मेरा पिथौरागढ़

1 Mar 2019
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गंगोलीहाट, पिथौरागढ़
गंगोलीहाट, पिथौरागढ़
उस समय मैंने जवानी की दहलीज में कदम रखा ही था। पिता का स्थानान्तरण चमोली के जनजातीय सीमान्त से कुमाऊँ के सीमान्त मुनस्यारी हो गया था। यह पिथौरागढ़ को छूने का मेरा पहला मौका था। बागेश्वर से कपकोट पैदल सामाधूरा से होकर परिवार चला जा रहा था। सारे रास्ते मुझे नीती घाटी वाले ही लग रहे थे। यहाँ बस नाम बदले थे –सामाधुरा, तेजम, गिरगाँव। बड़े-बड़े कुत्तों से बच रहा था। किसी ने बताया था कि अगर राख में गरम की हुई घुइयाँ किसी झपटते कुत्ते के आने पर फेंको तो वह स पर दाँत गड़ा देता है और उसकी सारी बत्तीसी बाहर आ जाती है। यह आजमाइश तो नहीं की पर कुत्तों ने हमेशा मेरी ग्यारह नम्बर की गाड़ी को पंक्चर किया।

तीसरे दिन जब कालामुनी होते हुए मुनस्यारी प्रिंसिपल बंगले पर पहुँचे तो अंधेरा हो चुका था। हमारे आते ही कृषि अध्यापक बेलवाल जी आ गये थे। साथ में उनकी तीन एक सी दिखती किशोर लड़कियाँ सामने पंचचूली चमक रही थी हल्की चाँदनी में। मैं और भी अचरज से उन लड़कियों को और इस नयी मुनस्यारी को देख रहा था। तभी टिन की छत पर खड़-खड़ हुई। ईजा चिल्लायी- कौन? कौन है? बेलवाल जी दौड़कर मुस्तैदी से बन्दूक ले आये। इधर-उधर भागते देखा और कहा- भालू ...एक रोमांच ने सारे शरीर को तान दिया। बेलवाल जी व्यावहारिक टीचर थे। वह कूदफाँद कर जमीन में पैरों के निशान सूँघते आये बोले, भाग गया।

चौथे दिन घर में कोई न था तो एक हादसा हुआ। एक मेरी ही उम्र की लड़की खुले ताजा-ताजा धुले बाल लिये सामने आ गई। मैं उसे देख, वह मुझे देख हकबक रह गई। अभी निकले सूरज ने उसके बालों को सहलाकर सुनहरा कर दिया था। उसका मासूम गुलाबी चेहरा सूरज के शेड लिये अंजुली में सम्हालने लायक हो रहा था। उसने दूध का बर्तन रखा और कुछ कहे बिना भाग गई। वह जनजातीय नहीं थी। इतने से ही मैं समझ गया था कि मुनस्यारी कुछ खास है। पाँचवें दिन चढ़ गया मैं खलिया टाप। जंगल आते हुए मैंने सुने युवक युवतियों के सवाल जवाब-

काटनै काटनै पौली औंछ चौमासी को बन
बगणिया पांणी थामी जाछ नी थामीनो मन।



हरै हर...। लोग उसमें मजाक में जोड़ते-हाड़ै हाड़ ...मासैय रत्तै नै।

यहाँ चाहे प्यार हो या भूख, सब प्रकृतिस्थ था। गमसाली में सिर्फ जनजातीय ही थे। यहाँ जनजाति-गैर जनजाति की मिली-जुली संस्कृति थी, जिसका रंग सुनहरा, दूधिया, हवा से भरा, तन्हाइयों और शोर के मिश्रण से बना था। हम हमेशा हँसते रहने वाले भोले अर्दली से जिन्दगी के किस्से सुनते थे। जनजातीय बोली कुमाउँनी ही है। बस उसे लम्बा खींचते हैं जैसे- हाग खानू ऐ हाग. ई...।

तिकसेन की बाजार 7500 फीट पर हमारे लिये दिल्ली शहर था। ऐसी बाजार हमने कभी न देखी थी। घर के अन्दर दुकानें थीं। यहाँ के गम्भीर कुँवर सिंह जलेबी बनाते। उनकी दुकान में ‘क्यू’ लगती थी। कुछ ही देर के लिये वह खुलती थी। सुना था कि उन्होंने एस.डी.एम. के चपरासी को भी ‘क्यू’ में खड़े न होने पर लौटा दिया था। और थे कुंदन सिंह, मल्टी पर्पज पर्सनाल्टी। बेहतरीन फोटोग्राफर, दर्जी, ड्राइक्लीनर और सब कुछ। बिन्दास कलाकार की तरह मूडी। जब मन आये, तब काम किया वरना सोये या खोये।

यहाँ मैंने किये ड्रामे, नाच-गान। गणित के गुप्ता जी का ‘साइन स्क्वायर थीटा प्लस कॉस स्क्वायर थीटा इज इक्वल टू वन’ कभी समझ में नहीं आया पर उनका बजता हारमोनियम समझ में आता था जिसमें लोकगीत और कव्वाली होती और श्रीवास्तव जी की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री समझ में न आती पर उनके शेर उर्दू न जानते हुए भी समझ में आ जाते थे। यहाँ धन्नू राम और अन्य साथियों के साथ टैम्परैलू नी मिली... धरती माँ धध्यून छू... ठंडो ठंडो पानी हवा मजेदार के भलौ मानीछ मेरो मुनस्यार गीत गाये और जिये। खूब एकान्त सेका।

यहाँ की जनजाति में राठों का बहुत महत्व है। मेरी प्रकृति ज्यादा खोज की न थी। एक बार हमारा सारा बैच ही फेल हो गया। पर इसी बैच में एक से एक अफसर निकले। यशपाल पागंती को पूरी डिक्शनरी याद थी। लकड़ी फाड़ते समय लकड़ी का टुकड़ा एक आँख में आ गया। एक आँख तो गई पर त्रिनेत्र खोल गई। आज वह जाने-माने वनस्पतिशास्त्री हैं।

एक दिन हमारे पिताजी नैन सिंह-किशन सिंह की डायरी, अक्षांश दर्पण ले आये। उनकी डायरी पर हमारी दिलचस्पी कम रही पर उनकी कुंडली जो आधा फर्लांग दूर तक जाती थी, हम भाई-बहन उसे खोलकर आनन्द लेते थे। इन महान खोजियों की डायरी की महत्ता का इल्म हमें न था।

घाटी के लोग जरा अलगाव रखते थे। अपने ही ग्रुप में रहते थे। पर धीरे-धीरे कुछ दोस्त भी बने। भगतसिंह मेहता। जबरजंड तीन फेफड़े वाला ताकतवर, लम्बा-चौड़ा और एक शान्त गाँधीवादी मंगलसिंह मर्तोलिया... सीधा-सा हरीश रावत और भी...।

यह प्रतिभाओं का देश था। कैसे-कैसे लोग हर मामले में आगे बढ़े। साहित्य, पर्वतारोहण, पत्रकारिता, खोजी, सब विश्वप्रसिद्ध। गन्दरैंणी, थोयो, राजमा, आलू के बेहतरीन स्वाद से भरे इन लोगों को कभी मैं खा-पचा जाना चाहता था।

बाद में यहाँ अध्यापक और पैदल यात्री के रूप में आया। पंचचूली को फिर से तलाशा। मूडी गोरी गंगा का बहाव देखा। बर्बाद होते मदकोट, जौलजीवी के मेले को देखा। यारसागुम्बा के लिये घुटनों के बल क्रॉलिंग करते लोगों को देखा। बढ़ते पर्यटन, बनती बेतरतीब बस्ती, कटते जंगलों और गाड-गधेरों के पवित्र साफ पानी को पॉलीथिन गन्दगी के साथ बहते देखा। थोयो, गन्दरैंड़ी व जम्बू से छौंका लगाये आलू का स्वाद अभी भी बरकरार है पर प्रकृति अब उदास और बीमार सी लगी। कुँवरसिंह की जलेबी नहीं है। इस देश में ज्ञान था, अहसास था और बहुत दूर तक फैला स्वच्छ नीला आसमान था। अब जंगल धराशायी हैं। तिकसेन बाजार बढ़ा है पर उदास है और सबसे बड़ा राजनीति का फैलता विषदन्त देखा। एक ओर जनजाति का विजय जुलूस निकल रहा है तो दूसरी ओर गैर जनजाति का विरोध जुलूस। बेशरम राजनीति ने दोनों को भिड़ा दिया। अब सारे गाँव गिरगाँव से लेकर मुनस्यारी तक और फिर मुनस्यारी से मिलम तक धंस रहे हैं। भू-स्खलन में रपटे जा रहे हैं।

बी.ए. करने आया तो ओगला से पैदल। राम सिंह जी की एक दिन ही मुलाकात पिताजी से ऑडिट में हुई तो इतनी अन्तरंगता निभायी कि वे मुझे अपने घर ले गये।

सोर्यालियों की फौजी विशेषता है। पसन्द आ गये आप तो हाथों-हाथ लेंगे। नहीं तो, चलो तुम अपनी डगर। जल्दी ही बहक जाने वाले, ठगे जाने वाले। उस समय यहाँ के दुकानदार आरामतलब थे। सामान को देते समय दुखी लगते थे। एक बुकसेलर तो हमेशा ध्यान में रहते। एक दुकानदार शतरंज खेलते समय मात की स्थिति आती तो ग्राहक को सामान होते हुए भी कहते, ‘नहीं है सामान’। अल्मोड़े के गुण वाली दुकानें स्पेशल तो नहीं हैं पर साह जी की जलेबी माहौल को रस भरा गर्म रखती है। पुनेठाजी की बेकरी की खमीरी खुशबू भाती है। ऐसी बेकरी पहाड़ में नहीं है। मेघना का विशाल साम्राज्य है तो पूजा स्वीट, सत्कार आदि भी जीभ को लुभाते मुँह में पानी लाते हैं।

पिथौरागढ़, गंगोली, लोहाघाटियों और अन्य मिश्रित संस्कृति से बना है। गंगोली सब को रमोलने वाले लोहाघाटी बिजनेस मैन के बीच सोरियाली पिसा तो नहीं है पर पनपा भी नहीं, ऐसा एक बौद्धिक सोर्याली कहते हैं।

मैं जब स्कूल में आया तो हवाई चप्पल पहने था पैंट कमीज सब चिथड़ी सी। एक फिलॉसफी मेरी विकसित थी- हर एक को तुम्हारी तरह ही खुश होने का हक है। उस हक के लिये प्रयास करो और जो इस हक का विरोध करता है, उसका विरोध करो। फिर 15 अगस्त का दिन आया। मैंने एक भाषण दिया, एक शेर मारा-

ऐ चिंया मशा न दे हुकूमत पर पेस्तर सब गंवार बैठे हैं
इनसे इंसाफ की तवक्कू क्या सब झकमार बैठे हैं।


बस फिर लगातार तालियों की गड़गड़ाहट हुई। सीनियरों ने मुझे हाथों हाथ ऐसा लिया की जमीन में फिर कभी उतारा ही नहीं। सीनियर मेहरबान थे। के.के. भट्ट सारी डिक्शनरी रटने वाले थे और ब्रिगेडियर कहलाने वाले होशियार सिंह स्मार्ट सीनियर थे। कृष्ण भट्ट, धामी जी...। हैप्पी सेन फुटबाल खिलाड़ी जो वन विभाग की नौकरी छोड़कर आये थे, स्टेज में टाई पहिनकर गाते-

उट्ठैं रत्ते रत्ते ब्याणं धरि चून्हें में अधांण बांधि
हटकै कमर उठी कसी धुरे की घसियारि।


यहाँ के लोगों की लम्बाई तथा स्वास्थ्य पर मैं फिदा था। अभावों के बावजूद भी यहाँ के खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर के थे। उन्हें मौका मिलता तो वह गोल्ड मेडलों की ढेर लगा देते। फुटबाल यहाँ का प्रिय खेल था। जिबिया अपनी एक टूटी टाँग में मारफिया का इंजेक्शन लगा के खेलते थे। सुना, उनकी टाँग बंगालियों ने डूरेंड में तोड़ दी थी। उनका क्या बॉडीडाज था? ऐसा साफ-सफाई से खेलने वाला मैंने नहीं देखा। उन्हें जिबिया अड़ान कहते थे यानी अड़ जाने वाला। त्रिलोक सिंह डूरंड और भारत से खेले थे। महेन्द्र सिंह महर उर्फ ‘महू’ का हैड का कोण गजब था तो नीली आँखों वाले नीलवरन की सौट और संतोष, चंद महेश जोशी का दमदार खेल एक आनन्द था।

फुटबाल यहाँ दन्त कथा सा था और खिलाड़ी उसके देवता। हरि सिंह, हरिदत्त कापड़ी, ओ.पी. वर्मा, हरिप्रिया, उमेद सिंह, धरम सिंह तथा गजब के फॉरवर्ड दिनेश पांडे। एक थे मध्यम भारत, काले लम्बे। क्या गोली थे? बस यही था, अगर कोई दर्शक कह दे- यमराज, तो वह गोल पोस्ट छोड़कर मारने आ जाते थे। उनके रहते गोल हो ही नहीं सकता था। एक दिन चैलेंज किया, कोई गोल मार दे तो सौ रुपया। कोई नहीं मार पाया। फिर एक बच्चे को कहा तू मार। बच्चे ने मारा तो बाल जाने दी और उन्होंने सट्ट से उसे वो नोट दे दिया। सुना, वे दो जुड़वाँ भाई थे। बॉक्सिंग के फाइनल में दोनों पहुँचते, फिर फोड़म फोड़ खुन्योल। इस पर माँ ने कहा-एक फुटबॉल खेलेगा, एक बॉक्सिंग।

कॉलेज में एक बार मैंने यूनियन बनाने के लिये रातों-रात पोस्टर विद्यासागर, देव सिंह मित्रों के साथ मिलकर चिपकाये। उस समय के प्रिंसिपल डॉ. बम्बवाल सुबह बजेठी में दहकते हुए आये चिल्लाये- किसने लगाये ये पोस्टर। सब चुप्प। आखिर मैंने क्रान्तिकारी लहजे में कहा- मैंने चिपकाये पोस्टर, मैंने की ये बगावत...। डॉ. साहब की दहाड़ नरम फुसलाहट में बदल गयी। बोले- हाँ बेटे, कोई नहीं। तुम्हारे पिताजी तो मेरे दोस्त हैं... हम तुम्हारे अंकल हुए...। उस समय बॉर्डर में ऐसे यूनियन की माँग करना बहुत बड़ी बात थी। यह क्रान्ति का अन्दर का मामला, रास्ता माँग रहा था। आर.एस.एस. भी एक बार इसी भाव में ज्वाइन की कि दूसरे दिन रज्जू भैया आ गये। सबने कहा जब वह पूछेंगे-संघ आयु, तो कहना-एक साल।

