मत कहो कि हम आज़ाद हैं

19 Aug 2013
0 mins read
Arun Tiwari and Swami Sanand
Arun Tiwari and Swami Sanand
सरकारों व जनप्रतिनिधियों के संवेदनाशून्य रवैये को देखते हुए मैं कह सकता हूं कि यदि आगे चलकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को गंगा संरक्षा में प्राण गंवाने पड़े, तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल सरकार अपनी साज़िश में सफल हो गई है। है। हालांकि जलपुरुष राजेन्द्र सिंह समेत कई पानी-प्रकृति प्रेमियों ने जी डी पर केस दर्ज करने के विरोध में बयान दिया किया है। किंतु क्या सरकारों की संवेदनशून्यता को देखते हुए बयान मात्र काफी है? ध्यान रहे कि जी डी ने अपने करीबियों से हमेशा यही कहा - “लोग मेरी सेहत की चिंता तो कर रहे हैं, लेकिन मां गंगा की सेहत की चिंता किसी को नहीं है।पहले अनशन को आत्महत्या का प्रयास करार दिया; धारा 309 ए के तहत मुकदमा लादा.. और अब अनशनकारी को पुलिस रिमांड पर जेल की अंधेरी कोठरी में पटक दिया। कानून का यह कैसा दुरुपयोग है? भारतीय लोकतंत्र में लोक के साथ यह कैसा व्यवहार है? फिर भी समाज में सन्नाटा है! कोई सरकार से नहीं पूछ रहा कि वह यह कैसे कर सकती है? मुझे कोई बतायेगा कि क्यों? ऐ हिंदोस्तान वालो! क्या तुम्हारी आत्मा नहीं रोती? आज़ादी का जश्न मनाते तुम्हें तकलीफ़ नहीं होती? आज़ादी के गीत गाते तुम्हारी जुबां नहीं लड़खड़ाती? जो शासन-प्रशासन ‘अनशन’ जैसे पवित्र औजार को ‘आत्महत्या का प्रयास’ करार देते हों; ‘सत्याग्रह’ जैसे कर्तव्यनिष्ठ और नैतिक व्यवहार को निलंबन की सजा देते हों, क्या ऐसे शासन-प्रशासन से तुम्हारा दो-दो हाथ करने का मन नहीं होता? क्या आज़ादी के वर्षगांठ पर लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराने आने वालों से कोई पूछेगा - कहो कि क्या हम आजाद हैं?

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद उर्फ प्रो जी. डी. अग्रवाल एक नामचीन वैज्ञानिक सन्यासी हैं। गंगा के लिए उनके पूर्व अनशनों के नतीजे प्रशंसनीय हैं। उल्लेखनीय है कि 13 जून से वह पुनः गंगा अनशन पर है। हरिद्वार प्रशासन ने पहले उनके अनशन को आत्महत्या का प्रयास बताकर मामला दर्ज किया। पुलिस ने चार घंटे थाने में बैठाया। जेल ले गए। दो अगस्त को तीन गनधारियों की निगरानी में चुपके से भोर अंधेरे नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले आए; जैसे किसी अपराधी को लाते हैं। वहां भी आई सी यू के आइसोलेशन-2 में रखा गया। एक दिन में एक घंटे के समय में कुल जमा एक मुलाकाती को मिलने की इजाज़त दी गई। लोगों से दूर रखा गया। प्रशासन द्वारा यह सब उनकी सेहत की चिंता के बहाने किया गया। 8 अगस्त से वह अस्पताल की कैद से तो मुक्त हैं, लेकिन हरिद्वार जेल की कैद से नहीं; क्योंकि वह 14 अगस्त तक वह पुलिसरिमांड पर हैं; मानों वह सचमुच कोई दुर्दांत अपराधी हों। तिस पर ताज्जुब यह है कि समाज में इसे लेकर कहीं कोई हलचल नहीं है। सब तरफ चुप्पी है। यह हाल है इस देश में अपनी ‘राष्ट्रीय नदी’ के लिए चिंता करने वालों के प्रति समाज और सरकार के व्यवहार का। यह गिरावट इस देश को कहां ले जाएगी? एक अनशन अन्ना का था; जिसे मीडिया ने सिर पर उठाया। एक अनशन जी डी का है; जिस पर मीडिया बात ही नहीं करना चाहता। यह विरोधाभास ही भारतीय लोकतंत्र के इस पड़ाव का असली सच है। जिस मुल्क में सवाल पूछी नहीं, वहां जवाबदेही कैसी? कहो कि क्या यह झूठ है?

यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस अनशन और सत्याग्रह को खुद कांग्रेस ने आज़ादी दिलाने वाले महत्वपूर्ण औजार के रूप में प्रतिष्ठित किया; जिस अनशन और सत्याग्रह के प्रयोग के कारण महात्मा गांधी को आज राष्ट्र ‘राष्ट्रपिता’ और दुनिया ‘अहिंसा पुरुष’ के रूप में पूजती है..... उसी अनशन और सत्याग्रह को उत्तराखंड के कांग्रेसी शासन में ‘आत्महत्या का प्रयास’ करार दिया गया है। इन्हें महात्मा गांधी के उत्तराधिकार वाली कांग्रेस कहने में स्वयं गांधीवादियों को भी आज शर्म आती होगी। अनशन को आत्महत्या बताने की यह साज़िश, सिर्फ जी डी के खिलाफ नहीं, पूरे गांधीवादी सिद्धांतों के खिलाफ है। अनशन जैसे वैचारिक और पवित्र कर्म को आत्महत्या बताने का कुकृत्य तो शायद कभी अंग्रेजी हुक़ूमत ने भी नहीं किया होगा। यह लोकप्रतिनिधि और लोकसेवकों का लोकतांत्रिक मूल्यों से गिर जाना है। यह इस बात का संकेत है कि मात्र साढ़े छह दशक में हमारा लोकतंत्र... लोकतंत्र की मूल अवधारणा से कितनी दूर चला गया है। यह इस बात का भी संकेत है कि हमारा शासन-प्रशासन स्वस्थ चुनौती व सत्य स्वीकारने की शक्ति खो बैठा है। जब सत्ता कमजोर होती है, तो वह साधारण सी चुनौतियों से बौखला उठती है। भयभीत सत्ता समझती है कि हर तीर के निशाने पर वही है। इसलिए वह साधारण परिस्थितियों में भी तानाशाह हो उठती है। अपना धैर्य खो बैठती है। आजकल यही हो रहा है।

