नाजुक लेकिन अत्यन्त उपयोगी ये झिल्लियाँ (Membrane: Delicate but very useful)


संश्लेषित झिल्ली की संरचना एवं प्रक्रिया जैविक झिल्ली के मुकाबले काफी सरल होती है, फिर भी इनकी महत्त्व आज औद्योगिक प्रक्रियाओं में अत्यधिक है। इसमें आश्चर्य नहीं कि आज समुद्री जल को पीने योग्य बनाने में सबसे अधिक ‘मेम्ब्रेन टेक्नोलॉजी’ का उपयोग हो रहा है। यही नहीं इनका उपयोग औद्योगिक संयंत्रों से निकलने वाले अपशिष्ट को स्वच्छ करने, खाद्य, औषधि, चिकित्सीय एवं अन्य उद्योगों में विभिन्न प्रकार के मिश्रणों में से आवश्यक घटकों को पृथक करने में प्रचुर मात्रा में हो रहा है। क्या आप जानते हैं कि प्राणियों के शारीरिक अंगों में यथावश्यक महत्त्वपूर्ण रसायन को यथासमय एवं नियंत्रित मात्रा में कैसे पहुँचाया जाता है? समुद्र के खारे पानी को कैसे पीने योग्य बनाया जाता है? शरीर में रक्त कैसे साफ होता है? अपोहन (डायलिसिस) की प्रक्रिया में रक्त कैसे शुद्ध होता है? स्विमिंग पूल एवं जल क्रीड़ा हेतु जल को कैसे असंक्रामक बनाया जाता है, आदि।

जी हाँ, ये प्रश्न अपने आप में काफी रोचक एवं महत्त्वपूर्ण हैं और इनका उत्तर भी कम रोचक नहीं है। यह सम्भव होता है विशेष प्रकार की झिल्लियों (मेम्ब्रेन्स) की सहायता से। प्राणियों के शरीर में अत्यन्त बारीक (नैनोमीटर मोटाई की) जैविक झिल्लियाँ होती हैं जो विशेष परिस्थितियों में आवश्यक रसायनों को चुन-चुन कर अत्यन्त दक्षता एवं न्यूनतम ऊर्जा व्यय के साथ झिल्ली में से पार करती है और इसके लिये उसे किसी बाहरी चालन बल की भी आवश्यकता नहीं होती है।

इसके विपरीत संश्लेषित झिल्ली (सिंथेटिक मेम्ब्रेन) अपेक्षाकृत मोटी (कई माइक्रोमीटर मोटाई की) होती है और इसमें परिवहन के लिये बाहरी चालन बल की ज़रूरत होती है, हालांकि संश्लेषित झिल्ली की संरचना एवं प्रक्रिया जैविक झिल्ली के मुकाबले काफी सरल होती है, फिर भी इनकी महत्त्व आज औद्योगिक प्रक्रियाओं में अत्यधिक है। इसमें आश्चर्य नहीं कि आज समुद्री जल को पीने योग्य बनाने में सबसे अधिक ‘मेम्ब्रेन टेक्नोलॉजी’ का उपयोग हो रहा है। यही नहीं इनका उपयोग औद्योगिक संयंत्रों से निकलने वाले अपशिष्ट को स्वच्छ करने, खाद्य, औषधि, चिकित्सीय एवं अन्य उद्योगों में विभिन्न प्रकार के मिश्रणों में से आवश्यक घटकों को पृथक करने में प्रचुर मात्रा में हो रहा है।

ऊर्जा के क्षेत्र में बैटरी एवं ईंधन सैलों के लिये प्रमुख घटकों के तौर पर, कृत्रिम अंगों के विकास, रोगी के शरीर में यथा-स्थल औषधि पहुँचाने, कृषि के क्षेत्र में खाद एवं पोषण तत्वों को नियंत्रित तौर पर पौधों को देने आदि में झिल्ली-युक्तियों की भूमिका आज महत्त्वपूर्ण बनती जा रही है। सबसे उल्लेखनीय यह है कि इन झिल्ली-प्रक्रियाओं में पर्यावरण कम-से-कम प्रभावित होता है।

कुछ ऐतिहासिक पहलू


हालांकि संश्लेषित झिल्लियों यानी ‘सिंथेटिक मेम्ब्रेन’ का इतिहास अधिक पुराना नहीं है, फिर भी पिछले 40-50 वर्षों में बड़ी मात्रा में उत्पादन के लिये इस ‘मेम्ब्रेन टेक्नोलॉजी’ ने अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है। ऐसा माना जाता है कि अठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम परासरण (ऑस्मोसिस) के बारे में डॉ. जे.ए. नोलेट (सन 1752) नें जानकारी दी।

