मनरेगा के सात साल

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून को देश में अमल में आए, देखते-देखते सात साल हो गए। इन सात सालों में इस कानून ने ग्रामीण और शहरी भारत में कई बड़े बदलाव किए। मसलन-गांव से शहर की ओर बड़े पैमाने पर होने वाला मज़दूरों का पलायन रुका, गाँवों में ही नए-नए रोज़गार सृजित हुए और इससे गाँवों के अंदर बुनियादी ढाँचा मजबूत हुआ। इस योजना में जहां ग्रामीण भारत को बार-बार आने वाली परेशानियों और प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने में मदद मिली, तो वहीं विस्तारित कृषि उत्पादन और निर्माण श्रमिकों की मांग से श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में भी वृद्धि हुई। मनरेगा को ग्रामीणों के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण समय-समय पर इसमें गड़बड़ी होने के आरोप भी लगते रहे हैं। मनरेगा को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए कहने को सरकार ने इस योजना के भीतर ही जबावदेही और पारदर्शिता के प्रावधान किए। ग़रीबों का हक न मारा जाए, इसके लिए सरकार ने उनके जॉब कार्ड बनाने और मजदूरी का भुगतान सीधे उनके बैंक खाते में करने का बंदोबस्त किया।

लेकिन योजना के शुरू होते ही देश में धोखाधड़ी और जालसाज़ी का ऐसा खेल शुरू हुआ कि, कागज़ों पर तो विकास कार्य हुए, मगर ज़मीनी स्तर पर कोई विकास नहीं हुआ। फ़र्ज़ी जॉब कार्ड और काल्पनिक नामों से खाते खोलकर अफसरों और सरपंच, सचिवों ने दोनों हाथों से अपनी-अपनी जेबें भरनी शुरू कर दीं। जिन लोगों को इस योजना के तहत काम पर लगाया गया, उन्हें निर्धारित मजदूरी की बजाय कम मजदूरी दी गई। योजना के तहत गरीब परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का रोज़गार देना था, पर उन्हें यह काम पूरा नहीं मिला। इस योजना में यह भी प्रावधान है कि, जिन लोगों को काम नहीं मिल पाता, उन्हें बेरोज़गारी भत्ता मिले। लेकिन कई जगह उन्हें बेरोज़गारी भत्ते से वंचित किया गया। यह कहानी कोई अकेली एक जगह की नहीं, बल्कि पूरे देश में ही यह अनियमितताएँ और गड़बड़ियाँ पकड़ीं गईं हैं।

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