मीडिया और नदी : एक नाव के दो खेवैए

14 Oct 2014
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प्रदूषित नदी
भारतीय जनसंचार संस्थान के परिसर में आने का पहला मौका मुझे तब मिला था, जब मुझे हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम में अस्थायी प्रवेश का पत्र मिला था। हालांकि उस वक्त संपादकीय विभागों में नौकरी के लिए पत्रकारिता की डिग्री/डिप्लोमा कोई मांग नहीं थी, सिर्फ सरकारी नौकरियों में इसका महत्व था, बावजूद इसके यहां प्रवेश पा जाना बड़ी गर्व की बात मानी जाती थी। यह बात मध्य जुलाई, 1988 की है।

कोई डाक्टर शंकरनारायणन साहब यहां के रजिस्ट्रार थे। स्थाई प्रवेश की अंतिम तिथि तक मेरे विश्वविद्यालय द्वारा डिग्री/अंकपत्र जारी न किए जाने के कारण संस्थान ने मेरे लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। इस पूरी प्रक्रिया में मेरी और संस्थान की कोई गलती नहीं थी। यह एक व्यवस्था का प्रश्न था। किंतु तब तक मैं न व्यवस्था को समझता था, न मीडिया को और न नदी को। आज साम्य की दृष्टि से मैं जनसंचार यानी ‘मास कम्युनिकेशन’ को नदी के ज्यादा करीब पाता हूं। आज महसूस करता हूं कि व्यवस्था, नदी और जनसंचार.. तीनों में ही अद्भुत साम्य है।

समानता के सूत्र


गौर करें तो स्पष्ट होगा कि व्यवस्था, नदी और जनसंचार.. तीनों का लक्ष्य परमार्थी है। तीनों का काम, प्रकृति प्रदत्त जीवन की गुणवत्ता, जीवंतता और समृद्धि को बनाए रखने में अपना योगदान देना है।

तीनों में शामिल होने वाले घटक इनकी गुणवत्ता और स्वाद तय करते हैं। प्रत्येक नदी, व्यवस्था और जनसंचार माध्यम की अपनी सामर्थ्य, सीमा, भूगोल, चरित्र और आस्था होती है। इनके अनुसार ही तीनों को अपनी नीति व कार्यों का निर्धारण तथा निष्पादन के तरीके खोजने होते हैं। तीनों का यात्रा मार्ग चुनौतियों से खेलकर ही विस्तार हासिल कर पाता है। प्रकृति, इसके जीव व संपदा को हम नाव मान लें, तो नदी, जनसंचार और व्यवस्था.. तीनों एक नाव के तीन खेवैयों की तरह है। अतः तीनों के मूल स्रोत निर्मल होने चाहिए। तीनों का मालिकाना प्रदूषकों, शोषकों और अतिक्रमणकारियों के हाथ में नहीं होना चाहिए।

अपने-अपने पंचतत्व


तीनों के अपने-अपने पंचतत्व हैं। भ से भूमि, ग से गगन, व से वायु, अ से अग्नि और न से नीर यानी भगवान। यह भगवान, प्रकृति के पंचतत्वों का भी समूह है और नदी के पंचतत्वों का भी। ऊपरी तौर पर देखें तो संपादक, संवाददाता, गैर संपादकीय सहयोगी, मशीनें तथा श्रोता/पाठक/दर्शक के नाम से जाने जाना वाला वर्ग हमें जनसंचार माध्यमों का पंचतत्व लग सकते हैं, लेकिन असल में इन सभी के बीच संवाद, सहमति, संवेदना, सहभाग और सहकार..जनसंचार के पंचतत्व हैं। किसी भी व्यवस्था के सहभागी भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मूल पंचतत्व यही पांच सूत्र हैं।

पंचतत्वों से कटने के नतीजे बुरे


उक्त तीन ही नहीं, जैसे ही किसी भी संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया व विशेषण का उसे निर्मित करने वाले मूल तत्वों से संपर्क कटेगा, उसकी जीवंतता नष्ट होने लगेगी। वह अपना मूल गुण व गुणवत्ता खोने लगेगा।

जब हम नदी को सुरंग में कैद करते हैं; उसके तल से, सूर्य, प्राकृतिक हवा तथा उसके प्राकृतिक तल, ढाल तथा कटावों से उसका संपर्क काट देते हैं। नाद् स्वर से नदी शब्द की उत्पत्ति है। जब हम नदी को बैराजों व बांधों में कैद करते हैं, नदी अपना नाद् स्वर खो देती हैं। इसी तरह राजमार्ग पर दौड़ लगाना, कितु पगडंडी से कट जाना; जनसंचार माध्यमों को लोगों की संवेदना और सोच से काट देता है।

जनसंचार का नाद् मद्धिम पड़ जाता है। जैसे कोई मलिन नाला जुड़कर नदी को प्रदूषित कर देता है, उसी तरह जनसंचार में काले धन व मलिन विचार के प्रवाह का समावेश प्रदूषण का कारक बनता है। व्यवस्था में निरंतरता और नूतन की स्वीकार्यता का प्रवाह रुक जाए अथवा वह किसी एक वर्ग के हित में बंध जाए, तो उसके चरित्र का पानी सड़ने लगता है। दुनिायाई अनुभव यहीं हैं।