उन्होंने यह पाया कि जल एवं ऐल्कोहॉल के मिश्रण में से केवल जल ही सुअर के ब्लैडर में अन्दर प्रवेश करता है। इस विषय पर एक क्रमबद्ध अध्ययन की शुरुआत वैज्ञानिक टी. ग्राह्म द्वारा विभिन्न माध्यमों में गैसों के प्रसरण सम्बन्धी खोज (सन 1861) के उपरान्त हुई।

यह उल्लेखनीय है कि पहली कृत्रिम अर्धपारगम्य झिल्ली क्यूप्रिक फैरोसाइनाइड को सरंध्र पोर्सलिन के ऊपर एक तनु फिल्म के रूप में अवक्षेपित करके सन 1887 में बनाई गई थी। बीसवीं शताब्दी में झिल्ली आधारित विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को एक नया स्वरूप मिला जब सन 1908 में एच. बेच्होल्ड ने पहली संश्लेषित झिल्ली को तैयार करने में सफलता प्राप्त की। इसे एक फिल्टर पेपर को ऐसिटिक एसिड में ग्लेशियल नाइट्रोसेलुलोज के घोल से संसेचित करके बनाया गया था।

सन 1950 के बाद से झिल्ली के प्रायोगिक अनुप्रयोग होने लगे। कालान्तर में एस. लोएब तथा एस. सॉरिराजन ने सेलुलोज ऐसीटेटपर आधारित विपरीत परासरण (रिवर्स ऑस्मोसिस) प्रक्रिया की जानकारी दी और 1980 के दशक में विद्युत अपोहन (डायलिसिस) प्रक्रिया के साथ एक नए युग का प्रारम्भ कहा जाता है। प्रकृति में पौधों की जड़ों के रेशों द्वारा जमीन से पानी को खींचकर पद्धत्तियाँ तक पहुँचाना विपरीत परासरण प्रक्रिया का एक स्वरूप है।

झिल्ली के प्रकार


पृथक्करण कार्यों में प्रयुक्त होने वाली झिल्लियों की संरचना एवं उनकी कार्यशैली में काफी भिन्नता होती है। इस आधार पर कुछ झिल्लियाँ, सिरामिक, पॉलिमर या धातु से बनी सरंध्र (पोरस) अथवा सघन परत के रूप में हो सकती हैं। इसलिये इन्हें अलग-अलग विधियों से बनाया जाता है जो उनके अपेक्षित अनुप्रयोग पर निर्भर करता है। झिल्लियाँ दो प्रकार की होती हैं: (1) सममित (सिमेट्रिकल), एवं (2) असममित (ऐसिमेट्रिकल)। सममित झिल्ली में औसत छिद्र आकार (01 से 20 माइक्रोन) पूर्णत: एक समान होते हैं जबकि असममित प्रकार में छिद्र आकार (
जैविक झिल्ली की मौलिक संरचना द्वि-परत (बाई लेअर) लिपिड के समतुल्य होती है। यह कोशिकाओं को अपने चारों ओर के परिवेश से अलग रखती है लेकिन उनकी संहति, ऊर्जा तथा आवेश के विनिमय को अत्यन्त सूक्ष्मता से नियंत्रित करती है। इस प्रकार की झिल्ली में दो लिपिड अणु होते हैं जिनमें निहित जलस्नेही एवं जलरागी भाग इस तरह से व्यवस्थित होते हैं कि जलस्नेही भाग झिल्ली की सतह की ओर इंगित रहता है और जलरागी भाग अन्दर की ओर। पूरी झिल्ली की मोटाई 10 नैनोमीटर के लगभग होती है तथा यह अपेक्षाकृत केवल छोटे अणुओं के लिये पारगम्य होती है।

झिल्ली बनाने की विधियाँ


अ. सममित झिल्ली


1. पाउडर सिंटरिंग, फिल्म का तनन (स्ट्रेच) करना एवं टेम्प्लेट निक्षारण (एचिंग)- समदैशिक (आइसोट्रोपिक) माइक्रोसरंध्र झिल्ली बनाना काफी कठिन काम होता है क्योंकि इसकी संरचना समिश्र किस्म की होती है। इनको पाउडर सिंटरिंग से बनाने के लिये मोटे कणों का उपयोग होता है। फलस्वरूप तैयार झिल्ली में छिद्र आकार एक समान नहीं होते। मोटी एवं सघन पॉलिमर फिल्म का तनन (स्ट्रेच) कर के बनाई जाने वाली झिल्ली में सरंध्रता बहुत होती है और साथ ही छिद्र आकार भी भिन्न रहते हैं। इनके विपरीत विकिरण एवं निक्षारण द्वारा बनाई गई झिल्ली में एक समान आकार के गोलीय छिद्र बनते हैं।