रज्जू भैया ने पूछा तो मैंने कहा- शून्य। इस पर रज्जू भैया ने मुझे गौर से देखा और संघ चालक से कहा- इस लड़के पर ध्यान दो। यूनियन बनने की इस क्रान्तिकारी मुहिम को रोका उस समय के डी.एम. वासुदेवम ने। उन्होंने मुझे बुला भेजा। वह महान प्रशासक से ज्यादा इंसान थे। मुझसे बोले- बेटा, पहिले कुछ कन्सट्रैक्टिव करो फिर लड़ो। मैंने चैलेंज स्वीकार किया और एक तीन घंटे का नाटक किया। जिसमें निर्देशन संतोष चंद ने किया। हेम शर्मा, बहादुर सिंह गोबाड़ी, जितदा, ललित पंत, देव सिंह, जीवन सिंह खर्कवाल और बहुत से लोग थे। मुन्ना भाई शाह अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष सज्जा वाले। दिवानी राम द्वारा बनाये गये स्टेज में हिमालय ऐसे चमक रहा था, मानो अब बर्फ पड़ी, तब पड़ी। वह वाकई दीवाना था। दीवानगी में ही चल भी बसा।

नाटक ने 1968 में पाँच हजार रुपये पूअर ब्वायज फंड के लिये पैदा किये। डी.एम. वासुदेवम ने नाटक खत्म होते ही पीठ थपथपाकर कहा- ‘वैल डन माइ बॉय। यू क्रिएटेड हिस्ट्री... मैंने कहा –सर हिस्ट्री! तो बोले – हाँ, जो रुके तालाब में लहर पैदा करते हैं, वही हिस्ट्री बनाते हैं। पिथौरागढ़ में मशाल जुलूस निकाला। छूरे से अपने हाथों से खून निकालकर साथियों को अपने खून का तिलककर जीने मरने की कसम भी खायी। कभी मस्ती में रात के जाड़ों में उलका देवी के बैंच पर रातभर ठंड में सिकुड़ता भी रहा। रातभर जलती बस्ती को देखता रहा। सुबह उठा तो बैंच में रखी कोलतार से चिपका मिला।

हर जगह सामने दिखती जिन्दगी से अलग एक गुप्त जिन्दगी भी चलती है। मैं उसमें भी शामिल था। यहाँ स्मगलिंग है, तिब्बत-नेपाल की संस्कृति का दोहरा प्रभाव भी। नेपाल यहाँ का प्राण है। काली नदी सीमा विभाजन है पर दिलों का नहीं। इसलिये यहाँ कुछ और भी था जो रात के अंधेरे और उजाले में कुछ बुनता था। मैं एक दुस्साहसी के रूप में जान गया था तो इस दुनिया के लोग मेरे पास आते थे। उस समय ओमजंग नेपाल में बागी जुमला के राजा के रूप में थे। उनके साथी मुझे कुछ करने को कहते थे। रात में मैंने एक रोमांच भाव में गाड़ियों के पट्टे और अज्ञात सामान भी चुपचाप ढोये।

एक बार मुम्बई के दादा उम्मेद सिंह से मुलाकात हुई तो दोस्ती हो गई। रामसिंह दूध-दही वाले की दुकान में उसने अपने अपराधी बनने की दास्तान और किस्से सुनाये और फिर खूब रोया। मैंने कहा, ‘जमाने की निर्दयता से क्रान्तिकारी भी तो बनते हैं’ तो उसने कहा- ‘अब यह भी तो है किसके हाथ पड़ते हो...।’ बाद में सुना गाँव वालों ने ही उसे मार दिया। जेल में ही सुरंग बना देने वाले सरकिया चोर से भी मुलाकात एक बार हुई। चौरशास्त्र के इस निपुण कलाकार ने सवाल करने पर कहा- अरे ये तो हुनर है। इसमें क्या शरम? लोग तो नकाब पहिने चोर हैं। मैं तो खुले आम हूँ। उसने शहर के कुछ बड़े लोगों के स्मगलिंग के किस्से बतलाये।

एक बार मेरे घर में एक लम्बे चौड़े दाँत बाहर निकले आदमी ने दस्तक दी। उसने मुझे डाका डालने का ऑफर किया। कहा- ये काम कर दो। जो चाहो वह मिलेगा –लड़की, पैसा, हथियार...। मैंने कहा- पिस्टल चाहिए। वह बोला- पिस्टल बोले तो? वह अलीगढ़ जेल से भागा अपराधी था। अकल ठीक रही मैंने इसे नहीं स्वीकारा। पर वह बहुत समय तक मुझे कभी गाँव कभी मेरे घर ढूँढ़ता रहा और मैं भागता रहा।

मैं जितना कॉलेज में ऊपर था, अपनी कार्यवाहियों में नीचे तक गड़ा था। पता नहीं क्या बेचैनी थी, जो आज भी बरकरार है। उस समय सिनेमा लाइन में एक होटल जलयोग खुला। उसका मालिक दाढ़ी लिये ऋषि लगता था। परीक्षा चल रही थी इसलिये घर से आये पैसे एडवांस में दे दिये। मालिक बनारस का था। बहुत मधुर बोलता। मुझसे कहता- आप तो जड़भरत हो और एक दिन परीक्षा के बाद वहाँ गया तो देखा होटल गायब है। वह भाग गया और मुझे जड़भरत ही बना गया। तीन दिन तक खाना नहीं खाया। परीक्षा चल रही थी। साथियों ने भद्यालबाड़ा में किसी पहचान की महिला को बताया। वह आई, एक थप्पड़ मारा। खुद रोई मुझे भी रुलाया। बोली- इतना खयाल है तुम्हें अपने माँ-बाप का? अगर मर जाते तो हम क्या मुँह दिखलाते। क्यों हम पर पाप चढ़ाते हो? फिर खिलाया। क्या लोग थे! प्यार से लबालब छलकते। उसी समय मोहन कार्की का प्रताप सुना, जिन्होंने एक भैंस ही गधेरा पार करने के लिये ऊपर उठा ली थी। सबने आश्चर्य किया तो बोले, ये तो मैं हमेशा करता हूँ।

एक बार डिस्ट्रिक रैली में रस्साकसी की विजेता टीम से शमशेर जंग ने रस्साकसी करने की ठानी। शमशेर जंग उस समय के बॉस थे। उनकी दुकान का मीट प्रसिद्ध था। वो भी महाबली-बाहुबली थे। वो और मोहन सिंह एक ओर लगे, दूसरी ओर विजेता टीम। जोर आजमाइश हुई। रस्सा एकबारगी विजेताओं की तरफ हिला। फिर कुछ रुका। बस एक मिनट, फिर एकाएक पतंग की तरह तीन महाबलियों ने खेंच मारा विजेताओं को। सब एक-दूसरे पर गिरते पड़ते उस ओर आ लगे। फिर शमशेर जंग ने सौ का नोट निकाला। हारे लोगों के कप्तान को देकर बोले-लो दूध पियो, ताकत बढ़ाओ और मेरी दुकान में मीट खाओ।

हरक सिंह एशिया चैम्पियन बॉक्सर था। सुना इंग्लैंड में वह लड़ने वाले थे वर्ल्ड चैम्पियन से। जीत जायेंगे सोचकर डॉक्टर ने घोषित कर दिया कि उनकी हाथ की नसें फटी हैं।

और थे अम्बादत्त, कव्वाल नैनसिंह। पहाड़ में दोनों पहले कव्वाल थे। क्या खनकदार आवाज-

मेरे दिल की दुनिया बसाते नहीं तो हर घड़ी याद आने से क्या फायदा। और फिर सूफियाना कलाम- है कहूँ तो है नहीं, नहीं कहूँ तो है इन दोनों के बीच में कुछ न कुछ तो है…

यहाँ कोई नदी नहीं थी पर रंधौल, चिमसिया नौले और महादेव का पानी काफी था बहने के लिये। इसकी आत्मा में धड़कता है अभी भी किसी सरोवर का दिल। यहीं थे हिमानी गुरू। उनका हिमानी होटल था। रसगुल्ले गुलाबजामुन से भरी उनकी दुकान और रस से भरा उनका दिल। कविता भी सुनाते और गरम गुलाब जामुन भी खिलाते। फिर अचानक सब छोड़कर न जाने कहाँ चले गये –तुम न जाने किस जहाँ में खो गये...

पीने के शौकीन लोग तो सोर के प्रसिद्ध हैं। अल्मोड़े वाले कहते थे- चाऊ मयी सुर्यालै बोतलै बोतलै पीजानी, 200 कमूंनी 400 कर्ज कर जानीं।

बहुत जिन्दगी जीने के बाद उसका मोह मौत का भय दे देता है और अध्यात्म पनपता है। उसकी दुकानें भी खुल जाती हैं। माया के डर से सब स्वर बन्द पेटी की धौंकनी खट से बन्द- गेहला पातला न्योली बासैछी, घामिला दिना उदास लागैछी। फिर एक लम्बा घाम आ जाता है। मेरा नेपाली दोस्त था गोपाल राम, बिल्कुल काला। उसकी चमकती गहरी प्यार भरी आँखें और हर बात पर हँसी। उसने मुझे प्यारी नेपाली बोली से परिचित करवाया। बहुत अच्छा गायक था वह। गाता था- “सीरी री बतास चल्यो बनैय मां बनैय मां लौ माया न मारैय – हजुर को माया बिरसैय को छैय ना मन में बसैय को...। रेल चल्यो घुरघुरैय सैलाई बार बज्या जुनाली रात मां...। माया लग्छ बौल्न सकदैय ना...।” उसी से मुझे मालूम हुई नेपाली संगीत साहित्य की गहराइयाँ।

बुलाकी राम ने तो सारे नेपाल-पिथौरागढ़ में संगीत की नदी बहा दी थी। उसे समेटा था गोपाल राम ने...। उसने मुझे बतायी दशरथ चंद की शहादत। ठुकनै हुस्स... राणा शाही... जुमले के राजा ओमजंग का कत्ल... और एक बार शहर में निकला खुखरी जुलूस। मैं नेता था और तब एक चाँदी की खुखरी भेंट की थी हमारे दोस्त बहादुर थापा ने। गोपाल राम ने मुझे एक फौजी की डायरी भी दी थी। जो शुरू होती थी रोमन में लिखी इबारत से –ग्रिनेड की चार किस्में होती हैं, फिर एलएमजी की रचना फिर गीत ही गीत- फिल्मी, नेपाली, कुमाउँनी। युद्ध के दर्द को समेटा था छोटे-छोटे भावों से...। कीन्हें पै आऊछ ये पापी जोवन मन को बेहाल छ… गीत ही तो सहारे हैं।

फिर वापस आया 1999 के अन्त में। अपने दो बच्चों व पत्नी के साथ लेक्चरर बनकर पिथौरागढ़। सुबह मॉर्निंग वॉक में कुत्ते लिये वॉकरों से, हवा में उड़ते पॉलीथीन से ही अन्दाज लगाया, कुछ बदल गया है। कुत्ता कल्चर आ गया है। फिर भी कुत्ते कहीं न कहीं तो बेहतर होते हैं। उनकी आँखों में बेवफाई नहीं होती। दिन रात रेता-बजरी आ रहा है। जहाँ बासमती बसती थी, वहाँ भी मकान। खेती चौपट। भ्रूण हत्याएँ, नाली में मिलते नवजात शिशु... सुबह रिंच लेकर नल खोलते लोग और मोटी हल्दी सोर्याली के अन्दाज से बनी गोविन्दबल्लभ पन्त की मूर्ति के आगे आजादी के हाल बेहाल दिखे। कहते हैं, जिस जगह का जैसा कल्चर होता है वैसा ही वहाँ की अभिव्यक्ति भी होती है। यहाँ गाँधी जी के नीचे अंडे चलते हैं तो धारचूला के गाँधी, ‘मोहनदास, करम चन्द ह्यांकी’ लगते हैं। सोर के सोर्याली मच्छर भी यहाँ के लोगों की तरह मोटे ताजे होते हैं पर बाहर के लोग कहते हैं, ये काटते नहीं। काटेंगे भी तो मलेरिया नहीं होगा। कभी थलकेदार की बर्फ यहाँ बाजार में बिकने आती थी पर अब यह धरती बर्फ के लिये तरस गयी। मौसम बदला, लोग बदले और पहचान बदली। बच्चे गायब हैं। ज्ञान की बातें करते हैं। मधुर बोलते हैं।... कुकुर फरैग्यान नानतिन हरेग्यान…

फिर रिटायर हुआ। पैदल यात्रा की। देखा आजादी के इतने दिन बाद भी चारों ओर अभाव ही अभाव। न बिजली, न सड़क, न पानी, न जवानी। खाली होते मकान, खत्म होती कृषि तथा पानी के स्रोत। चारों ओर शिकायत पर कहीं था आत्मविश्लेषण भी। नैनी से नीचे उतरते एक वृद्ध मिले। दर्जी थे। उन्होंने कहा-हम अपनी नाप के आदमी हैं। मुसलमान ठेकेदार अचार के आम भर के ट्रक में ले जा रहा है। और ये निकम्मे बाजार में गप्प मारके उसके लिये कह रहे हैं, देखो ये हमारे आम बेचकर अमीर हो रहा है। हम निकम्मे हैं...। पूछने पर कि अंग्रेजों से यह राज्य कितना अच्छा है तो बोले –अपना राज्य। पहले अंग्रेजों के बोझ बोक बोक कर कमर तोड़ी। अब कम-से-कम अपना ही बोझ लेते हैं। अपने पराये हुए तो क्या करें...। मदकोट जाते समय एक किसान मिले तो बोले- मैं औरतों के साथ काम करता हूँ। वही सब काम करेंगी तो मर नहीं जायेंगी? रास्ता दिखाकर बोले- ये रास्ता है। चलना तो हमने है, सरकार क्या करेगी?... रास्ते में उन्होंने पुदीना बोया था। बोले, इसीलिये बोया है कि लोग गन्दगी न करें और चलते लोगों को खुशबू आये। खुशबू फैलाना भी तो हमारा काम है...। पुल, रास्ते, पानी नहीं, शिक्षा नहीं। राज्य बना, क्यों बना...।

तीस साल पहले जहाँ से चला था, वहाँ अभी भी कुछ न बदला था। घाटियों में पपीता, आम, केला सड़ रहा था, जानवर खा रहे थे। झूलाघाट से आगे एक डॉक्टर की उपाधि लिये ढेले फोड़ रहा था। किसी दुकानदार ने इशारा कर कहा- माओवाद नेपाल से नहीं यहाँ से आयेगा... हमें एसएसबी की जरूरत नहीं, पानी बिजली सड़क की जरूरत है। गाँव बांजे पड़ गये हैं। कौन रहेगा गाँव में? गर्ब्यांग जाते समय छियालेक के लिये चढ़ाई आती है। वहाँ लिखा था खेद है कष्ट के लिये... मेरे दिमाग में आया- खेद है इस सरकार के लिये। खेद है इस नौकरशाही के लिये कि आजादी के बाद भी सड़क नहीं बिजली नहीं। सारे गाँवों में सरकार के बिना चल रहे हैं लोग..। गर्ब्यांग धँस रहा है। जीवन धँस रहा है। एक गाँव में एक वृद्ध से पूछा, भाजपा कैसी चल रही है तो बोले- आं... वालै जुंगै जुंग रैग्यान...। क्या कांग्रेस क्या यूकेडी क्या भाजपा! जब अंग्रेज गये तो उनकी जगह हमारे लोगों ने ली, अब राज्य बना तो पहाड़ियों ने ...। अब अपनों से क्या कहें? अपना सिक्का खोटा तो क्या होने वाला ठैरा। अब तो शिकायत का हक ही मर गया है हो उप्रेती ज्यू। मैंने कहा, बड़ी गहरी बात कह दी आपने। तो बोले- आ...छड़, क्या गहरी बात! तुमने पूछा हमने कह दी। टाइम कट गया ठैरा।

पॉलीथीन उन्मूलन पर काम यहीं के दिलदार लोगों के साथ किया। राजेन्द्र रावत, कर्नल रौतेला, कैप्टन बिष्ट, डॉ. खर्कवाल, सूबेदार मोहन सिंह रुमाल, डॉ. गिरीश पंत, गोविंद उपाध्याय, अशोक जोशी, बाहुबली मल्ल, वर्मा जी, उस समय के व्यापार संघ के रावत जी, बिजली वाले बिष्ट जी, भुवनचन्द्र उप्रेती जी और भी बहुत। सबने मिलकर छः महीने मुहल्ले-मुहल्ले जाकर सफाई की। नाली से कूड़ा निकाला। एक संदेश दिया कि यह सब होता है। कर्नल रौतेला कहते थे- यह फौजियों का घर है। यहाँ लोग समझते हैं डिमॉन्स्ट्रेशन से। और हमने डिमॉन्स्ट्रेशन दिया और भी काम हुए। उस समय के एस.डी.एम. सुभाष उत्तम ने आदेश से पॉलीथीन बन्द कराया।

अब निर्माण जोरों पर है। के.एम.ओ.यू. के स्टेशन में नेपालियों के बदले बिहारियों का मेला सुबह ऐसा लगता है कि जैसे पटना में हैं। अब छोड़िये यह तो बहुत लम्बी दास्तान है। तब से नदी में पानी बहुत बह गया है। अब पीठ पर तगड़ी धप्प किसी सोर्याली की नहीं पड़ती- और के हुम्यरान। सोर्याली की पहचान इस गदर में गायब हो रही है। फिर भी लोग कहीं लड़ रहे हैं। भले ही नये राज्य ने सबके चेहरे उतार दिये फिर भी लोगों में जागरण आया है। अच्छा सोच, अच्छा लेख लिख रहे हैं। रई झील और बेस अस्पताल के लिये लोग सजग हैं।

मालूम हो रहा है कि शोषण है, पूँजीवाद फैल रहा है, अपने पंजे कस रहा है। अब एक से एक दुकानें हैं। एक से एक शोरूम। हर दिन चार कार-दस मोटर साइकिलों का प्रवेश यहाँ होता है।

अंग्रेजी स्कूल बहुत खुल गये हैं। छोलिया ने बाजार पकड़ ली है तो तरक्की कर रहा है। अब तो कैसेट की बहार है। बिमला तेरो मोबाइल खूब चल रहा है। कुमाउँनी गानों की प्रतिभा ढूँढ हो रही है। होली चल रही है...। फौज में भर्ती कम है। कोई कहते हैं दिल की धड़कन बढ़ गई है। राज्य बनने से कोटा कम हो गया है। लोग कहते हैं राज्य बनने के बाद पिथौरागढ़ को कुछ नहीं मिला। किसको क्या मिला? ऊर्जा प्रदेश या फिर पर्यटन प्रदेश तो बिक गया। गाड-गधेरे, पानी सब बिक रहे हैं। नदियों का पानी खतम हो गया है। क्या-क्या कहें? निर्भाग्गी राजैक काथै काथै। आज सब कह रहे हैं, राजा नंगा हो गया है।

फिर भी यहाँ अभी रस है। उत्तराखंड के पहले करोड़पति यहीं के मालदार हैं। फिल्म निर्माता महेश भट्ट हैं। एक से एक खिलाड़ी हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मदन चन्द्र भट्ट तथा डॉ. राम सिंह हैं। गायक हैं। कवि सम्मेलन, छोलिया महोत्सव, शरदोत्सव होता है। बच्चे-बच्चियाँ फिल्मी रिकॉर्ड पर खूब नाचते हैं। लोग जुट ही जाते हैं। अभी भी सैनिक रण में मरते हैं। अब तार के बदले लाशें आती हैं। यह भड़ों का देश है। अंग्रेज उसे समझे थे, तभी तहसील में लिखा है- परगना ऑफ सोर एंड जुहार फार्म दिस विलेज 1005 वेन्ट टु दि ग्रेट वार 1914-1919 ऑफ दीज 32 गेवअप देयर लाइफ... दिस दैट दि डैड डाई नॉट।

बहुत समय से अल्मोड़े वाले डोटियाल कहते थे पिथौरागढ़ वालों को। पर अब भी जब अपने से ही खुंदक आती है तो यहाँ वाले खुद ही कहने लगते हैं- अरे तभी तो हमें डोटियाल कहते हैं। यह डोटियाल पिछड़ेपन का प्रतीक है। अल्मोड़े वाले इसे यहाँ हस्तान्तरित करते हैं, पिथौरागढ़ वाले झूलाघाट। झूलाघाट वाले आगे बैतड़ी और बैतड़ी वाले इस डोटियाल को इसके मूल घर डोटी में स्थापित करते हैं, जहाँ प्रचंड आ गये हैं। भारत के पूँजीपति उनसे घबराये हैं। प्रशासन-पुलिस इस भय को भुनाती है।

शिक्षा में मिशन को याद करना चाहिए। 1835 से पहले यहाँ एक ब्रिटिश आर्मी की रेजीडेंसी थी। फिर वह बरेली चली गई। मेजर ह्यूज ने यहाँ की बहुत सी जमीनें अपने कारिन्दों को दे दी और साढ़े छब्बीस एकड़ मिशन को दी। फिर यहाँ मिशनरी में शिक्षा कार्य शुरू हुआ, जिसमें क्रमशः मिस बडन, मिस लूइस स्लीवन, मिस स्लीन, मिस मोरो, मिस बैंजामिन, मिस रिचर्ड, मिस फ्रांसिस और मिस पी.सिंह आईं। एंग्लो वर्नाक्यूलर स्कूल ने धीरे-धीरे तरक्की कर इंटर तक शिक्षा बढ़ाई। मिशन ने शिक्षा प्रचार के साथ बौद्धिकता को जगाने का काम भी किया। एस.डब्ल्यू.एस. ने पहली बार लड़कियों की शिक्षा के लिये सजग कार्य किया। पर यह अफसोस रहा कि इस मिशन की लीज की जमीन को औने-पौने दाम पर स्वार्थी तत्वों ने बेच खाया। हार्बिड साहब कहते हैं- ग्रेबियार्ड तक बेच दिया गया...। अब वहाँ प्रभावशाली लोगों के प्लॉट हैं। अब कानून तो अपराधी ज्यादा जानते हैं, क्या करें? लोगों के खूब आन्दोलन इस बिक्री के विरुद्ध। दफा 107, 116 में जेल गये पर दफा कब क्या करती हैं?

आज मैं निराश हूँ। शायद निराशा ही असली सच है। नये मिजाज की दुनिया में दिल नहीं लगता पर इस पिथौरागढ़ के लोगों ने मुझे नवाजा है। यह मेरे हिस्से का नहीं, मेरा ही पिथौरागढ़ है। हवाई पट्टी में अभी कोई जहाज आया नहीं। देर सबेरे आयेगा। कौन कितनी उड़ान लेगा, वह उसकी माली हालत से तय होगा। पर कौन कितना अपने से उड़ता है, वह उसके अन्दर बैठे प्राण, जींस से तय होगा। रई झील, बेस कब बनेगा? देखें। मुझे तो विश्वेश्वर कोइराला का गीत याद आता है, जब वह जेल में थे- बन की मां चरीकैले सुन कठैये बैरी मेरो मन को बीलौना... अपनी धुन में गांऊथे उड़ते नाचथे अपनी ताल मां को पापी लै परे मलायी फंसे माया जाल मां। किसने फँसाया माया जाल में मुझे मेरे या किसी के कर्मों ने?

रात का अंधेरा आने लगा है। मैं जंगल हुआ जा रहा हूँ। बहुत से उम्दा दरख्त अब कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने लग गये हैं। मुझे यहाँ से जाना चाहिए। कुत्ते हूकने लगे हैं। और फिर गोपाल राम जो मेरे स्वरों में अभी है, गा रहा है-

निंग निंग न्यौली बासव सांझ को बैला जंगल को बाटैय ...खोल कै बागर मां कालो कुक्कु भुक्छैय लुकवामन ये डरायै हैरित कसरे लुक्छैय... जीवन का सांझें में एक बत्ती निम्द रहैछ...।

हाँ! जीवन की सांझ है। बत्ती कहीं दूर तो जल रही है।

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