मजबूत पंचायत से पूरा होगा विकेंद्रीकरण का सपना : मणिशंकर

पूर्व केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर पंचायतों को मजबूत करने की दिशा में हमेशा से सक्रिय रहे हैं। यही कारण है कि पंचायती राज मंत्रालय ने उनकी अध्यक्षता में पंचायती राज व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी बनायी। इस कमेटी ने हाल ही में राष्ट्रीय पंचायती राज व्यवस्था के स्थापना दिवस पर अपनी रिपोर्ट जारी की है। पेश है इस रिपोर्ट के आलोक में पंचायतनामा के लिए मणिशंकर अय्यर से संतोष कुमार सिंह की हुई विशेष बातचीत..

अभी हाल ही में आपकी अध्यक्षता में बनायी गयी एक्सपर्ट कमेटी ने टूआर्डस होलिस्टिक पंचायती राज नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है जिसे खुद प्रधानमंत्री व केंद्रीय पंचायती राज मंत्री द्वारा जारी किया गया। किन पहलुओं को आपकी रिपोर्ट में प्रमुखता से लिया गया है?


देखिये, पंचायती राज व्यवस्था के 20 वर्षों बाद यह अच्छा मौका है कि हम ठहरकर इस तथ्य पर विचार करें कि हम कितनी दूरी तय कर पाये हैं और कहां तक जाना है। इस लिहाज से हमने 700 पन्नों की इस रिपोर्ट में पंचायती राज के विभिन्न आयामों को परखने का प्रयास किया है। हमें सौंपी गयी जिम्मेवारी के अनुरूप 20 वर्ष बाद पंचायतों की स्थिति, डिवोल्यूशन बाई सेंट्रल गवर्नमेंट, डिवोल्यूशन बाई स्टेट गवर्नमेंट, जिला योजना, पंचायत प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण, पंचायत में महिलाओं की स्थिति, कमजोर तबकों के लिए पंचायती राज, अल्पसंख्यकों और नि:शक्तों की स्थिति को परखने की कोशिश की है। साथ ही साथ ग्रामीण भारत में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, पोषण, खाद्य सुरक्षा आदि विषयों को भी विस्तार से लिया गया है। इन सब बिंदुओं पर जमीनी स्तर के अनुभवों को समेटते हुए तथ्यों के संकलन और व्यवस्था को बेहतर बनाने के सुझाव दिये गये हैं।

लेकिन पंचायत व्यवस्था देश में ऊपरी तौर पर बहुत सफल दिखायी दे रही है?


मैं भी इस तथ्य को स्वीकार करता हूं कि हमारे देश में पंचायती राज व्यवस्था का 20 वर्षों में व्यापक विस्तार हुआ है। आज देश में 2.5 लाख पंचायतों में लगभग 32 लाख प्रतिनिधि चुन कर आ रहे हैं। इनमें से 13 से 14 लाख महिलाएं चुन कर आयी हैं। लेकिन साथ ही सवाल उठता है कि क्या इन प्रतिनिधियों को उनके अधिकार मिले। क्या वे स्थानीय प्रशासन की आरंभिक इकाई के रूप में काम कर पा रही हैं? क्या सत्ता का सही अर्थ में विकेंद्रीकरण हो पाया है? जवाब नहीं है। लेकिन साथ ही सवाल यह भी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? रिपोर्ट बताती है कि देश की नौकरशाही सांसदों और विधायकों के आदेश का पालन करने के लिए तो तत्पर दिखती है। लेकिन इसी नौकरशाही के पास इस बात का कोई अनुभव नहीं है कि स्थानीय स्तर पर चुने गये नुमाइंदों को कैसे उनके कार्य में सहयोग दें। सहयोग के नाम पर इन चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए एक-दो सप्ताह या एक-दो रोज का प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जाता है और ऐसा मान लिया जाता है कि इनको प्रशिक्षित कर दिया गया। इस लिहाज से लगता है कि अभी हमें लंबी दूरी तय करनी है और पंचायती राज के प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण दिये जाने के साथ ही यह भी जरूरी है कि इन बाबुओं को प्रशिक्षण दिया जाये कि कैसे पंचायती राज व्यवस्था के साथ तारतम्य बनाया जाये।

आपने सत्ता के विकेंद्रीकरण का सवाल उठाया? आखिर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं हो पाया है? कहां कमियां रह गयी हैं?