2. पॉलिमर पाउडर का सम्पीडन एवं सिंटरिंग विधि- इस विधि में पदार्थ (पॉलिमर, सिरामिक अथवा धातु) को महीन पाउडर के रूप में ले कर उसे पहले सम्पीडित (कम्प्रेस) करके पतली चादर की तरह बना लेते हैं अथवा एक्स्ट्रूड करके फिल्म बना लेते हैं, फिर वांछित आकृति (डिस्क, कारट्रिज, ट्यूब आदि) में ढाल कर गलन बिन्दु से एकदम नीचे के ताप पर सिंटरिंग करते हैं। इस विधि से पॉलिमर जैसे पॉलिप्रोपिलीन, पॉलियेथिलीन, पॉलिटेट्राफ्लूरोइथिलीन, अकार्बनिक पदार्थ जैसे एलुमिनियम या जिर्काेनियम ऑक्साइड, काँच, धातु आदि से झिल्ली बना सकते हैं। सिरामिक झिल्ली के लिये पाउडर की लुगदी (पेस्ट) को लेकर से वांछित आकृति में ढाल कर सिंटर करते हैं। इस प्रकार बनाई गई झिल्लियों में छिद्र आकार 0.2 से 20 माइक्रोन के बीच होते हैं।

आम प्रचलित सममित झिल्लियों में फिल्टर के छिद्र की मोटाई पर कणों के रुकने की सम्भावना के कारण उपयोग के समय के साथ-साथ प्रवाह कम होता चला जाता है जबकि असममित झिल्लियों में सरंध्र संरचना त्वाचिक परत के लिये केवल एक आधार स्वरूप काम करती है। वस्तुतः यह एक सतह फिल्टर की तरह काम करता है जिसमें कण सतह पर रुकते हैं जिन्हें आसानी से पोंछ कर साफ किया जा सकता है, अतः समय के साथ प्रवाह पर असर नहीं पड़ता है। 3. ट्रैक निक्षारण (एचिंग) विधि- इस विधि में झिल्ली को दो चरणों में बनाया जाता है। पहले चरण में 6 से 15 माइक्रोन की पॉलिमर फिल्म को एक विकिरण स्रोत (नाभिकीय रिएक्टर) द्वारा एक समान्तरित (कोलिमेटेड) आवेषित कणों के पुंज से उद्भाषित करते हैं। इससे फिल्म में सुग्राहित ट्रैक बन जाते हैं और जब दूसरे चरण में इस फिल्म को निक्षारण बाथ से गुजारते हैं तो ये ट्रैक विशेषतः निक्षारित होकर बेलनाकार छिद्र में परिणित हो जाते हैं। इस प्रकार बनी झिल्ली काफी समान छिद्र आकार (0.1 से 10 माइक्रोन) वाली होती है।

लीथोग्राफी तथा निक्षारण विधि- सरंध्र माइक्रोफिल्टर झिल्ली को बनाने की एक अन्य विधि में पहले माइक्रोलीथोग्राफी विधि से वांछित पैटर्न बना लेते हैं एवं फिर निक्षारण द्वारा एक समान छिद्र पैटर्न बना दिया जाता है। इस विधि से खास तौर पर सिलिकन झिल्ली बनाई जाती है। इसके लिये सिलिकन पर लगभग 1 माइक्रोन मोटी सिलिकन नाइट्राइड की फिल्म बनाते हैं जिसके ऊपर स्पिन निक्षेपण (डिपोजिशन) विधि से प्रकाश सुग्राही लेकर लगा दिया जाता है। इसे फिर पराबैगनी विकिरणों से उद्भाषित करके और सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) विलयन द्वारा निक्षारित करने के उपरान्त पैटर्न बना लेते हैं। यह पैटर्न कम दाब पर सक्रिय आयन निक्षारण द्वारा सिलिकन नाइट्राइड सतह पर आ जाता है। सरंध्र झिल्ली बनाने के लिये एक संशोधित विधि में एक्स-रे लीथोग्राफी एवं गैल्वनिक फॉरमिंग द्वारा वांछित संरचना की प्रतिकृति (रेपलिका) भी बनाई जाती है।

4. टेम्प्लेट लीचिंग द्वारा काँच की झिल्ली- इस विधि में दो तरह के काँचों को अच्छी तरह से आपस में मिलाकर एवं फिर उच्च ताप पर गला कर शीतलित कर दिया जाता है। इस प्रकार यह दो प्रावस्थाओं (एक जो सांद्र अम्ल में घुल जाता होता है एवं दूसरा जो अघुलनशील रहता है) वाले काँच में परिवर्तित हो जाता है। फिर उचित सान्द्र अम्ल द्वारा पहली किस्म के काँच को निकाल दिया जाता है, जिससे एक समान सरंध्रता का दूसरा काँच बन जाता है। इस विधि में चादर या कैपिलरी के रूप में, न्यूनतम छिद्र आकार 0.05 माइक्रोन, की झिल्ली बनाई जा सकती हैं।

5. सरंध्र ग्रेफाइट झिल्ली- इस प्रक्रार की झिल्लियाँ पॉलियेक्राइलोनाइट्राइल को एक अक्रिय पर्यावरण में 600 से 800 डिग्री सेल्सियस पर ताप-अपघटित (पाइरोलाइज) करके बनाई जा सकती हैं। इन्हें सरंध्र सिरामिक के आधार पर अथवा खोखले फाइबर पर निक्षेपित किया जाता है। इनका छिद्र आकार 1 से 4 नैनोमीटर के लगभग होता है तथा इन्हें अतिफिल्टरन एवं गैस पृथक्कीकरण में प्रयुक्त किया जाता है।

6. प्रावस्था प्रतिलोमन विधि- इस विधि से दोनों सममित एवं असममित किस्म की सरंध्र झिल्लियाँ बनाई जा सकती हैं। इस विधि में एक समांगी पॉलिमर विलयन को दो प्रावस्थाओं में परिवर्तित किया जाता है;

1. पॉलिमर-रिच प्रावस्था, एवं
2. पॉलिमर-लीन प्रावस्था।

पहले से सघन झिल्ली संरचना तैयार की जाती है जबकि दूसरे से झिल्ली के छिद्र। इस प्रक्रिया के सम्पन्न होने के लिये ऊष्मागतिकी की शर्त यह होती है कि एक विशेष ताप एवं सान्द्रता रेंज में यह निकाय मिश्रणीय होना चाहिए। इसमें 0.1 से 20 माइक्रोन के छिद्र आकार की झिल्लियाँ बनाई जा सकती हैं। अधिकांशतः प्रावस्था प्रतिलोमन विधि से निर्मित सममित सरंध्र झिल्लियाँ प्रयोगशाला एवं व्यावसायिक स्तर पर पृथक्करण प्रक्रियाओं में प्रयुक्त होती हैं।

उदाहरण के तौर पर टर्बिड विलयन से बैक्टीरिया या वाइरस का निष्कासन करने और आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी में पैथालॉजी सम्बन्धी विश्लेषण के अन्तर्गत एंजाइम का अचलीकरण करने तथा जल की गुणवत्ता परीक्षण में सूक्ष्मजीवों को कल्चर करने के लिये उपयुक्त मानी जाती हैं।

आ. असममित झिल्ली


अधिकांशतः बड़े पैमाने पर पृथक्कीकरण जैसे कार्यों में असममित झिल्लियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। इन झिल्लियों में 0.1 से 1.0 माइक्रोन छिद्र आकार की एक त्वाचिक (स्किन) परत लगभग 100 से 200 माइक्रोन मोटे सरंध्र आधार पर व्यवस्थित होती है। इनसे की जाने वाली प्रक्रियाओं की क्षमता एवं गुणता मुख्यतः पॉलिमर की प्रकृति एवं छिद्र आकार वितरण पर निर्भर करती है। ये मुख्यतः दाब चालित प्रक्रियाओं जैसे विपरीत परासरण, अति-फिल्टरन (अल्ट्रा-फिल्टरेशन), गैस पृथक्करण आदि में प्रयुक्त होती हैं।

आम प्रचलित सममित झिल्लियों में फिल्टर के छिद्र की मोटाई (गहराई) पर कणों के रुकने की सम्भावना के कारण उपयोग के समय के साथ-साथ प्रवाह कम होता चला जाता है जबकि असममित झिल्लियों में सरंध्र संरचना त्वाचिक परत के लिये केवल एक आधार स्वरूप काम करती है। वस्तुतः यह एक सतह फिल्टर की तरह काम करता है जिसमें कण सतह पर रुकते हैं जिन्हें आसानी से पोंछ कर साफ किया जा सकता है, अतः समय के साथ प्रवाह पर असर नहीं पड़ता है।