यूं लोकतंत्र में कोई सत्ता नहीं होती। लोक होता है और लोकप्रतिनिधि होते हैं। उनका प्रतिनिधित्व करने वाली पंचायतें, विधानसभाएं और लोकसभा होती है। दुर्भाग्य से लोकप्रतिनिधि सभाओं के प्रतिनिधियों ने स्वयं को सत्ता समझ लिया है। इसी का नतीजा है वर्तमान में अलोकतांत्रिक होता भारतीय लोकतंत्र। शासन के उक्त प्रतिकार का एक संकेत यह भी है कि आज लोकप्रतिनिधि लोक के साथ नहीं लोभ के साथ खड़े हैं। ऐसे में सत्ता द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान हो, तो क्या आश्चर्य? कोई आश्चर्य नहीं कि हरिद्वार में रेत उठान और पत्थर चुगान के खिलाफ नौजवान स्वामी निगमानंद को प्राण गंवाने पड़े। चंबल में खनन के खिलाफ खड़े आई पी एस अधिकारी को जैसे मारा गया, वह यादें अभी ताज़ा हैं ही। ट्रैक्टर ट्राली से कुचलकर मारने की वैसी ही कोशिश अभी चंद दिन पहले हरिद्वार, लक्सर के गांव भिक्कमपुरा में खनन माफ़िया पर छापा डालनेतहसीलदार पर कोशिश की गई। प्रशिक्षु आई ए एस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल द्वारा हिंडन-यमुना से रेत के अवैध खनन पर लगाम लगाने की जुटाई हिम्मत का हश्र आप जानते हैं। खिलाफ लिखने वाले को गिरफ्तार किया। 41 मिनट में निलबंन का दंभ सार्वजनिक किया। सत्ता सिर उठाये दहाड़ती रही कि निलंबन रद्द नहीं होगा। करीब एक हफ्ते बाद जाकर उसकी गर्दन झुकी - “यदि दुर्गा निर्दोष पाई गई, तो उसका निलंबन रद्द होगा।’’ यह शासन-प्रशासन का नंगपन है। यह भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा पक्ष है, जो लोकप्रतिनिधियों के प्रति संजीदगी और सम्मान... दोनों खत्म करता है। किसी भी लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है।

सरकारों व जनप्रतिनिधियों के संवेदनाशून्य रवैये को देखते हुए मैं कह सकता हूं कि यदि आगे चलकर स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को गंगा संरक्षा में प्राण गंवाने पड़े, तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल सरकार अपनी साज़िश में सफल हो गई है। है। हालांकि जलपुरुष राजेन्द्र सिंह समेत कई पानी-प्रकृति प्रेमियों ने जी डी पर केस दर्ज करने के विरोध में बयान दिया किया है। किंतु क्या सरकारों की संवेदनशून्यता को देखते हुए बयान मात्र काफी है? ध्यान रहे कि जी डी ने अपने करीबियों से हमेशा यही कहा - “लोग मेरी सेहत की चिंता तो कर रहे हैं, लेकिन मां गंगा की सेहत की चिंता किसी को नहीं है। जाकर गंगाजी की चिंता कीजिए। मेरी चिंता अपने आप हो जाएगी।’’ गंगा के प्रति अन्याय को लेकर सुप्त समाज कब अपनी तंद्रा तोड़ेगा? धर्मशक्तियों की समाधि कब टूटेगी? सामाजिक संस्थाएं कब अपने झंडे-डंडे से बाहर निकलेंगी? गंगा को ‘राष्ट्रीय नदी’ दर्जे की मांग करने व दर्जा मिलने पर खुशी मनाने वाले कब राष्ट्रवादी होंगे?...ये प्रश्न अभी बने हुए हैं।

मैं कहता हूं कि सरकारें यदि भारत की नदियों को बेचने और पानी का बाजार खड़ा करने वालों के साथ हैं, तो रहें। यदि धरती, पानी, आकाश बेचकर ही सरकार की जीडीपी बढ़ती हो, तो बढ़ाए। यदि वे देश के पानी व नदियों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकतीं, तो मत करें; लेकिन कम से कम सजग शक्तियों को सत्य का आग्रह करने से तो न रोके। उन्हें तो अपना कर्तव्य निर्वाह तो करने दें। मैं दावे से कह सकता हूं कि यदि महात्मा गांधी आज जिंदा होते, तो ऐसी हरकत के खिलाफ वह निश्चित ही खुद अनशन पर बैठ जाते। आइये! ऐसी हरकतों को रोकें। गंगा के जीवन संघर्ष पर पसरे सन्नाटे को तोड़े। किंतु क्या जन को जोड़े बगैर यह संभव है? आइए! जुड़े और जोड़ें।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading