भेदभाव बुंदेलखण्ड- बघेलखण्ड अंचलों में कदम-कदम पर देखा जा सकता है। इस इलाके में सवर्ण और पिछड़े की पहचान ही समाज की पहचान बन जाती हैं भेदभाव और शोषण चरम स्तर पर है। मामला चाहे पानी का हो या फिर ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करने का; हर मौके पर इस टकराव (एक पक्षीय) को महसूस किया जा सकता हैं। इस भेदभाव के प्रति कोई सक्रिय प्रतिक्रिया देखने-सुनने को नहीं मिलती है। दलित और पिछड़े वर्ग के समुदायों ने इस भेदभाव को न केवल सामाजिक रूप से बल्कि राजनैतिक रूप से भी सामान्यत: स्वीकार ही किया है।

यह सामाजिक भेदभाव ग्वालियर-चम्बल अंचल में ठोस सामंतवाद का रूप ले लेता है। इस अंचल में भी सवर्ण और पिछड़े-दलित, दुनिया के दो ही पक्ष हैं, परन्तु जब इस दो पक्षीय सिक्के को उछाला जाता है तो ऊपर सवर्ण का पक्ष ही नजर आता है। लैंगिक आधार पर यहां मूंछ के सवाल पर बहस होती है। औरत के प्रति दोयम दर्जे की अमानवीय मानसिकता के चित्र चारों ओर नजर आते हैं। कोई परिवार नहीं चाहता है कि उसके यहां बेटी का जन्म हो; यदि बेटी जन्मती है तो उसकी समाज में ताकत कम होती है, उसे जीवन में बार-बार झुकना पड़ता है। यदि बेटी जन्मती है तो दुश्मनों को उसकी कमजोरी हाथ लग जाती है। चूंकि सवाल मूंछ का होता है इसलिये लड़की का जन्म एक अभिशाप माना जाता है। सामाजिक लड़ाई में औरत एक राज्य भी होती है और हथियार भी। पितृ सत्तात्मक समाज इस राज्य पर कब्जा करने के लिये इसी हाथियार का उपयोग भी करता है। यही कारण है कि ग्वालियर-चम्बल के इलाके में भ्रूण परीक्षण पर अब भी कोई कानूनी नियंत्रण नहीं है और यदि भ्रूणहत्या से बच कर जन्म ले भी लेती है तो उसे या तो खाट (चारपाई) के पाये के नीचे दबा दिया जाता है या फिर अफीम चटाकर मार दिया जाता है। इसी अंचल के भिण्ड-मुरैना जिलों के नाम उन जिलों की सूची में सबसे ऊपर शुमार होते हैं जहां लिंग अनुपात तेजी से घट रहा है।

महाकौशल अंचल मुख्यत: आदिवासी बहुल इलाका है। यहां बैगा, गोंड, भारिया, अगरिया जैसी आदिम जनजातियाँ निवास करती हैं। यह इलाका प्राकृतिक संसाधनों (खासतौर पर जंगल से मिलने वाले उत्पादों के संदर्भ में) के मामले में भरापूरा है। नर्मदा नदी इस इलाके के ज्यादातर क्षेत्र को नम बनाती है। जैसा की आमतौर पर होता है, जहां संसाधन होते हैं, वहां संसाधनों पर कब्जे के लिये स्वाभाविक रूप से संघर्ष पनपता है। यहां भी यही हो भी रहा है। आदिवासी बहुल इलाकों पर वनविभाग की सत्ता चलती है और जीवन बसर कर सकें, इतनी छूट आदिवासियों को सरकार से मिली हुई है। यहां चूंकि जंगल अधिकता में है इसलिये लोग भूख से नहीं मरते हैं; वर्ना अधिकार के नाम पर इन आदिवासियों का खाता खाली है। पिछले कुछ समय से स्वैच्छिक संगठनों के प्रयासों से आदिवासियों के संगठित होने की प्रक्रिया शुरू हुई है और यही कारण है कि सरकार यह भी कहने लगी है कि मण्डला, डिण्डोरी और बालाघाट जिलों में माओवासी नक्सलवाद पनपने लगा है। जहां भी अधिकारों के लिये संघर्ष होता है उसे सरकारी परिभाषा में नक्सलवाद ही कहा जाता है।