मुझे लगता है कि केंद्र, राज्य और पंचायत इसी त्रिस्तरीय व्यवस्था में जो अन्योनाश्रय संबंध लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार बिंदु हो सकता था, उसमें हम पीछे रहे गये हैं। केंद्र और राज्य के बीच पंचायती राज व्यवस्था को अधिकार दिये जाने के नाम पर एक तरह की खींचतान दिखती है। 12वीं पंचवर्षीय योजना कहती है कि यह राज्य का विषय है। आज 20 साल बाद केंद्र सरकार द्वारा पंचायतों को दी जाने राशि व सामाजिक प्रक्षेत्र में किये गये बजटीय आवंटन की राशि में 25 गुणा बढोत्तरी के बावजूद हम मानव विकास सूचकांक के 2011 के आंकड़ों के मुताबिक विश्वर के 186 देशों में 136वें पायदान पर हैं। 20 वर्ष पहले भी कुछ इसी तरह की स्थिति थी। ऐसे में हमें लगता है कि केंद्र द्वारा चलाये जा रहे कम से कम आठ ऐसी सामाजिक क्षेत्र की योजनाएं हैं, जिनका लाभ अगर सही तरीके से लाभार्थियों तक पहुंचाना है तो इसकी जिम्मेवारी पंचायती राज संस्थाओं को सौंपी जानी चाहिए। क्योंकि सबसे निचले स्तर पर काम कर रहे इन जनप्रतिनिधियों मसलन ग्राम और वार्ड सभा के चुने हुए प्रतिनिधियों को उनके कार्य के लिए जवाबदेह और जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, जबकि सरकारी विभागों और गैर सरकारी संगठनों की उनके प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती, जिनके कल्याण के लिए इन योजनाओं को तैयार किया गया है। इसलिए समेकित विकास के लिए यह जरूरी है कि इन योजनाओं से लाभ प्राप्त करने वाले समुदाय को ऐसा लगे की इस पर उनका अधिकार है। अगर इन योजनाओं की जानकारी सही तरीके से पहुंचायी जाये और उन्हें इनके साथ जोड़ा जाये तो इसके परिणाम अच्छे आयेंगे। मेरा स्पष्ट मानना है कि सब अपने दायरे में काम करें। गांव की पंचायत वह करे जो ग्रामसभा कहती है। जिला परिषद वह करे जो पंचायत समिति कहती है। इसी तरह राज्य सरकारें वह करें जो विधान परिषद और विधान सभा कहती है। केंद्र वह करे जो संसद कहती है। मजबूत केंद्र, मजबूत राज्य व मजबूत पंचायत से देश में क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे।

यह सच है कि महिलाएं पहले की तुलना में पंचायती राज व्यवस्था से ज्यादा जुड़ रही हैं। लेकिन ऐसे कई मामले सामने आये हैं कि वे अपने अधिकारों का उपयोग सही तरीके से नहीं कर पाती और मुखिया पति, या सरपंच पति के रूप में घर के पुरुष सदस्य ही उनकी जवाबदेही निभाते हैं?