इनको मुख्यतः प्रावस्था प्रतिलोमन विधि से बनाया जाता है। इसके लिये पूर्व कथित प्रक्रिया की भाँति एक समांगी पॉलिमर विलयन को दो प्रावस्थाओं में परिवर्तित किया जाता है;

1. पॉलिमर-रिच प्रावस्था, एवं
2. पॉलिमर-लीन प्रावस्था।

पहले से सघन झिल्ली संरचना तैयार की जाती है जबकि दूसरे से झिल्ली के छिद्र। प्रावस्था प्रतिलोमन प्रसरण प्रेरित और ताप प्रेरित दोनों तरह से सम्भव होता है। प्रसरण प्रेरित प्रक्रिया में पॉलिमर विलयन को सामान्य ताप पर बनाकर 200 से 400 माइक्रोन मोटी परत एक समतल आधार या ड्रम पर विलेपित कर देते हैं और फिर ऐसे पात्र जिसमें विलायक मौजूद न हो, में डालकर शमन (क्वैंच) कर देते हैं। फलस्वरूप एक झिल्ली तैयार हो जाती है, जिसे ऐसे विलयन में प्रक्षालित (रिंस) करते हैं जिसमें आरम्भिक विलायक पूर्णतः निकल जाये। फिर इसे सुखा लेते हैं।

इसी प्रकार ताप प्रेरित प्रक्रिया में पॉलिमर का विलयन उच्च ताप पर बनाते हैं और उचित आधार पर इस विलयन से 200 से 400 माइक्रोन मोटी परत जमा लेते हैं। फिर ताप को इतना कम करते हैं कि विलायक अस्थिर अवस्था में पहुँच कर निकल जाये। इसके बाद झिल्ली को सुखा देते हैं।

झिल्ली प्रक्रिया के लाभ एवं सीमाएँ


यह अन्य पृथक्करण प्रक्रियाओं (आसवन, वाष्पन, क्रिस्टलीकरण आदि), से कई मायनों में अत्यधिक ऊर्जा दक्ष होती है एवं आसानी से इसकी उत्पादन पद्धति को आवश्यकतानुसार यथासमय कम या अधिक में बदल सकते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण एवं लाभदायक बात है कि इन्हें सामान्य ताप पर प्रचालित किया जाता है और पर्यावरणीय प्रभाव भी कम-से-कम रहता है।

प्राप्त उत्पाद की गुणता अन्य विधियों से प्राप्त उत्पाद से बेहतर होती है। कुछ विशेष पृथक्करण (जैसे ऐजोट्रॉपिक द्रवों या पदार्थों का पृथक्करण) जो ऊष्मीय विधियों से सम्भव नहीं हो पाते हैं उन्हें इस विधि से बड़ी आसानी से किया जा सकता है। लेकिन अभी भी कुछ ऐसे अनुप्रयोग हैं जैसे रासायनिक एवं पेट्रो-रासायनिक उद्योग, जिनमें इसकी दीर्घकालीन विश्वसनीयता पूर्णतः सिद्ध नहीं हुई है। इसके अलावा ये झिल्लियाँ नाजुक होती हैं और परिचालन के दौरान विशेष ध्यान रखना होता है, अन्यथा खराब भी हो सकती हैं।

झिल्लियों के अनुप्रयोग


पिछले दो दशकों में ‘मेम्ब्रेन टेक्नोलॉजी’ में अत्यन्त अधिक विकास हुआ है तथा उनके अनुप्रयोगों में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि संश्लेषित झिल्लियों का मुख्य काम मिश्रित माध्यम के घटकों का पृथक्कीकरण होता है जो एक साधारण बात कही जा सकती है। फिर भी आज विभिन्न उद्योगों में उनकी क्रान्तिक आवश्यकताओं में यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन गया है जिससे अनुप्रयोगों के अनेक द्वार खुल गए हैं। पीने के लिये पानी के स्वच्छीकरण, जल क्रीड़ा हेतु जल को असंक्रामक बनाना, खाद्य व पेय (दुग्ध) पदार्थ संसाधन, पर्यावरण संरक्षण, उद्योगों के लिये अतिशुद्ध रसायन, जल, गैस आदि उपलब्ध कराने से लेकर रक्त की डायलसिस तक इनके अनेक अनुप्रयोग आज देखने को मिल रहे हैं और ये सारे काम विपरीत परासरण, नैनोफिल्टरन, अतिफिल्टरन, सूक्ष्मफिल्टरन, गैस पृथक्करण, अपोहन, विद्युतअपोहन, परवैपोरशन में से किसी एक अथवा संयोजन से सम्पन्न किये जाते हैं। सारणी-1 में कुछ झिल्लियों के प्रकार, एवं अनुप्रयोगों का उल्लेख किया गया है।

सारणी – 1 – झिल्लियों के प्रकार, प्रयुक्त पदार्थ बनाने की विधि एवं कुछ अनुप्रयोग


 

झिल्ली का प्रकार

निर्मिति हेतु पदार्थ

छिद्र आकार (माइक्रोन)

निर्मित विधि

अनुप्रयोग

सममित सरंध्र संरचना

सिरामिक, धातु पॉलिमर, ग्रेफाइट

01-20

पाउडर सम्पीडन एवं सिंटरिंग

सूक्ष्मफिल्टरन, गैस पृथक्करण

 

आंशिक तौर पर क्रिस्टलीय पॉलिमर

0.2-10

एक्सक्रूडिंग एवं तनन

पॉलिमर, बैटरी में पृथक्कारक

 

पॉलिमर, माइका

0.05-5

विकिरणन एवं फिल्म निक्षारण

सूक्ष्मफिल्टरन

 

सिरामिक, धातु, पॉलिमर

0.5-20

फिल्म का टेम्प्लेट निक्षारण

सूक्ष्मफिल्टरन

 

सिरामिक, धातु, पॉलिमर

0.5-20

फिल्म का टेम्प्लेट निक्षारण

सूक्ष्मफिल्टरन

 

पॉलिमर

0.5-10

ताप प्रेरित प्रावस्था प्रतिलोमन

सूक्ष्मफिल्टरन

अससमित सरंध्र संरचना

पॉलिमर

< 0.01

प्रसरण प्रेरित प्रावस्था प्रतिलोमन

अतिफिल्टरन

 

सिरामिक

<0.01

सॉल जैल प्रक्रिया (कम्पोजिट झिल्ली)

अतिफिल्टरन

 

जल शुद्धिकरण


इसमें पेयजल (घरों एवं वृहद स्तर पर), म्यूनिसिपल एवं औद्योगिक अपशिष्ट जल, अतिशुद्ध जल, जल क्रीड़ा एवं स्विमिंग पूल हेतु जल, आदि का स्वच्छीकरण आता है। इन कार्यों में आवश्यकतानुसार आज पारम्परिक शुद्धिकरण विधियों के अलावा झिल्लियों पर आधारित विपरीत परासरण, अतिफिल्टरन, सूक्ष्मफिल्टरन, अपोहन, विद्युतअपोहन आदि का उपयोगकिया जाता है। अति एवं सूक्ष्मफिल्टरन में जल में मौजूद कण, कोलॉइडस तथा बृहदणु (माइक्रोमॉलिक्यूल्स) अलग करके असंक्रमित करते है। स्विमिंग पूल एवं जल क्रीड़ा स्थलों में प्रयुक्त पानी को निरन्तर असंक्रामक बनाना अत्यन्त आवश्यक होता है ताकि बच्चों एवं वयस्कों को दूषित जल से होने वाले चर्म रोग एवं अन्य बीमारी से बचाया जा सके। उचित छिद्र आकार की झिल्लियाँ संक्रमण फैलाने वाले रोगाणुओं को रोक कर पानी को इस काम के लिये उपयोगी बनाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि विपरीत परासरण एवं नैनोफिल्टरन संयंत्रों से केवल घुलित अशुद्धियों को निकाला जाता है एवं इसलिये इसके लिये एकदम साफ पोषित (फीड) जल होना चाहिए। विद्युतअपोहन जल से केवल आयन को निकालता है न कि निलम्बित कण, क्रिप्टो, अनावेषित अणु आदि को अतिफिल्टरन में रंग, गन्ध पैदा करने वाले अकार्बनिक पदार्थ, वायरस, अन्य सूक्ष्म रोगाणु आदि निष्कासित होते हैं न कि घुलित अशुद्धियाँ जबकि सूक्ष्मफिल्टरन में निलम्बित कण, क्रिप्टो, गिअर्डिया आदि न कि रंग, वायरस, एवं घुलित अशुद्धियाँ।

विपरीत परासरण विधि का उपयोग समुद्री एवं खारे जल के निर्लवणीकरण में सन 1970 से हो रहा है। कम दाब पर कार्यरत विपरीत परासरण विधि नैनोफिल्टरन भी कहलाती है और इसका उपयोग कठोर जल, अधिक रंगीन जल एवं उच्च कार्बनिक पदार्थ युक्त जल के उपचार में होता है। विपरीत परासरण का उपयोग अकार्बनिक सन्दूषक पदार्थों जैसे रेडियो-न्यूक्लिआइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक, कीटनाशक, आदि, निकालने में भी होता है। दाब-रहित विद्युतअपोहन विधि का उपयोग भी घुलनशील पदार्थ एवं सन्दूषकों को निष्कासित करने में काफी होता है। औद्योगिक संयंत्रों से निष्कासित अपशिष्ट जल में मौजूद अवांछित कणों, कोलॉइडों, बृहदणु (मैक्रो मॉलिक्यूल) आदि को अति/सूक्ष्मफिल्टरन द्वारा निकाल कर असंक्रमित एवं स्वच्छ किया जाता है ताकि जब उसे विसर्जित करें तो वह रिसकर अथवा सम्पर्क में आकर पेयजल, जल क्रीड़ा एवं मनोरंजन, स्विमिंग पूल हेतु प्रयुक्त जल को दूषित न कर पाये।

खाद्य पदार्थ संसाधन


खाद्य पदार्थों, दुग्ध-पदार्थ से लेकर फलों के रस, के संसाधन में लगे उद्योगों में विभिन्न अभिविन्यास में झिल्लियों का उपयोग बहुत अधिक मात्रा में हो रहा है क्योंकि इनसे संसाधित पदार्थ पारम्परिक फिल्टरन विधि से प्राप्त पदार्थों के मुकाबले गुणवत्ता में बेहतर होते हैं। पारम्परिक विधि में डाइटोमेटिअस अर्थ (मृदा) या कार्ट्रिज या बैग फिल्टर में दाबित फिल्टरन किया जाता है और बताया जा रहा है कि डाइटोमेटिअस अर्थ के कारण स्वास्थ्य एवं पर्यावरण प्रभावित होते हैं। इसमें मौजूद क्रिस्टलीय सिलिका की धूल का श्वसन से सिलिकोसिस होने की सम्भावना होती है। साथ ही प्रक्रिया भी धीमी और कम दक्ष होती है एवं फिल्टर केक के निपटान की अपनी समस्याएँ हैं।

समुद्री जल को पीने योग्य बनाने के अलावा खाद्य पदार्थों के संसाधन में विपरीत परासरण का उपयोग उनके सांद्रीकरण, शुद्धिकरण एवं आवश्यक घटकों की पुनर्प्राप्ति जैसे कामों के लिये किया जाता है। इसके लिये आवश्यकतानुसार अन्य पृथक्करण/ फिल्टरन विधियों का भी साथ में उपयोग करते हैं। इस विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस संसाधन में वाष्पन की आवश्यकता नहीं पड़ती और ऊर्जा भी कम लगती है। गर्म करने से पौष्टिकता में आने वाली कमी से भी बचा जा सकता है। सूक्ष्मफिल्टरन का उपयोग खाद्य पदार्थों के संसाधन में पारम्परिक अपकेन्द्रण (सैंट्रिफ्यूगेशन) प्रक्रिया के स्थान पर एवं निर्जीवीकरण के लिये ऊष्मा के बदले किया जाता है। वस्तुतः यह खाद्य पदार्थों में से निलम्बित कणों, चर्बी, उच्च आणविक भार के प्रोटीन को निकाल कर अलग करता है। यह विधि दुग्ध-पदार्थ संसाधन में चीज (पनीर) का स्वच्छीकरण, चर्बी का निष्कासन, मौजूद रोगाणुओं (माइक्रोबियल) को कम करने में प्रयुक्त होती है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि इस विधि में एक सतत (स्थिर) बल लगाना पड़ता है। अतिफिल्टरन का उपयोग दूध प्रभाजन (फ्रैक्शनेशन), सांद्रीकरण, स्वच्छीकरण में होता है। चीज बनाने में दूध का प्रभाजन इसी विधि से करते हैं। इसमें चर्बी, प्रोटीन, अघुलनशील लवण झिल्ली द्वारा एक तरफ हो जाते हैं एवं घुलनशील लवण झिल्ली में से पार हो जाते हैं। दुग्ध पर आधारित पेय पदार्थों की आज बहुत बड़ी माँग है और अतिफिल्टरन का इस काम के लिये अत्यधिक उपयोग होता है।

