महानदी की संस्कृति

29 Jul 2011
0 mins read
इस तरह से महानदी एक ओर देव संस्कृति को तो दूसरी ओर कृषि-संस्कृति को भी विकसित करने में सहायक है। जल ही जीवन का पर्याय है और महानदी में जल नहीं, बल्कि लोगों की जीवन धारा प्रवाहित हो रही है और सलिला के रूप में बिना किसी भेदभाव के एक माँ की तरह समस्त जीवधारियों को अपना तरल ममत्व लुटा रही है।

किसी समय हमारे देश में तीन प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व था। उत्तर भारत में आर्य संस्कृति जिसके प्रमुक राजा दशरथ थे, दक्षिण भारत में अनार्य संस्कृति जिसका प्रमुख रावण था और तीसरी संस्कृति देश के मध्य में आरण्यक संस्कृति के रूप में अस्तित्व में थी और इसके संरक्षक एवं प्रमुख महर्षि अगस्त्य मुनि थे। अगस्त्य मुनि ने अपने तपोबल से पृथ्वी, अग्नि, जल, आकाश, वायु जैसे पंच तत्वों पर अधिकार कर लिया था। ये पांचों तत्व सृष्टि के विकास के महत्वपूर्ण उपादान हैं। अगस्त मुनि, वनवासियों के गुरू व मार्ग-दर्शक थे। ऋक्ष और वानर, बाली, सुग्रीव, जामवन्त, हनुमान, नल, नील आदि अस्त्य मुनि के शिष्य थे। स्थापत्य और प्रस्तर शिल्प कला की शिक्षा नल और नील को अगस्त्य मुनि से ही मिली ती। पुष्पक विमान के निर्माता अगस्त्य मुनि ही थे। कहा जाता है कि भगवान आशुतोष (शंकर) जी अगस्त मुनि के आश्रम में कथा सुनने सिंहावा पर्वत पर अक्सर आया करते थे। इस तरह से महानदी का उद्गम स्थल सिंहावा स्वयं में एक गौरवमयी सांस्कृतिक इतिहास स्वयं में छिपाये हुए है। भले ही स्वयं को सुसंस्कृत कहने वाले लोग आदिवासियों को पिछड़ा घोषित करते रहें, किन्तु सच तो यह है कि आदिवासी, मानवीय मूल्यों सामाजिक मूल्यों एवं सास्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से विकसित कहे जाने वाले लोगों से कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं। यही कारण है कि ठक्कर बाप्पा और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू हमेशा कहा करते थे कि आदिवासी संस्कृति के उज्ज्वल पक्षों का संरक्षण किया जाना चाहिए।

महानदी देश की एक मात्र नदी है, जिसे महानदी कहा गया है। महानदी नाम की सार्थकता इसके उद्गम स्थल के पाट की विशालता के साथ जुड़ी हुई है। महानदी का उद्गम स्थल ही इतना विशाल रहा है, जहाँ नौकाओं द्वारा जल-यात्रा हुआ करती थी। गरियाबन्द के पास का स्थान जो मालगाँव के नाम से जाना जाता है, यहाँ इस क्षेत्र की व्यापारिक वस्तुएँ व्यापार के आदान-प्रदान के लिए किसी समय यहाँ रखी जाती थीं औऱ यहाँ एक बंदरगाह भी था।

महानदी नाम पड़ने का एक कारण इसमें निहित खनिज पदार्थों का पाया जाना भी था। महानदी में न केवल सोना, बल्कि हीरा आदि अनमोल रत्नों का भंडार भी है। पुरातत्वविदों का अनुमान है कि महानदी के दूसरे तट पर यदि उत्खनन की श्रृँखला चलाई जाये तो यहाँ रत्नों का अच्छा-खासा भंडार मिलने की संभावनायें हैं और देवभोग से प्राप्त हीरा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