वर्ष 2007 में केंद्रीय पंचायती राज मंत्री रहते हुए हमने एक सर्वे कराया। इस सर्वे के दौरान 20,000 पंचायत प्रतिनिधियों की पड़ताल की गयी। इसमें से 16,000 महिलाएं थीं और 4000 पुरुष। इस सर्वे के दौरान कई सकारात्मक बातें सामने आयी। यह पता चला कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा मेहनती, ज्यादा ईमानदार हैं। उनके अंदर सीखने की इच्छा ज्यादा होती है। साथ ही वे सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग करना जानती हैं। हां यह भी सही है कि पंचायती राज व्यवस्था में 33 फीसदी आरक्षण दिये जाने के कारण महिलाओं की भागीदारी काफी बढ़ी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो पंचायती राज संस्थाओं में 50 फीसदी आरक्षण देकर न सिर्फ बिहार की महिलाओं को पंचायती व्यवस्था से जोड़ने में अहम भूमिका निभायी है, बल्कि इस मायने में वे अन्य राज्यों को रास्ता दिखाने में भी कामयाब हुए हैं और आज उनका अनुकरण करते हुए देश के 15 राज्यों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया गया है। इसके साथ ही बिहार में नीतीश के राज में पंचायती राज व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी पहले की तुलना में कम हुआ है।

सरपंच व छोटे अफसरों के बीच मिलीभगत कम हुई है। अन्य राज्यों की भी पढ़ी-लिखी महिलाएं, युवतियां बड़ी संख्या में पंचायती राज संस्थानों से जुड़ रही हैं। आज की लड़कियां पहले की तुलना में ज्यादा शिक्षित हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। वैसे तो हर वर्ग की महिलाएं पंचायती राज संस्थाओं में आगे आ रही हैं, लेकिन पिछड़े तबकों की महिलाएं इसलिए भी आगे आ रही हैं कि वे पहले से रोजी-रोटी कमाने के लिए घर से बाहर निकलती रही हैं। इस प्रक्रिया में उन्हें समाज से घुलने-मिलने की आदत रही है। वे अपने दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वहन करती हैं।

पंचायतों में महिला आरक्षण के सवाल पर हमारी राय है कि कम से कम एक सीट पर 10 साल के लिए आरक्षण दिया जाये, ताकि वे पहले टर्म में प्राप्त अनुभवों के आधार पर आगे ठीक से काम कर सकें।

झारखंड में पंचायती राज व्यवस्था की क्या स्थिति है?


राज्य में कुछ साल पहले ही पंचायत चुनाव हुआ है। टिप्पणी करना ठीक नहीं है। पर, कार्यक्रम में जो अधिकारी आये थे, उन्होंने काफी आकर्षित किया। वहां अगर राजनैतिक स्थिरता आती है, तो पंचायती राज व्यवस्थाएं मजबूत होंगी। वहां प्राथमिकता पेसा कानून को मिलनी चाहिए। ऐसा लगता है कि पेसा के मामले में राजनीतिक बिरादरी ने अपना मन नहीं बनाया है। झारखंड का सपना हकीकत में तभी बदलेगा जब पेसा कानून को सही तरीके से लागू किया जाये। अनुसूचित जनजाति का मुख्यमंत्री पेसा कानून न लागू करे तो फिर कौन कर सकेगा।

राहुल गांधी ने भी प्रधानों को अधिकार देने की बात कही है। वे जगह-जगह पर पंचायत प्रतिनिधियों से मिलते भी रहते हैं। अक्सर उनके बयान पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत किये जाने को लेकर सामने आये हैं? एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट को लेकर राहुल की क्या प्रतिक्रिया थी?

मैंने रिपोर्ट की प्रतियां उन्हें भेजी हैं। हालांकि इस पर उनसे इस मसले पर तफ्सील से बात करने का मौका नहीं मिला है। उनकी भावनाएं सही हैं, राहे ठीक हैं।

पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती की दिशा में काम कर वे राजीव गांधी के सपनों को साकार करेंगे। मुझे लगता है कि अगर उन्होंने रिपोर्ट में दी गयी अनुशंसा पर जोर लगाया, इस दिशा में काम किया तो वे अपने पिता के सही वारिस बनेंगे और गरीबों के मसीहा साबित होंगे।

पश्चिकम बंगाल में पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत कर वामपंथी दल ने 35 वर्षों तक शासन किया। अगर कांग्रेस देश में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत कर उसके निहितार्थ को सही अर्थ में लागू करें, तो आगामी 35 वर्षों तक केंद्र की सत्ता से कांग्रेस को कोई नहीं हिला सकता।

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