स्किम्ड दूध (मलाईरहित दूध) में उच्च कैल्शियम एवं प्रोटीन की मात्रा पाई जाती है। इसी प्रकार इस विधि का उपयोग फलों के रस संसाधन में भी बहुतायत में होता है। यह रस में मौजूद अशुद्धियों, जैसे यीस्ट, बैक्टीरिया, पॉलिसैकराइड, टैनिन, कोलॉइड आदि को निकालकर उसे स्वच्छ करने एवं स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

नैनोफिल्टरन का उपयोग विशेषकर ऐसे विलयन जिसमें वांछित तथा अवांछित दोनों प्रकार के घटक उपस्थित होते हैं, को पृथक करने में होता है। उदाहरण के तौर पर इस विधि से कॉर्न सिरप का सांद्रीकरण किया जाता है। प्रयुक्त झिल्ली केवल जल को निकालती है जबकि शर्करा सिरप में छोड़कर उसे सांद्रित करती है। शर्करा के अलावा, नैनोफिल्टरन द्विसंयोजकता वाले लवण, बैक्टीरिया, प्रोटीन, तथा उच्च आणविक भार (> 1000 डॉल्टन) वाले घटकों को भी सांद्रित करने में सक्षम होती है। यह दुग्ध उत्पादों के विलवणीकरण एवं सांद्रण में भी प्रयुक्त की जाती है।

विपरीत परासरण


समुद्री जल को पीने योग्य बनाने के अलावा खाद्य पदार्थों के संसाधन में विपरीत परासरण का उपयोग उनके सांद्रीकरण, शुद्धिकरण एवं आवश्यक घटकों की पुनर्प्राप्ति जैसे कामों के लिये किया जाता है। इसके लिये आवश्यकतानुसार अन्य पृथक्करण/ फिल्टरन विधियों का भी साथ में उपयोग करते हैं। इस विधि का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस संसाधन में वाष्पन की आवश्यकता नहीं पड़ती और ऊर्जा भी कम लगती है। गर्म करने से पौष्टिकता में आने वाली कमी से भी बचा जा सकता है।

विद्युत प्रमोहन


इसका उपयोग दूध एवं मट्ठा का निर्लवणीयकरण तथा फलों के रस की अम्लता को कम करने के लिये होता है। इस विधि के उपयोग से पनीर बनाने की प्रक्रिया में प्राप्त चीज-मट्ठा (Cheese Whey) से प्रोटीन एवं नवजात शिशुओं का आहार बनाया जा सकता है। सारांश में विभिन्न झिल्ली आधारित प्रौद्योगिकियों द्वारा जहाँ एक ओर दूषित जल एवं अपशिष्ट जल को पीने योग्य बनाने के साथ-साथ उन्हें अन्य औद्योगिक आवश्यकताओं जैसे कृषि, कागज, रासायनिक, औषधि, चिकित्सा आदि के लिये भी उपयोगी बनाया जाता है, वहीं दूसरी ओर इनके उपयोग से खाद्य एवं दुग्ध संसाधन में अद्भुत प्रगति हुई है। चिकित्सीय अनुप्रयोगों का भाग निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है।

आज की स्थिति में ‘मेम्ब्रेन टेक्नोलॉजी’ का लगभग आधा बाजार चिकित्सीय अनुप्रयोगों में होता है। कृत्रिम फेफड़ों से बुलबुले रहित ऑक्सीजन तैयार की जाती है। अस्पतालों में संवातन गैस को शुद्ध करना किसी मायने में गौण नहीं कहा जा सकता हैं। ऊर्जा के क्षेत्र में ईंधन सैलों में तथा परासरण पर आधारित ऊर्जा संयंत्रों में झिल्ली का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न विज्ञान एवं आधुनिक प्रौद्योगिकियों में भी अतिशुद्ध जल एवं रसायनों की आवश्यकताएँ भी नूतन पृथक्करण विधियों से पूरी की जा रही हैं और आशा है कि भविष्य में कई अन्य आयाम उजागर होंगे।

डॉ. गोविंद प्रसाद कोठियाल, (पूर्व अध्यक्ष, ग्लास एवं प्रगत सिरामिकी प्रभाग, पदार्थ वर्ग, भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र, मुम्बई),180/142, आराघर, देहरादून, उत्तराखण्ड,

ई-मेल: gpkothiyal@yahoo.co.in



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