मथुरा कैसे झेल पाएगा ऐसे भूकम्प को

earthquake management
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यदि मथुरा की पुरानी बस्ती को बचाना है तो सबसे पहले वहाँ हर तरीके के नए निमार्ण पर रोक लगनी चाहिए। फिर बैराज के बनने से बढ़े दलदल व जमीन के कमजोर होने का अध्ययन होना चाहिए। भूजल पर पाबन्दी तो है लेकिन उस पर अमल नहीं। यह जान लें कि पहाड़ पर बनी बस्तियों में नीचे की ओर जल निकासी निर्बाध होना चाहिए व कहीं भी लीकेज बेहद खतरनाक हो सकता है। यदि इन बिन्दुओं के साथ पुराने मथुरा के पुनर्वासन पर काम किया जाए तो मकानों के ढहने की समस्या का निराकरण करना कठिन नहीं है।

हाल ही में नेपाल के विनाशकारी भूकम्प के झटके पूरे देश ने सहे हैं। ऐसे में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान ने उत्तर प्रदेश के 26 जिलों को भूकम्प के प्रति संवेदनशील जोन-4 में रखा है। जोन-4 का अर्थ है कि पाँच क्षमता के भूकम्प आने की प्रबल सम्भावना व उससे कमजोर संरचनाओं की पूरी तरह तबाही। इसमें से एक मथुरा भी है, जो बीते दो दशकों से पल-पल दरक रहा है। लोग चिन्ता में हैं और प्रशासन किसी बड़े हादसे के इन्तजार में है। द्वारिकाधीश मन्दिर के पीछे की सघन बस्ती चैबिया पाड़ा, मथुरा की पहचान है। पहाड़ी के ढलान पर स्थित इस बसावट में गजापायसा लगभग चोटी पर है। अभी एक दशक पहले तक यहाँ बने मकान एक दूसरे से सटे हुए थे, आज इनके बीच तीन से छह फुट की दूरी है। कोई भी घर ऐसा नहीं है जिसकी दीवारें चटक नहीं गई हों। जब कहीं से गड़गड़ाहट की आवाज आती है तो लोग जान जाते हैं कि किसी का आशियाना उजड़ गया है। किसी का संकल्प है तो किसी की आस्था व बहुत से लोगों की मजबूरी, वे जानते हैं कि यह मकान किसी भी दिन अर्रा कर जमींदोज हो सकता है, लेकिन वे अपने पुश्तैनी घरों को छोड़ने को राजी नहीं हैं। आए रोज मकान ढह रहे हैं व सरकारी कागजी घोड़े अपनी रफ्तार से बेदिशा दौड़ रहे हैं।

कृष्ण की नगरी के नाम से विश्व प्रसिद्ध मथुरा असल में यमुना के साथ बह कर आई रेत-मिट्टी के टीलों पर बसी हुई हैं। जन्मभूमि से लेकर होली गेट तक की मथुरा की आबादी लगभग नदी के तट पर ही हैं। नगर के बसने का इतिहास सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभी दो शतक पहले तक यहाँ टीलों पर केवल अस्थाई झुग्गियाँ हुआ करती थीं। वैसे तो मथुरा ब्रज में कंकाली टीला, भूतेश्वर टीला, सोंख टीला, सतोहा टीला, गनेशरा टीला कीकी नगला, गौसना, मदनमोहन मन्दिर टीला जैसे कई बस्तियाँ हैं। लेकिन सबसे घनी बस्ती वाले हैं - चैबों का टीला, उसके बगल में गोसाईयों की बस्ती व पीछे का कसाई पाड़ा। जब चैबों के यहाँ जजमान आने लगे, परिवहन के साधन बढ़े तो असकुंडा घाट के सामने द्वारिकाधीश मन्दिर के पीछे चैबों ने ठिकाने बना लिए। देखते ही देखते पूरी पहाड़ी पर बहुमंजिला भवन बन गए। फिर उनमें शौचालय, सीवर, बिजली, एसी लगे।

कोई दो दशक पहले इन बस्तियों के मकान में दरार आना शुरू हुईं, पहले तो इसे निर्माण के दौरान कोई कमी मान लिया गया, लेकिन जब मकानों के बीच की दूरियाँ बढ़ीं और उसके बाद मकान का ढह कर बिखर जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों की चिन्ताएँ बढ़ने लगीं। अभी तक चैबच्चा, काला महल, सतघड़ा, ताजपुरा, महौली की पौर, घाटी बहालराय, सरवरपुरा, काजी पाड़ा, रतन कुण्ड, नीम वाली गली सहित 35 मुहल्लों में हजार से ज्यादा मकान ताश के पत्तों की तरह बिखर चुके हैं। लगभग 90 साल पहले पड़ी पानी सप्लाई की भूमिगत लाईन जगह-जगह से लीक कर रही थी व उससे जमीन दलदल बन कर कमजोर हुई। लगातार लीकेज ठीक करने का काम भी हुआ, लेकिन मर्ज काबू में नहीं आया। आठ साल पहले आईआईटी रूड़की का एक दल भी यहाँ जाँच के लिए आया।

उन्होंने जमीन के ढहने के कई कारण बताए- जमीन की सहने की क्षमता से अधिक वनज के पक्के निर्माण, अंधाधुंध बोरिंग करने से भूगर्भ जल की रीता होना व उससे निर्वात का निर्माण तथा, जल निकासी की माकूल व्यवस्था ना होना। यह भी सामने आया है कि सीवर व पानी की लाईन में अवैध कनेक्शन लीकेज का सबसे बड़ा कारण है। मामला विधान सभा में भी उठा, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को ना तो समस्या की सटीक जानकारी रही और ना ही उसके समाधान का सलीका। अब हर दिन समस्या पर विमर्श तो होता है, लेकिन समाधान के प्रयास नहीं। जवाहरलाल नेहरू शहरी परियोजना के तहत यहाँ सीवर व ड्रेनेज के अलावा पेयजल लाईनें नए सिरे से बिछाने का बजट भी केन्द्र को भेजा गया, लेकिन स्वीकृत नहीं हुआ।

असल में इस समस्या को बुलाया तो बाशिंदों ने ही है। रेत व पीली मिट्टी के टीलों पर मनमाने ढँग से मकान तान दिए गए। फिर सन साठ के बाद मकानों में ही शौचालय बने व उसकी माकूल तकनीकी निकासी का जरिया बना नहीं। जब बढ़ी आबादी के लिए पानी की माँग हुई तो जमीन का सीना चीर कर नलकूप रोपे गए। दो से पाँच फुट चौड़ी गलियों में जम कर एयरकंडीशनर लगे। यही नहीं बस्ती से सट कर बह रही यमुना को होली गेट के करीब बैराज बना कर बाँधा गया। इनका मिला-जुला परिणाम है कि जमीन भीतर से खोखली, दलदली व कमजोर हो गई। एसी व अन्य कारकों से तापमान बढ़ने से इस समस्या को और विकराल बनाया। सरकार में बैठे लोग समस्या को समझते हैं लेकिन ऐसा कोई फैसला लेने से बचते हैं जिसमें जनता को कोई नसीहत हो। परिणाम सामने हैं आए दिन मकान ढहते हैं, बयानबाजी होती है और हालात जस के तस रह जाते हैं।

अभी आए भूकम्प का हालाँकि मथुरा पर ज्यादा असर नहीं था, लेकिन पुराने मथुरा के कई भवनों के बीच की दरार बढ़ गई है। उस भूकम्प के बाद आज भी पुराने मथुरा में लोग अपने घरों में सोने से डर रहे हैं। यदि मथुरा की पुरानी बस्ती को बचाना है तो सबसे पहले वहाँ हर तरीके के नए निमार्ण पर रोक लगनी चाहिए। फिर बैराज के बनने से बढ़े दलदल व जमीन के कमजोर होने का अध्ययन होना चाहिए। भूजल पर पाबन्दी तो है लेकिन उस पर अमल नहीं। यह जान लें कि पहाड़ पर बनी बस्तियों में नीचे की ओर जल निकासी निर्बाध होना चाहिए व कहीं भी लीकेज बेहद खतरनाक हो सकता है। यदि इन बिन्दुओं के साथ पुराने मथुरा के पुनर्वासन पर काम किया जाए तो मकानों के ढहने की समस्या का निराकरण करना कठिन नहीं है।

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