मालवा और निमाड़ अंचल आर्थिक विकास के लिये कृषि क्षेत्र में नवाचार की भूमि बना। भारत में सोयाबीन का सबसे ज्यादा उत्पादन मध्यप्रदेश के इसी इलाके में होता हैं किसानों ने नकद फसल के रूप में पहले सोयाबीन और फिर कपास के जैव-परिवर्धित बीजों (बीटी कपास) को प्राथमिकता के साथ अपनाया। यह भी एक आदिवासी बहुल इलाका है। झाबुआ, धार, बड़वानी, खरगौन, खंडवा जिलों में ज्यादातर जनसंख्या आदिवासी समुदाय की है और इन्हीं जिलों में नर्मदा नदी पर बने बड़े बांधों (सरदार सरोवर, महेश्वर और इंदिरा सागर) के कारण लाखों आदिवासी परिवारों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा। राज्य की बिजली की जरूरत को पूरा करने के लिये दुनिया की एक सबसे पुरानी नर्मदा घाटी की सभ्यता को डुबाया जा रहा है; यही आज की विकास की परिभाषा की सबसे कड़वी सच्चाई है।

विकास के इस कुरुक्षेत्र में इस मर्तबा कौरवों को पलड़ा भारी नजर आ रहा हैं नकद फसलों और बीटी बीजों के कारण समुदाय और पर्यावरण दोनों को नुकसान हो रहा है, फिर भी बाजार के दबाव में उसे प्रोत्साहित किया जा रहा है। अनियोजित विकास कार्यक्रमों और भ्रष्टाचार के कारण मालवांचल में पानी के संकट ने बहुत ही गंभीर रूप ले लिया है। यहां के 12 जिलों में रेगिस्तानीकरण की आहट को अब हर पल महसूस किया जा सकता है। मध्यप्रदेश के जिन इलाकों में भूजल स्तर खतरे के निशान से नीचे जा चुका है उसमें इस अंचल का हिस्सा सबसे बड़ा है।

राजनैतिक व्यवस्था


प्रदेश के अलग-अलग अंचलों का चरित्र और विशेषतायें अलग-अलग हो सकती है किन्तु राज्य स्तर पर राजनैतिक व्यवस्था शांत और स्थिर ही रही है। दो अवसरों को छोड़कर राज्य में राजनैतिक सत्तायें अपने कार्यकाल पूर्ण करती रही है और जब भी कार्यकाल पूरा नहीं हो पाया, तब दोनों ही मर्तबा गैर-कांग्रेसी राजनैतिक दल सत्ता में रहे हैं। अक्सर कांग्रेस एक के बाद एक चुनाव जीतकर सरकारें बनाती रही हैं और दो कार्यकाल एक साथ पूरे करने में (यानी 10 साल राज करने के बाद) के बाद ही सत्ता में बदलाव की स्थिति बनी है। आज मध्यप्रदेश में दो तिहाई बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है किन्तु अब राजनैतिक ध्रुवीकरण को नजरअंदाज करना जरा कठिन है। जिस तरह देश के पचपन फीसदी संसदीय क्षेत्रों पर क्षेत्रीय (खासतौर पर गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपा) राजनैतिक दलों का नेतृत्व उभरकर आया है वैसा मध्यप्रदेश में अब तक नहीं हो पाया है। यह जरूर कहा जा सकता है कि अब ऐसा होने के आसार बन रहे हैं।

महाकौशल अंचल ऐतिहासिक रूप से विशाल गोंडवाना राज्य का प्रभावशाली केन्द्र रहा है। यह एक आदिवासी बहुल इलाका है। पिछले छह-सात सालों में इस क्षेत्र में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी अस्तित्व में आई और एक आश्चर्यचकित करने वाला मुकाम हासिल कर गई। हमें यह याद रखना होगा कि गोंडवाना राज्य की ऐतिहासिक अवधारणा केवल गोंड आदिवासियों के राज्य तक ही सीमित नहीं है किन्तु गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने गोंड आदिवासियों की नृ-जातीय अस्मित (संस्कृति, रहन-सहन, ध्यान-व्यवहार और हकों) को आधार बनाकर राजनीति के पटल पर प्रवेश किया और महाकौल में एक अच्छा-खासा आधार बना लिया।

बुंदेलखण्ड-बघेलखण्ड अंचल ज्यादातर उत्तरप्रदेश की सीमा से सटा हुआ है और राजनीति के तल पर भी इस अंचल में उत्तरप्रदेश की राजनीतिक विचारधारा का प्रभाव महसूस किया जा सकता है। इस क्षेत्र में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का आधार धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है। ग्वालियर चम्बल के इलाके में भी बहुजन समाज पार्टी का राजनैतिक आधार बढ़ता सा नजर आता है। इस राजनैतिक ध्रुवीकरण से यह एक संभावना नजर आती है कि समाज में गहरे पैठ बना चुके वर्गभेद और शोषण के विरूद्ध एक राजनैतिक वातावरण बन रहा है। यह राजनैतिक बदलाव झारखण्ड मुक्ति मोर्चा या तेलंगाना की तरह बहुत तेजी से आगे बढ़ता नजर नहीं आ रहा है। संभवत: यह माना जा सकता है कि भीतर ही भीतर सामाजिक भेदभाव के खिलाफ एक राजनैतिक विकल्प की संभावनाओं की तलाश हो रही है।

मानव विकास के मुद्दे


इसमें कोई शक की बात नहीं है कि राजनैतिक रूप से शोषण और वर्गभेद के प्रति एक किस्म की सामाजिक उदासीनता रही है। ठीक उसी तरह मानव विकास के मुद्दों के संदर्भ में भी व्यापक राजनैतिक उदासीनता को महसूस किया जा सकता है। कृषि सामाजिक और राजनैतिक अर्थव्यवस्था में एक अहम योगदान देती रही हैं। राज्य की 73 फीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है किन्तु अर्थव्यवस्था में इसका योगदान केवल एक चौथाई रह जाता है। कृषि के प्रति राज्य का नजरिया बहुत सकारात्मक नहीं रहा; शायद इसीलिए कृषि के विकास के लिये जो कदम 30-40 साल पहले उठाये जाने चाहिये थे, वे कदम आज तक नहीं उठाये गये। मसलन आज भी 25 से 30 फीसदी जमीन पर सिंचाई की सुविधायें उपलब्ध हैं और भू-सुधार कार्यक्रम आज तक वास्तविक रूप में लागू नहीं हो पाये। लगभग 70 से 75 प्रतिशत जमीन पर साल भर में केवल एक ही फसल उगाई जाती है; फिर भी किसानों को अच्छी गुणवत्ता का बीज और खाद नहीं मिल पाते हैं। मध्यप्रदेश में 50 फीसदी किसान कर्जदार हैं और औसतन हर किसान पर 11 हजार रुपए का कर्ज है।

जंगल भी मध्यप्रदेश की एक बड़ी जनसंख्या के लिये आजीविका का स्रोत हैं किन्तु जंगलों के विनाश के लिये भी आदिवासियों-किसानों को अपराधी सिद्ध करने की कोशिशें की जाती रही हैं। अपनी दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिये लाई जाने वाली लकड़ी पर भारतीय वन अधिकार और वन संरक्षण अधिनियम लागू हो जाता है परन्तु सम्पन्नता के उपभोग की स्थिति में ये कानून आमतौर पर नजर नहीं आते हैं। आज भी लगभग 40 फीसदी गांव जंगल के भीतर या जंगल की सीमा से सटे हुये हैं और लगभग 24 फीसदी जनसंख्या के लिये जंगल से मिलने वाली लघुवनोपज जीवनयापन का बड़ा साधन है। परन्तु आज भी सबसे बड़ा सवाल यही है लाखों आदिवासी-किसान परिवारों को अतिक्रमणकारी कहकर उनकी नागरिकता पर ही सवाल उठा दिया जाता है।

आजीविका का सवाल अब जीवन का सवाल बन चुका है मध्यप्रदेश में दो फीसदी की दर से बेरोजगारी बढ़ रही है। एक ओर तो सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में भारी कमी हो रही है तो वहीं दूसरी ओर कृषि के प्रति सरकार का बाजारवादी रवैया उसे (कृषि को) अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा रहा है। आज मध्यप्रदेश की दो तिहाई आबादी (जिसमें छोटे और मझोले किसान भी शामिल हैं) के लिये न्यूनतम मजदूरी की दर पर दैनिक मजदूरी करना आजीविका का सबसे बड़ा साधन बन चुका है। क्या हमारे विकास की परिभाषा का दूसरा नाम आजीविका की असुरक्षा है?

वैसे स्वास्थ्य एक नजरिये से तो बुनियादी सेवा है किन्तु राजनैतिक संदर्भ में यह जीवन के बुनियादी अधिकार का एक रूप है। मध्यप्रदेश में मानव विकास का यह संकेतांक बेहद ही बदरंग नजर आ रहा है। राज्य में सरकारी स्तर पर साल भर में स्वास्थ्य के लिये कुल 200 रुपए के बजट की व्यवस्था की जा रही है जिसमें से अस्सी फीसदी बजट तनख्वाह और वेतन-भत्तों पर ही न्यौछावर होता रहा है। राज्य की स्वास्थ्य नीति में भी यह दर्ज है कि स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले हर एक सौ रुपए में से पचहत्तर रुपए निजी क्षेत्र में खर्च होते हैं। सवा छह करोड़ की जनसंख्या पर मध्यप्रदेश के अस्पतालों में कुल 21 हजार बिस्तर हैं और चालीस फीसदी पद खाली पड़े हैं। चिकित्साकर्मियों को तकनीकी शिक्षा तो मिली है किन्तु सरकारी उपेक्षा के कारण उनका व्यवहार भी अमानवीय होता है।

शिक्षा के बिना समाज का निर्माण संभव नहीं है परन्तु राज्य में शिक्षा के विस्तार के संबंध में दिये जा रहे आंकड़े समाज को और ज्यादा नुकसान पहुँचायेंगे। साक्षरता और शिक्षा की परिभाषाओं को विशेषीकृत करके देखने की जरूरत राज्य में जरूर नजर आती है। शिक्षा को अब संवैधानिक बुनियादी अधिकार के रूप में स्वीकार किया जा चुका है इसलिये मानव विकास के इस संकेतांक पर राज्य के कुछ सघन प्रयास हुऐ हैं परन्तु इसे मानव विकास के साथ राजनैतिक रूप से जोड़ कर नहीं देखा गया है। शिक्षा के लिये प्रयास करने का मतलब केवल प्रतिशत में विस्तार नहीं है बल्कि यह देखना है कि सामाजिक-आर्थिक उत्पादकता में इससे क्या वृद्धि होती है?

मध्यप्रदेश के बच्चों में (शून्य से छह वर्ष की उम्र) कुपोषण का स्तर आज भी चिंताजनक स्तर पर है। भारत सरकार और अन्य विश्वसनीय संगठन यह कहते रहे हैं कि मध्यप्रदेश में 55 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं। यह गंभीर मुद्दा इसलिये है क्योंकि 1975 से पोषण के अधिकार की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये एकीकृत बाल विकास परियोजना शुरू हुई थी और तीन दशकों के बाद भी बहुत से बच्चे कुपोषण के चंगुल में हैं। अब यह एक संकट के रूप में नजर आने लगा है क्योंकि बच्चों की असामयिक मौतें हो रही हैं और युवा वर्ग भी निर्धारित श्रम का निर्वहन नहीं कर पा रहे हैं। मानव विकास के एक सूचक के रूप में कुपोषण से मुक्ति के अधिकार को स्वीकार करना जरूरी है क्योंकि इसके बिना कोई भी सामाजिक विकास में उत्पादक भूमिका नहीं निभा सकता है।

मध्यप्रदेश में 49 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे रहकर जीवन बिताते हैं पर खाद्य असुरक्षा का संकट साफ तौर पर देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में रियायती मूल्य पर मिलने वाला राशन प्रदेश की 40 फीसदी जनसंख्या के लिये भोजन के अधिकार का आधार बन जाता है। इतनी बड़ी जरूरत के बावजूद राज्य में राशन की दुकानें लोगों की पहुंच में नहीं है और सरकार कुल जरूरत का 50 फीसदी ही राशन की दुकानों को भेज रही है और दुकानों का दरवाजा भी कभी-कभार खुलता नजर आता है। इन दुकानों से आम आदमी का विश्वास उठा नहीं है किन्तु सरकार इस विश्वास को उठा लेना चाहती है ताकि यह व्यवस्था बंद की जा सके।

मध्यप्रदेश के समाज कल्याण विभाग का सर्वेक्षण कहता है कि राज्य में लगभग 12 लाख व्यक्ति विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। हमें यह जानना होगा कि इस श्रेणी के लोग सबसे वंचित होते हैं। उनकी केवल क्षमताओं पर ही सवाल नहीं होता बल्कि सामाजिक उपेक्षा उनके दर्द को कई गुना ज्यादा बढ़ा देता है। इनके बारे में मिथ्या धारणायें हैं कि ये कोई उत्पादक भूमिका नहीं निभा सकते हैं। क्या वास्तव में विकलांगता का मुद्दा यूं ही छोड़ दिया जाना चाहिये?

पंचायती राज और ग्राम स्वराज के संदर्भ में मध्यप्रदेश एक प्रयोगशाला रहा है। अधिकार देना और अधिकार लेना एक प्रक्रिया का रूप ले चुका है। ऐसा कुछ अब भी नहीं हो पा रहा है कि स्थानीय अभिशासन की यह सोच एक व्यवस्था का रूप ले सके। सामाजिक-राजनैतिक जरूरत के बहुत से कानूनी प्रावधान पंचायत प्रतिनिधियों के लिये ही बनाये जा रहे हैं। परिवार नियोजन और घर में जलवहित शौचालय की शर्तें इन पर ही लागू हुई। आश्चर्य है कि यही एक व्यवस्था है जहां लोगों द्वारा चुने हुये जनप्रतिनिधि को एक प्रशासनिक अधिकारी पद से हटा सकता है। अब यह ठोस रूप से नजर आने लगा है कि इन व्यवस्था को राजनैतिक रूप से सशक्त ही होने नहीं दिया गया है। मुद्दा कोई भी हो; उसे राजनैतिक नजरिये से देखना होगा। संकट और समस्याओं का हल तात्कालिक सरकारी योजनाओं के जरिये खोजा नहीं जा सकता है। हम ऐसे ही मानव विकास के कुछ पक्षों पर नजर डालने की कोशिश कर रहे हैं।

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