जुड़ाव जरूरी


अतः जनसंचार, व्यवस्था और नदी.. तीनों के लिए जरूरी है कि किसी भी स्थिति-परिस्थिति में इनका इनकेे पंचतत्वों से संपर्क कटने न पाए। आत्मसंयम, निरंतरता, संवेदना, सहभाग और संवाद का बने रहना..तीनों की बेहतरी और जीवंत बने रहने के लिए एक जरूरी शर्त की तरह हैं।

जिस तरह नदी अपने प्रवाह के मार्ग में मौजूद पत्थरों से टकराकर उनसे ऑक्सीजन ग्रहण करती है, उसी तरह व्यवस्था और जनसंचार माध्यमों को भी चाहिए कि वे चुनौतियों से टकराने से डरें नहीं, बल्कि अपने प्रवाह को बनाए रखते हुए उनसे यह मानकर टकराएं कि उनका संघर्ष उन्हें और शक्ति प्रदान करेगा। बार-बार टकराने का नतीजा यह होगा कि एक दिन चुनौतियां खुद घिस-घिस कर ‘कंकर-कंकर में शंकर’ वाली दशा में चली जाएंगी। आखिरकार लोग नदियों को जीवंत बनाए रखने में कंकरों की भूमिका को देखते हुए ही तो शंकर की भांति कंकर की पूजा करते हैं।

जिस मीडिया साथी समूह तथा उसके पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों के बीच निर्मल संवाद, सहमति सहभाग, सहकार व संवेदना की निरंतरता कायम रहती है, वह मीडिया समूह जनसंचार के असल मकसद से कभी कट जाए; यह अप्रत्याशित घटना होगी।

जड़ों से कब जुड़ेंगे जनप्रतिनिधि?


जहां तक हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल है, हमारे जनसेवकों व जनप्रतिनिधियो ने जनजीवन से कटकर अपना एक ऐसा अलग रौबदाब व दायरा बना लिया है कि जैसे वे औरों की तरह के हाड़-मास के न होकर, कुछ और हों। प्रचार और विज्ञापन की नई संचार संस्कृति ने उन्हें जमीनी हकीकत व संवाद से काट दिया है।

सोचिए ! क्या हमारी पंचायत और ग्रामसभा के बीच, निगम और मोहल्ला समितियों के बीच सतत् और बराबर का संवाद है? हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री अपने को भले ही प्रधानसेवक कहते हों, लेकिन क्या हकीकत यह नहीं है कि गांव के प्रधान से लेकर ऊपर तक नीति, विधान, योजना व कार्यक्रम व्यापक सहमति से बनाए व चलाए जाते हैं?

क्या हम और हमारी सरकारें दोनोें एक-दूसरे के लिए ढाल बनकर खड़ा रहने को लालायित दिखाई देते हैं? क्या हमारा सरकार के निर्णयों-कार्यक्रमों में बराबर का सहभाग और सहकार रहता है ? यदि ऐसा नहीं है, तो स्पष्ट है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने पंचतत्वों से पुनः जुड़ने की जरूरत है। कौन करेगा? कैसे होगा? ये अलग चर्चा के विषय हैं।

नदी की सीख


खैर, मुझे लगता है कि मीडिया व व्यवस्था को आज नदी से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। जिस तरह नदी अपने प्रवाह के मार्ग में मौजूद पत्थरों से टकराकर उनसे ऑक्सीजन ग्रहण करती है, उसी तरह व्यवस्था और जनसंचार माध्यमों को भी चाहिए कि वे चुनौतियों से टकराने से डरें नहीं, बल्कि अपने प्रवाह को बनाए रखते हुए उनसे यह मानकर टकराएं कि उनका संघर्ष उन्हें और शक्ति प्रदान करेगा।

बार-बार टकराने का नतीजा यह होगा कि एक दिन चुनौतियां खुद घिस-घिस कर ‘कंकर-कंकर में शंकर’ वाली दशा में चली जाएंगी। आखिरकार लोग नदियों को जीवंत बनाए रखने में कंकरों की भूमिका को देखते हुए ही तो शंकर की भांति कंकर की पूजा करते हैं। इस पूरे घटनाक्रम के बीच नदी का धैर्य और आत्मसंयम भी गौर करने लायक तत्व है। ध्यान रहे कि नदी अपने धैर्य का तटबंध तोड़कर तभी भाग निकलती है, जब उसके भीतर दर्द रूपी गाद की अति हो जाती है। हमें चाहिए कि नदी के ऐसे सबकों से सीखने को हरदम तैयार रहें। क्या जनसंचार के माध्यम इस रास्ते पर हैं?

जन संचारकों पर सवाल


वाशिंगटन पोस्ट, दुनिया के सबसे नामी अखबारों में माना जाता है। यह एक ऐसा अखबार है, जिसके चलते अमेरिका जैसे राष्ट्र के एक राष्ट्रपति को कुर्सी छोड़नी पड़ी। इससे भी बड़ी बात वाशिंगटन पोस्ट का नैतिक रूप से ऐसा ताकतवर होना है, जैसे दुनिया के कम ही अखबार होंगे; बावजूद इसके, इसकी मालकिन को अखबार बेचना पड़ा। हालांकि उन्होंने इस भरोसे के साथ अखबार किसी कंपनी को न बेचकर एक व्यक्ति को बेचा कि कंपनी की तुलना में व्यक्ति की ईमानदारी, नैतिकता और संवेदनाओं को बचाकर रखना ज्यादा आसान होता है।

ऐसे शानदार अखबार के बिक जाने से यह सवाल उठना लाजिमी है कि किसी भी जनसंचार माध्यम को टिकाए रखने के लिए बुनियाद जमीनी सरोकार, तथ्य, खबर, संजीदा लेखों और नैतिकता की पूंजी जरूरी है अथवा विज्ञापन और प्रसार को जनसंचार माध्यमों की प्राणवायु माना जाए? ‘पेड न्यूज’ संबंधी संसदीय रिपोर्ट में भारतीय मीडिया की नैतिकता को लेकर उठाए सवाल चिंताजनक हैं। मीडिया के आत्मनियमन को लेकर भी सवाल उठते ही रहे हैं। मीडिया पर सारी नैतिकता त्यागकर आगे बढ़ने के अन्य आरोप भी कम नहीं?

मुमकिन है, जनसंचार की जीवंतता


ऊपरी तौर पर देखें तो वर्तमान परिदृश्य बिक्री और ‘टीआरपी’ की बुनियाद के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है जबकि दुनिया के विकसित कहे जाने वाले यूरोपीय देशों में टीवी चैनल व दूसरे नए मीडिया ने पूरे प्रिंट मीडिया को ही हाशिए पर डाल दिया है। काफी बंद हो चुके हैं; शेष बंद होने के कगार पर हैं। भारत में अभी गनीमत है। रात में खबर देखने के बावजूद सुबह-सवेरे अखबार के साथ चाय की चुस्की एक आदत की तरह बची हुई है।

आज हमारी नदियों पर बढ़े संकट की मुख्य वजह हमारा बढ़ता लालच, भोग और व्यावसायीकरण है। मैं कहता हूं कि एक क्षण को मान भी लिया जाय कि मीडिया सिर्फ एक व्यवसाय हो गया है, तो क्या यह भी मान लिया जाए कि फायदे के व्यापार में कायदे के लिए कोई जगह नहीं होती? क्या लाभ के साथ शुभ के संयोग की सभी संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं? मैं नहीं मानता। भारत की आजादी से लेकर आज तक देश के भिन्न सरोकारों में मीडिया की भूमिका गवाह है कि यह संभव है; व्यावहारिक है; हितकर है।

बिजली की लुकाछिपी, आर्थिक और दूसरे कारणों के चलते भारत की एक बड़ी आबादी के इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया की पहुंच से दूर होने का भी प्रिंट मीडिया की सुरक्षा में बड़ा योगदान है। ग्रामीण-सूदूर क्षेत्रों की दैनिक खबरों व हाशिए की जिंदगी में इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया की दिलचस्पी न होना भी एक कारण है। इन्हीं कारणों से भारत में प्रिंट मीडिया की वृद्धि दर नकारात्मक न होकर सकरात्मक है; 37 प्रतिशत!

विज्ञान जैसे भिन्न विषय पर उत्तर प्रदेश के प्रयाग स्थित विज्ञान परिषद द्वारा पिछले 100 वर्षों से विज्ञान पत्रिका को बिना रुके... बिना थके निकालना एक गर्व की बात तो है ही, यह उम्मीद भी जगाता है कि मात्र कुशल संपादन, नैतिकता और पाठकों से रिश्ते की पूंजी से साथ जनसंचार को जीवित रखना अभी भी मुमकिन है।

बदलाव का बाजार


चाहे नदी हो, व्यवस्था अथवा मीडिया; बदलाव के पीछे का एक कारण बहुत साफ है। कारण यह है कि आज भारत एक ऐसा देश है, जो वह नहीं रहना चाहता, जो वह है। वह कुछ और हो जाना चाहता है। 1991 में इलेक्ट्रॉनिक तरंगों के विस्तार से आई मीडिया चैनलों की बाढ़ में बह जाने के भय ने होड़ के हालात पैदा किए। आज भारत में करीब 800 टी वी चैनल और 450 एफएम स्टेशन हैं। 40 हजार करोड़ का मीडिया निवेश है। 14 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था है। आप प्रश्न यह उठा सकते हैं कि 120 करोड़ की आबादी में खरीद क्षमता 30 करोड़ के ही हाथ में है, तो मीडिया शेष 95 करोड़ की बात कर अपना वक्त क्यों जाया करे?