महानदी के तट पर बसे छत्तीसगढ़ के राजिम क्षेत्र का अपना एक अलग ही माहात्म्य है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र को चित्रोत्पला नगरी, कमल क्षेत्र, पद्मावाती एवं पौराणिक आख्यानों में इसे देवपुरी के नाम से जाना जाता था। उत्तर प्रदेश के प्रयाग को गंगा यमुना एवं सरस्वती नदियों का पावन संगम होने के कारण जिस तरह त्रिवेणी संगम कहा जाने लगा, उसी तरह राजिम में महानदी, सोंढूर और पैरी नदियों के संगम के कारण इसे छ्त्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाने लगा। राजिम को यदि शिव क्षेत्र की संज्ञा दी जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि यहाँ शिव भगवान के नाम पर भिन्न-भिन्न नामों से कई मंदिर है, राजिम से संगम स्थल पर एक भव्य मंदिर है, जो कुलेश्वर महादेव मंदिर के नाम से सुविख्यात है। कुलेश्वर महादेव को पहले उत्पलेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता था। पाश्चात्य पुरातत्ववेत्ता वेलगर ने इस मंदिर को 8वीं-9वीं शताब्दी का मन्दिर माना है। शिवलिंग की उत्पत्ति के संबंध में जन-श्रुति है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ अपने वन गमन काल में यहाँ आये थे और उन्होंने यहाँ अपना कुछ समय व्यतीत किया था। सीता जी स्नान करने के बाद अपने इष्ट देव कल्याणकारी शिव जी की पूजा-अर्चना किया करती थीं। उन्हें जब यहाँ शिव की कोई मूर्ति नहीं दिखाई दी तो उन्होंने महानेदी की रेत से शिवलिंग का निर्माण किया औऱ कालान्तर में यही शिवलिंग कुलेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुआ। सीता जी ने रेत से बने शिवलिंग पर जैसे ही जल चढ़ाया तो उनकी अँगुलियों के बीच से जल की पंच धारायें निकलने लगीं और शिवलिंग ने पंचमुखी शिवलिंग का रूप धारण कर लिया। त्रिवेणी संगम पर जो पंचेश्वर महादेव और भूतेश्वर महादेव के मंदिर हैं, वे कलचुरी काल की स्थापत्य कला के अनुपम उदाहरण हैं। इस क्षेत्र के आसपास स्वयंभू लिंग हैं जैसे कि कोपरा में कोपेश्वर महादेव, फिंगेश्वर में फणेन्द्र महादेव, चम्पारण में चम्पेश्वर महादेव, पटेवा में पटेश्वर महादेव, ब्रह्मनी में ब्रह्मनेश्वर महादेव यह स्थल पंचकोशी नाम से जाना जाता है। और भक्त जन अपनी पंचकोशी यात्रा का शुभारम्भ कुलेश्वर महादेव के मन्दिर से करते हैं और यात्रा का समापन भी इसी मन्दिर में होता है। महाशिवरात्रि के पर्व पर इस क्षेत्र का महत्व और भी बढ़ जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है। श्रद्धालु जन संगम तीर्थ में स्नान कर पुण्य प्राप्त करते हैं। इस मेले के महोत्सव की संज्ञा दी गई है और अब यह राजिम मेला या महोत्सव साधारण सा मेला नहीं रह गया है। पावन महानदी के तट पर सुप्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर भी अवस्थित है। इस मंदिर के संबंध में एक जन श्रुति है कि राजीवा नाम की तेलिन प्रति दिन अपना तेल का पात्र भर कर बेचने जाया करती थी। एक दिन की बात है कि वह कुछ समय विश्राम के लिए बैठ गई और उसने अपना तेल से भरा पात्र वहीं पास में औंधी पड़ी एक शिला पर रख दिया।