हम यहां क्यूं भूल जाते हैं कि एक आंकड़ा औद्योगिक उत्पाद का 45 प्रतिशत बाजार ग्रामीण होने का भी है। इस दृष्टि से तो मीडिया चाहे इलेक्ट्रॉनिक्स हो, ऑडियो या प्रिंट... सभी को चाहिए कि वे ग्रामीणों की मौत पर स्यापा गाने की बजाय, असल जगह उसके रोजमर्रा के सरोकार और जरूरी शिक्षण से जुड़े मसलों को दें। भारत का प्रिंट मीडिया, खासकर क्षेत्रीय मीडिया ऐसा कर भी रहा है। शायद इसीलिए वह कम आर्थिक पूंजी के बावजूद अभी बचा हुआ है।

हां, यह सच है कि’सत्यमेव जयते’ जैसे कार्यक्रमों को मिली व्यापक जनप्रशंसा के बावजूद, समाचार चैनलों के 24 घंटों में इसकी जगह थोड़ी ही है। भारत की मन-प्राण गंगा की व्यथा कथा व समाधान के स्वरों पर एक टेलीविजन संपादक सिर्फ इसलिए शृंखला कार्यक्रम नहीं बना सके क्योंकि मार्केटिंग विभाग ने नकार दिया। आज नई सरकार द्वारा गंगा को एक अभियान बनाए जाने की घोषणा पर अमर उजाला, दैनिक जागरण, सुदर्शन टी वी, एबीपी न्यूज समेत कई जनसंचार समूहों में कुछ इस पर अभियान चला रहे हैं, कुछ चलाने वाले हैं। यह विज्ञापन और व्यवसाय की हरी झंडी पर संपादकीय की गाड़ी को दौड़ाने का दौर है; बावजूद इसके कुछ साहसी संपादकों की वजह से उम्मीद कायम है।

लाभ के साथ शुभ के संयोग की उम्मीद


हम कहते हैं कि आज हमारी नदियों पर बढ़े संकट की मुख्य वजह हमारा बढ़ता लालच, भोग और व्यावसायीकरण है। मैं कहता हूं कि एक क्षण को मान भी लिया जाय कि मीडिया सिर्फ एक व्यवसाय हो गया है, तो क्या यह भी मान लिया जाए कि फायदे के व्यापार में कायदे के लिए कोई जगह नहीं होती? क्या लाभ के साथ शुभ के संयोग की सभी संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं? मैं नहीं मानता। भारत की आजादी से लेकर आज तक देश के भिन्न सरोकारों में मीडिया की भूमिका गवाह है कि यह संभव है; व्यावहारिक है; हितकर है।

वर्तमान भारत में मीडिया के विकेन्द्रित लाखों हाथों को देखते हुए कह सकते हैं कि उम्मीद अभी जिंदा है; आसमान अभी खुला है। अभी पूरे कुएं में भांग नहीं है। राष्ट्रीय दायित्व की पूर्ति को आर्थिक नफे-नुकसान की तराजू पर नहीं तोलने वाले अभी बहुत हैं। बहुत हैं, जो मानते हैं कि नकारात्मकता को नकराना और सकारात्मकता को फैलाना मीडिया ही नहीं, प्रत्येक नागरिक का राष्ट्रीय दायित्व है।

असल चीज है, इन बहुतों की पीठ को थपथपा देना। सम्मान से सिर पर उठा लेना। गलत को टोक देना; रोक देना भी मीडिया का दायित्व है। आइए! इसकी दायित्वपूर्ति में लगे। जिस दिन हम विशेष प्रयास करके यह करने लगेंगे, किसी वाशिंगटन पोस्ट के बिकने की नौबत नहीं आएगी। नदियों के साथ संवेदना रखने वाले जी उठेंगे; साथ-साथ नदियों के जीने की उम्मीद फिर से जी उठेगी।

मीडिया चौपालों की भूमिका अहम


इस क्रम में ऐसे मीडिया चौपालों की भूमिका बहुत अहम है। बहुत जरूरी है कि व्यापक सरोकार के विषयों पर मीडिया के साथी सतत् संवाद करें। कार्यशालाएं आयोजित हों, जिनमें विषय की बुनियादी समझ विकसित करने की कवायद हो। विषय को लेकर फैले भ्रम और हकीकत के बीच की खाई पाटी जाए। दिमागों के जाले साफ करने के नैतिक प्रयासों को भी गति दी जाए।

मीडिया साथियों के बीच यह न हो पाने का नतीजा है कि आज मीडिया में नदी जोड़ के पक्ष में खबरे हैं; संपादकीय हैं। फरक्का बैराज के कारण कष्ट भोगती बंगाल-बिहार की जनता का कष्ट सामने है, लेकिन गंगा जलमार्ग को लाभ का मार्ग मानकर, सभी के शुभ की उपेक्षा हो रही है और मीडिया में चिंता और चिंतन के प्रयास दिखाई नहीं दे रहे हैं।

तटबंध को लेकर कोसी, हर साल अपना दर्द बयां करती है। लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार गंगा एक्सप्रेस-वे को बनाने की जिद्द पर अड़ी है। पिछली मायावती सरकार ने इसके लिए गोलियां तक चलाने से परहेज नहीं किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा रोक के आदेश के बावजूद, बिना राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की मंजूरी मिले वर्तमान अखिलेश सरकार ने नया टेंडर निकालने की तैयारी कर ली है। मीडिया इसे एक अच्छी कोशिश के रूप में पेश कर रहा है। जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर मैंने मीडिया के कई वरिष्ठ साथियों के मन में दुविधा देखी।

नदी बेसिन की अपनी एक अनूठी जैवविविधता और भौतिक स्वरूप होता है। ये दोनों ही मिलकर नदी विशेष के पानी की गुणवत्ता तय करते हैं। नदी का ढाल, तल का स्वरूप, उसके कटाव, मौजूद पत्थर, रेत, जलीय जीव-वनस्पतियां और उनके प्रकार मिलकर तय करते हैं कि नदी का जल कैसा होगा? नदी प्रवाह में स्वयं को साफ कर लेने की क्षमता का निर्धारण भी ये तत्व ही करते हैं। सोचना चाहिए कि एक ही पर्वत चोटी के दो ओर से बहने वाली गंगा-यमुना के जल में क्षार तत्व की मात्रा भिन्न क्यों है?

बाढ़-सुखाड़ को लेकर मीडिया को लगता है कि सभी नदियों को जोड़ दें, तो सब जगह पानी-पानी हो जाएगा। सब संकट मिट जाएगा। जलापूर्ति के लिए पीपीपी मॉडल अपना लिया जाए, तो सभी को स्वच्छ पानी मिल जाएगा। वे जलविद्युत उत्पादन के प्रबंधन में शुचिता व पारदर्शिता की कमी पर गौर नहीं करते। उन्हें लगता है कि पर्यावरणवादी, विकास के दुश्मन हैं। मीडिया, जल-मल शोधन संयंत्रों को छोड़कर अन्य नदी सफाई के अन्य विकल्पों पर कभी-कभी ही चर्चा करता है।

जब मैंने लिखा कि घर-घर शौचालयों का सपना हमारी नदियों को निर्मल बनाएगा, तो मेरे कई मीडिया साथी पहले-पहल इसे सहज स्वीकारने को तैयार नहीं हुए। यह सब क्यों है? क्योंकि हमने कभी नदी, नहर, कृत्रिम नाले और पानी के बीच के फर्क को समझने की कोशिश ही नहीं की। इसकी एक अन्य और ज्यादा सटीक वजह मैं देखता हूं कि हमारे कई संपादक विषय की हकीकत से ज्यादा इस पक्षपात को ध्यान में रखकर विषय का पक्ष-विपक्ष पेश करते हैं, कि उनके मालिक किस राजनैतिक दल अथवा विचारधारा समूह का समर्थन करते हैं।

नदी पर समग्रता में विचारे मीडिया


मैं समझता हूं कि नदी से जुड़े उक्त तमाम विषयों में से प्रत्येक विषय, एक कार्यशाला का विषय हो सकता है। यहां प्रत्येक पर लंबी चर्चा संभव नहीं है; फिर भी यहां मैं इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि नदी की निर्मल कथा टुकड़े-टुकड़े में लिखी तो जा सकती है, सोची नहीं जा सकती। कोई नदी एक अलग टुकड़ा नहीं होती। नदी सिर्फ पानी भी नहीं होती। नदी एक पूरी समग्र और जीवंत प्रणाली होती है। अतः इसकी निर्मलता लौटाने का संकल्प करने वालों की सोच में समग्रता और दिल में जीवंतता और निर्मलता का होना जरूरी है।

गौर करने की बात है कि नदी हजारों वर्षों की भौगोलिक उथल-पुथल का परिणाम होती है। अतः नदियों को उनका मूल प्रवाह और गुणवत्ता लौटाना भी बरस-दो-बरस का काम नहीं हो सकता। हां! संकल्प निर्मल हो; सोच समग्र हो; कार्ययोजना ईमानदार और सुस्पष्ट हो, सातत्य सुनिश्चित हो, तो कोई भी पीढ़ी अपने जीवन काल में किसी एक नदी को मृत्यु शैया से उठाकर उसके पैरों पर चला सकती है। इसकी गारंटी है। चाहे किसी मैली नदी को साफ करना हो या सूखी नदी को ‘नीले सोने’ से भर देना हो...सिर्फ धन से यह संभव भी नहीं होता।

ऐसे प्रयासों को धन से पहले धुन की जरूरत होती है। मेरा मानना है कि नदी को प्रोजेक्ट बाद में, वह कोशिश पहले चाहिए, जो पेटजाए को मां के बिना बेचैन कर दे। इस बात को भावनात्मक कहकर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। कालीबेईं की प्रदूषण मुक्ति का संत प्रयास, सहारनपुर में पांवधोई का पब्लिक-प्रशासन प्रयास और अलवर के 70 गांवों द्वारा अपने साथ-साथ अरवरी नदी का पुनरोद्धार इस बात के पुख्ता प्रमाण है।

नदी का दर्शन


नदी की समग्र सोच यह है कि झील, ग्लेशियर आदि मूल स्रोत हो सकते हैं, लेकिन नदी की प्रवाह को जीवन देने का असल काम नदी बेसिन की जाने छोटी-बड़ी वनस्पतियां और उससे जुड़ने वाली नदियां, झरने, लाखों तालाब और बरसाती नाले करते हैं। ‘नमामि गंगे’ के योजनाकारों से पूछना चाहिए कि इन सभी को समृद्ध रखने की योजना कहां है?

हर नदी बेसिन की अपनी एक अनूठी जैवविविधता और भौतिक स्वरूप होता है। ये दोनों ही मिलकर नदी विशेष के पानी की गुणवत्ता तय करते हैं। नदी का ढाल, तल का स्वरूप, उसके कटाव, मौजूद पत्थर, रेत, जलीय जीव-वनस्पतियां और उनके प्रकार मिलकर तय करते हैं कि नदी का जल कैसा होगा? नदी प्रवाह में स्वयं को साफ कर लेने की क्षमता का निर्धारण भी ये तत्व ही करते हैं।

सोचना चाहिए कि एक ही पर्वत चोटी के दो ओर से बहने वाली गंगा-यमुना के जल में क्षार तत्व की मात्रा भिन्न क्यों है? गाद सफाई के नाम पर हम छोटी नदियों केे तल को जेसीबी लगाकर छील दें। उनके ऊबड़-खाबड़ तल को समतल बना दें। प्रवाह की तीव्रता के कारण मोड़ों पर स्वाभाविक रूप से बने 8-8 फुट गहरे कुण्डों को खत्म कर दें। वनस्पतियों को नष्ट कर दें और उम्मीद करें कि नदी में प्रवाह बचेगा। ऐसी बेसमझी को नदी पर सिर्फ ‘स्टॉप डैम’ बनाकर नहीं सुधारा जा सकता।

कानपुर की पांडु के पाट पर इमारत बना लेना, पश्चिमी उ. प्र. हिंडन को औद्योगिक कचरा डंप करने का साधन मान लेना, मेरठ का काली नदी में बूचड़खानों के मांस मज्जा और खून बहाना और नदी को एक्सप्रेस वे नामक तटबंधों से बांध देना... नदियों को नाला बनाने के काम है। प्राकृतिक स्वरूप ही नदी का गुण होता है। गुण लौटाने के लिए नदी को उसका प्राकृतिक स्वरूप लौटाना चाहिए। नाले को वापस नदी बनाना चाहिए। यह कैसे हो, मीडिया को इस पर चर्चा करनी चाहिए।

जैव विविधता लौटाने के लिए नदी के पानी की जैव ऑक्सीजन मांग घटाकर 4-5 लानी होगी, ताकि नदी को साफ करने वाली मछलियां, मगरमच्छ, घड़ियाल और जीवाणुओं की एक बड़ी फौज इसमें जिंदा रह सके। नदी को इसकी रेत और पत्थर लौटाने होंगे, ताकि नदी सांस ले सके। कब्जे रोकने होंगे, ताकि नदियां आजाद बह सके। नहरी सिंचाई पर निर्भरता कम करनी होगी।

नदी से सीधे सिंचाई अक्टूबर के बाद प्रतिबंधित करनी होगी, ताकि नदी के ताजा जल का कम-से-कम दोहन हो। भूजल पुनर्भरण हेतु तालाब, सोखता पिट, कुण्ड और अपनी जड़ों में पानी संजोने वाली पंचवटी की एक पूरी खेप ही तैयार करनी होनी होगी, भूजल को निर्मल करने वाले जामुन जैसे वृक्षों को साथी बनाना होगा। इस दृष्टि से प्रत्येक नदी जलग्रहण क्षेत्र की एक अलग प्रबंध एवं विकास योजना बनानी होगी।

नदी जलग्रहण क्षेत्र के विकास की योजना शेष हिस्से जैसी नहीं हो सकती। नदी जलग्रहण क्षेत्र में रोजगार और जीविकोपार्जन के कुटीर और अन्य वैकल्पिक साधनों को लेकर पुख्ता कार्ययोजना चाहिए ही। क्या मीडिया को सरकारों से पूछना नहीं चाहिए कि उसकी कार्ययोजना में यह समग्रता क्यों नहीं है?

कार्ययोजना पहले या सिद्धांत


आज भारत की सरकारें नदियों पर कार्ययोजनाएं तो बना रही हैं। नदी प्रबंधन का सिद्धांत उसने आज तक नहीं बनाया। समग्र सोच के चिंतन का एक विषय यह भी है कि सिद्धांत पहले बनाने चाहिए, कार्ययोजना बाद में। सिद्धांत कार्ययोजना का ऐसा मूलाधार होते हैं, जिनकी पालना हर हाल में करने से ही कार्ययोजना अपना लक्ष्य पाने में ईमानदार भूमिका अदा कर पाती है। वह सिद्धांत ही क्या, जो व्यवहार में लागू न हो सके!

किस नदी को साल के किस अवधि में किस स्थान पर न्यूनतम कितना पानी मिले जिससे कि नदी का पर्यावास सुरक्षित रह सके? नदी में कब-कहां और कितना रेत-पत्थर-पानी निकालने की अनुमति हो? इसका कोई तय सिद्धांत होना चाहिए कि नहीं? नदी निर्मलता का सिद्धांत क्या हो? नदी को पहले गंदा करें और फिर साफ करें या नदी गंदी ही न होने दी जाए? कोई नाला कचरे को पहले ढोकर नदी तक लाए, हमारे संयंत्र फिर उसे साफ करें या कचरे का निस्तारण कचरे केे मूल स्रोत पर ही किया जाए?

नदी पर बांध हो या न हों? हों, तो कैसे हों? कहां हों? इस पर एक बार सिद्धांत तय क्यों नहीं हो जाता? हम क्यों नहीं तय कर सकते कि देश इस सीमा से अधिक बिजली नहीं बनाएगा? वह उतने में ही गुजारा करेगा। उसी को ध्यान में रखकर अपनी जीवनशैली, उत्पादन नीति, तकनीक ईजाद करेगा। कचरा और कोयले से बनी ऊर्जा अपवित्र मानी जाती है। बावजूद इसके आखिर कोयले और कचरे से बिजली बनाने को लेकर इतनी हवस क्यों है? आज सारा तंत्र पानी से ही बिजली पैदा कर लेने की जिद्द ठाने क्यों बैठा है? सूरज, हवा और ज्वालामुखी के स्रोतों में कैद भू-तापीय जैसी पवित्र ऊर्जा में कंपनियों की दिलचस्पी क्यों नहीं है?

नदी भूमि को हरित क्षेत्र बनाकर नदी को आजाद बहने दिया जाए या ‘रिवर फ्रंट विद्युत डेवलपमेंट’, एक्सप्रेस वे और इंडस्ट्रियल कॉरीडोर के बीच में फंसकर मरने के लिए छोड़ दिया जाए? ये सवाल पूछे जाने चाहिए कि नहीं? अभी नदियों में अतिरिक्त पानी के झूठे आंकड़ों की बुनियाद पर दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर खड़ा कर सरकारें अपनी पीठ ठोंक रही हैं, कल को भू-माफिया दिल्ली-कोलकोता इंडस्ट्रियल कॉरीडोर का रूप धरकर नदी खरीदने आ जाएगा। नदी जोड़ भी यही करेगी। समय निकल जाने पर मीडिया ने लकीर पीटी भी तो क्या?

भूमि अनुपात


मैं कहता हूं कि आप मेरी बात पर यकीन मत कीजिए, कभी यू पी एस आई डी सी की वेबसाइट देखिए। उद्योग औद्योगिक क्षेत्र में नहीं जा रहे। पूरे देश में यही हाल है। भूमि अधिग्रहित कर बनाए गए औद्योगिक क्षेत्रों के प्लॉट खाली पड़ेे हैं। उद्योग लग रहे हैं कृषि और नदी किनारे की भूमि। क्यों? क्योंकि उनकी मंशा उद्योग चलाने से ज्यादा, उद्योग चलाए बगैर उपजाऊ जमीन बेचकर मुनाफा कमाने की है। कचरा बहाने के लिए बगल में नदी हो, तो कचरा प्रबंधन का पैसा भी बचेगा।

आखिर इस बारे में कोई सिद्धांत तो बनाना ही चाहिए कि औद्योगिक क्षेत्र कहां बने? उद्योग दूर बंजर भूमि पर बने औद्योगिक क्षेत्रों में रहें या नदियों के किनारे? नदी से कितना दूर हो, कितना पास? हम आरक्षण कर रहे हैं जातियों और धर्मों का, आरक्षित करने की जरूरत है देश की कुल भूमि में अनुपात तय कर कृषि, वन, औद्योगिक, सांस्थानिक, व्यावसायिक, आवासीय, शहरी और ग्रामीण भूमि को। आखिर कोई सीमा तो बननी चाहिए, जिसे लांघना लक्ष्मण रेखा की याद दिला दे।

कितनी बिजली: कैसी बिजली


नदी पर बांध हो या न हों? हों, तो कैसे हों? कहां हों? इस पर एक बार सिद्धांत तय क्यों नहीं हो जाता? हम क्यों नहीं तय कर सकते कि देश इस सीमा से अधिक बिजली नहीं बनाएगा? वह उतने में ही गुजारा करेगा। उसी को ध्यान में रखकर अपनी जीवनशैली, उत्पादन नीति, तकनीक ईजाद करेगा। कचरा और कोयले से बनी ऊर्जा अपवित्र मानी जाती है। बावजूद इसके आखिर कोयले और कचरे से बिजली बनाने को लेकर इतनी हवस क्यों है?

आज सारा तंत्र पानी से ही बिजली पैदा कर लेने की जिद्द ठाने क्यों बैठा है? सूरज, हवा और ज्वालामुखी के स्रोतों में कैद भू-तापीय जैसी पवित्र ऊर्जा में कंपनियों की दिलचस्पी क्यों नहीं है? क्यों नहीं तय कर सकते कि कुल बनाई जाने वाली बिजली में से कितनी प्रतिशत स्रोत के किस प्रकार से बनाएंगे?

श्री सूर्यप्रकाश कपूर एक वैज्ञानिक हैं। वह दावा करते हैं कि आज भारत में जितनी बिजली बनती है, उससे पांच गुना अधिक बिजली उत्पादन क्षमता हवा और अंडमान द्वीप समूह से भू-तापीय स्रोतों में मौजूद है। सबसे अच्छी बात तो यह कि हवा, सूर्य और भू-तापीय स्रोतों से खींच ली गई ऊर्जा वैश्विक तापमान के वर्तमान के संकट को तो नियंत्रित करेगी ही, भूकंप और सुनामी के खतरों को भी नियंत्रित करने में मददगार होगी। क्या मीडिया को नहीं चाहिए कि ऐसे वैज्ञानिक सुझावों को कभी बहस का विषय बनाए और सरकारों को अनुकूल निर्णय के लिए विवश करे?

कहना न होगा कि नदी की निर्मलता और अविरलता सिर्फ पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास और ऊर्जा मंत्रालय का विषय नहीं है; यह उद्योग, नगर विकास, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, रोजगार, पर्यटन, गैर परंपरागत ऊर्जा और संस्कृति मंत्रालय के बीच भी आपसी समन्वय की मांग करता है। इसकी मांग उठनी चाहिए।

अमृत-विष : अलग-अलग


गौर कीजिए कि कोई भारतीय सिद्धांत नहीं, जो अमृत में विष को मिलाने की इजाजत देता हो। 1932 में पहली बार कमिश्नर हॉकिंस ने बनारस के नाले को गंगा में मिलाने का एक आदेश दिया। मालवीय जी की असहमति के बावजूद वह लागू हुआ। इससे पहले नदी में नाला मिलाने का कोई उदाहरण शायद ही कोई हो। अमृत और विष को अलग रखने का कुंभ सिद्धांत आइना बनकर तब भी सामने था, आज भी है। आपको जानकर दुख होगा कि अगले वर्ष जिस नासिक में कुंभ होगा, वहां कोर्ट के आदेश पर नदी के किनारे अभी से नासिक म्युनिसपलिटी के बोर्ड लगे हैं- “नदी का पानी उपयोग योग्य नहीं है।’’


प्रदूषित नदीप्रदूषित नदीइस दुर्दशा बावजूद, हम नालों को नदियों मे मिला ही रहे हैं। क्या हमें तय नहीं करना चाहिए कि हम पहले कचरे को नदी में मिलने ही नहीं दिया जाएगा? हमें तय करना चाहिए कचरे का निस्तारण उसके मूल स्रोत पर ही किया जाएगा। आज हम कचरा जल नदी में और ताजा जल नहरों में बहा रहे हैं। यह सिद्धांत विपरीत है। इसे उलट दें। ताजा स्वच्छ जल नदी में बहने दें और कचरा जल को शोधन पश्चात् नहरों में जाने दें। मीडिया को पूछना चाहिए कि यह क्यों नहीं हो रहा?

सामुदायिक व निजी सेप्टिक टैंकों पर पूरी तरह कामयाब मलशोधन प्रणालियां भारत में ही मौजूद हैं। लखनऊवासी अपना मल-मूत्र सुल्तानपुर-जौनपुर को पिलाते हैं, दिल्लीवासी बृज को। कोलकोतावासी अपना मल नदी में नहीं बहाते। हजारों तालाबों के जरिए वे आज भी निर्मल कथा ही लिख रहे हैं। बंगलूर के हनी शकर्स सेप्टिक टैंक से मल निकाल कर कंपोस्ट में तब्दील कर नदी भी बचा रहे हैं और खेती भी।

भारत सरकार के रक्षा अनुसंधान विकास संगठन द्वारा ईजाद मल की जैविक निस्तारण प्रणाली को देखें, पता चलेगा कि हर नई बसावट, सोसाइटी फ्लैट्स तथा कॉमर्शियल कॉम्पलैक्सेस आदि को सीवेज पाइप लाइन से जोड़ने की जरूरत ही कहां हैं? लेकिन शासन-प्रशासन को है; क्योंकि ये पाइप लाइनें उन्हें सीवेज देखरेख के नाम पर ग्राहक से ढेर सारा पैसा वसलूने का मौका देती है। पाइप लाइनों से जुड़े सीवेज के सौ फीसदी शोधन पर अभी तक सरकार गंभीर नहीं हुई है।

निवेदन


खैर, चर्चा बहुत लंबी हो रही है। इसे यहीं विराम देता हूं। फिलहाल, नई सरकार ने गंगा पुनरोद्धार मंत्रालय बनाकर एक बड़ा बजट साधने का संदेश दिया है। मैं मीडिया साथियों से उम्मीद करता हूं कि वे गंगा पुनरोद्धार, नदी विकास और जल संसाधन के इस भारी मंत्रालय को इस बात के लिए साधने का प्रयास करेंगे कि हमारी नदियां अविरल बनी रहें। रही बात प्रदूषण और प्रदूषकों को बांधने की, तो समाज की समग्र सोच और उसे कार्यरूप में उतारने का संकल्प.. दोनो को बांध सकता है। इसमें भी अहम भूमिका तो मीडिया को भी निभानी होगी। कामना करें कि यह एक दिन होगा।

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