कुछ देर विश्राम करने के बाद उसने अपना तेल भरा पात्र उठाया और पुनः तेल बेचने के लिए चल पड़ी। उसने पात्र का पूरा तेल बेचकर पात्र खाली कर दिया, किनतु उसने देखा और वह आश्चर्यचकित रह गई कि तेल का पात्र पुनः पूरा भर गया है। उसने यह घटना अपनी सास एवं अन्य सदस्यों को बतलाई, किन्तु उसकी बात पर किसी को सहज विश्वास नहीं हुआ। दूसरे दिन राजीवा तेलिन की सास तेल बेचने निकली और उसने भी अपना तेल का पात्र उसी शिला पर रख दिया और स्वयं विश्राम करने लगी। थोड़ी देर विश्राम करने के बाद वह भी तेल बेचने निकल पड़ी और उसके साथ भी वही घटना घटी और बेचने के बाद भी पूरा पात्र तेल से भर गया। राजीवा तेलिन के परिवार वालों ने इस शिला को अपने घर ले जाने की योजना बनाई और ले जाने के लिए जैसे ही उस औंधी पड़ी शिला को सीधा किया तो कोई साधारण सी शिला नहीं थी, बल्कि यह शिला विष्णु जी की प्रतिमा थी, कहा जाता है कि दुर्ग जिले के नरेश जयपाल को स्वप्न में उस प्रतिमा के दर्शन हुए और उनके मन में एक भव्य मंदिर का निर्माण कर उसमें उस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई और उसने राजीवा तेलिन से उस प्रतिमा की माँग की, किन्तु राजीवा तेलिन उस प्रतिमा को देने के लिए तैयार नहीं हुई और उसने शर्त रख दी कि वह मूर्ति तभी देगी जब उस मन्दिर और मूर्ति के साथ कहीं न कहीं उसका नाम भी जुड़ा होगा। कहा जाता है कि तभी से इसे ‘राजीव-लोचन’ मंदिर कहा जाने लगा और कालान्तर में अपभ्रंश के रूप में राजीव के स्थान पर राजिम शब्द का उपयोग होने लगा और यह ‘राजिम-लोचन’ मन्दिर के नाम से सुविख्यात हुआ। मन्दिर के विशाल प्रांगण में एक स्थान राजीवा तेलिन के लिए भी सुरक्षित कर दिया गया। राजीवा तेलिन विष्णु भगवान की अनन्य भक्त हो गयी थी और कहा जाता है कि जब उसने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली तो वह टकटकी बाँधे हुए विष्णु जी की प्रतिमा को ही भाव-विभोर हो देख रही थी और वह भगवान विष्णु को निहारते हुए ही सदा-सदा के लिए चिर निद्रा में लीन हो गई थी।

विष्णु जी की मूर्ति के संबंध में भी जनश्रुति है कि काँकेर के कंडरा राजा ने नगर ध्वस्त करने के बाद सोचा कि वह जहाँ जाएगा अपने साथ मूर्ति भी ले जायेगा, किन्तु मूर्ति ले जाते समय उसे मार्ग में कुछ अशुभ संकेत मिले और वह मूर्ति को रास्ते में औंधी फेंककर स्वयं आगे बढ़ गया। कहा जाता है कि वह वही मूर्ति है जो राजीवा तेलिन को औंधी पड़ी मिली थी।

किम्बदन्तियों का अन्त नहीं है। यह भी कहा जाता है कि महानदी के बीच जो कुलेश्वर मन्दिर है, उसे राजा मोरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज ने बनवाया था और जो भी इस शिव क्षेत्र में आता था, उसकी मनोकामना पूर्ण होती थी। यहाँ तक की यदि को गर्भवती स्त्री यहाँ आती तो वह पुत्रवती होकर ही वापिस लौटती थी। चम्पारण में महाप्रभुवल्लभाचार्य के जन्म की कथा को भी इस किम्वदन्ती के साथ जोड़कर देखा जाने लगा।

राजीव लोचन नाम के संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि भगवान के नेत्र राजीव के समान हैं। अतः इसका नाम राजीव लोचन पड़ गया जिसका अपभ्रंश राजीव से राजिम हो गया।

एक यह भी जन-श्रुति है कि विष्णु जी की नाभि से एक कमल प्रस्फुटित हुआ और इसी कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और जब यह कमल मुरझा कर झड़ने लगा तो इसके पत्तों से शिव की मूर्तियाँ प्रकट होने लगीं और वे चम्पेश्वर, वानेश्वर, फिंगेश्वर, कोपेश्वर और पाटेश्वर के रूप में विख्यात हुए। इस तरह से महानदी स्वयं में न केवल पौराणिक आस्था के महादेव, शिव, आशुतोष, शंकर और स्वयंभू को सहेजे हुए हैं, बल्कि आदिवासी संस्कृति के सबसे बड़े देव ‘बूढ़ा देव’ (महादेव) को भी स्वयं के तट पर सँजोये हुए हैं। इस तरह से महानदी अपने तट पर दो समानान्तर संस्कृतियों को अपने ममत्व से सलिला बन सिंचित कर रही है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading