नालों की मनुहार

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मालवा में नालों को ‘खाल’ भी कहते हैं। गाँव समाज इनसे इतना प्यार करता था कि इन्हें परिजनों की तरह नाम से बुलाते थे। मसलन, रामदेवजी का नाला नाम इसलिए रखा था, क्योंकि बरसों पहले से यहाँ दो खजूरों के बीच रामदवजी का मंदिर है। आड़ा खाल- इसलिए कि यह पहाड़ी से ही आड़ा-तिरछा बहकर आ रहा है। बंडिया खाल में बहाव तेज रहा करता था। बरसात में इसे पार करना मुश्किल होता था। इसके ‘तेज’ के कारण ही गाँव समाज इसे बंडिया कहता था। बंडिया याने तेज। इन सब नालों में अलग-अलग तरह से पानी रोका जा रहा है। इस वजह से आस-पास के जलस्रोत जिन्दा रहने लगे हैं।

.....बूँदों की जिन्दगी का सफर क्या है.....? .......बादलों से बरसकर धरती की गोद में आना। गाँव क्षेत्रों में खेतों पर भी गिरना। जमीन में समाने के बाद शेष बूँदें यहाँ किसानों द्वारा निकाली गई नालियों में चल पड़ती हैं। ये नालियाँ मिलकर छापरे का रूप धारण करती हैं। छापरा याने खेत से एक साथ निकलने वाला पानी। ये छापरे आगे जाकर नालों में मिल जाते हैं। जल प्रवाह में नालों की स्थिति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। नाले कई गाँवों की तो जीवन-रेखा भी होते हैं। नालों से नदियाँ और नदियों से समुद्र.....!

मध्य प्रदेश हो या कहीं और......... नाले जल संरक्षण और जल प्रवाह में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते रहे हैं। इनकी जल संरक्षण की महत्ता को हम आगे देखेंगे, लेकिन जल प्रवाह में इनकी भूमिका कितनी अहम होती है- इस तथ्य को एक उदाहरण के माध्यम से जानें।

अगस्त, 2005 की बरसात ने भारत की औद्योगिक राजधानी कही जाने वाली मुम्बई महानगरी को हिलाकर रख दिया। लगभग 500 से ज्यादा लोग कालकवलित हो गए..... और भी बहुत कुछ! दरअसल, मुम्बई शहर के बीच से जल प्रवाह की भूमिका में थी मीठी नदी। कभी यह 145 फुट तक चौड़ी हुआ करती थी- आज 10-15 फुट तक रहकर किसी ‘गटर’ का रूप धारण कर चुकी है। जाहिर है, अन्य शहरों की भाँति इसे भी अतिक्रमण की ‘दीमकों’ ने चाट लिया। परिणाम जल प्लावन के रूप में सामने आया।

इसी तरह ये नाले जल संरक्षण के रंगमंच के भी ख्यात कलाकार होते हैं। मध्यप्रदेश में अनेक स्थानों पर इसे देखा जा सकता है। भोपाल के पास इस्लामनगर में तो सदियों पहले ‘कृत्रिम नाले या नदी’ तैयार कर किले की सुरक्षा के साथ जल संरक्षण भी किया जाता रहा। अपने प्राकृतिक स्वरूप में इन्हें अभी भी कई स्थानों पर देखा जा सकता है। मध्यप्रदेश में कुछ स्थान ऐसे भी हैं- जहाँ नालों को उनका परम्परागत स्थान दिलाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

......इस तरह की हाँडी के इक्का-दुक्का चावल हम उठाते हैं।

.....पहली मिसाल नीमच की लेते हैं।

इतिहास के झरोखे से देखें तो नीमच का मध्यप्रदेश में खास स्थान रहा है। यह ग्वालियर, मेवाड़, जावरा, टोंक, होलकर रियासतों को मिलाने वाले केन्द्र पर स्थित है। इन सभी पर निगरानी रखने व समय पड़ने पर नियन्त्रण की दृष्टि से ही इस स्थान का अंग्रेजों ने फौजी छावनी के लिए चयन किया था। इतिहास में इस छावनी का खास महत्व रहा है। इसी तरह नीमच में बहने वाले दो नालों का भी जिक्र इस शहर के इतिहास के साथ नत्थी है- जो न केवल आज भी कायम है, अपितु जल संरक्षण की दिशा में तो इसे नया परिचय भी दिला रहा है। नीमच के पुराने भाग को नीमच सिटी कहा जाता है। यह क्षेत्र किसी जमाने में पुराने किसानों की बस्ती रहा है। नीमच के दक्षिण में जो नाला बहता है, वह उसे पश्चिम की ओर से घेरकर उत्तर तक के भू-भाग को शेष क्षेत्र से अलग कर देता है। इसी तरह शहर से एक और नाला बहता है। यह उत्तर दक्षिण की ओर बहता हुआ नगर के नीचे आकर दूसरे नाले में मिलता है। नीमच में इन दोनों नालों का संगम होता है- नीमच के इतिहास की पुस्तकों में भी यह उल्लेख है।

नीमच के जल संरक्षण की परम्परा में ये नाले केन्द्रीय पात्र रहे है। नीमच में तालाब, बावड़ियाँ, कुएँ और कुंडियाँ थीं। जल प्रबंधन कुछ ऐसा था कि ये नाले सदानीर रहते थे। इनके रिसाव से जलस्रोत जिन्दा रहा करते थे। अनेक घरों की कुण्डियाँ आज भी इन नालों से उनका पुराना सम्बन्ध जाहिर करती मिल जाएँगी। लेकिन कालांतर में जैसा कि देश के अनेक क्षेत्रों में हुआ- नालों को ‘गटर’ बना दिया गया। उन्हें कचरा पेटियों का घर बना दिया गया। अतिक्रमणों से घेरकर इन्हें नेस्तनाबूद कर दिया। नालों की एक ही पहचान हो गई- नाले याने गंदगी....। शहरों में ट्यूबवेल कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ते चले गए। जमीन के भीतर का पुराना पानी भी खत्म हो गया। परिणाम-नीमच में भी वही हुआ- कुण्डियाँ सूखी। फिर ट्यूबवेल भी जवाब दे गया। 700-800 फुट तक खुदाई के बावजूद पानी नहीं मिलता। कुण्डियों में लोग कचरा डालने लगे- ट्यूबवेल वाले कमरे को स्टोर रूम बना लिया, घर से बाहर जाकर पानी के लिए मारे-मारे लोग फिरने लगे।

नीमच में किसान परिवार से वास्ता रखने वाले नगर पालिका अध्यक्ष श्री रघुराजसिंह चौरड़िया ने नालों की महत्ता के उज्ज्वल इतिहास से प्रेरित होकर मध्य प्रदेश में अपनी तरह की शुरुआत की है- नाले की मनुहार। उसकी देखभाल। उसको पुराना स्वरूप दिलाना। जल संरक्षण की गायब परम्परा को फिर वर्तमान बनाना।

नीमच में नालों को जोड़ते हुए शहर के बीच व बाहरी ओर से 18 से 20 कि.मी. तक की रिंग बनाई जा रही है। कभी यह नाला 10 फुट वाली गटर में तब्दील हो गया था- अब अनेक स्थानों पर इसकी चौड़ाई 150 से 200 फुट तक कर दी गई है। नाले का व्यापक स्तर पर गहरीकरण किया गया। 17 कि.मी. के नाले में पानी संरक्षण के लिए करीब 22 स्टापडेम बनाए गए हैं। हर आधा-पौन किलोमीटर पर ‘नाले की मनुहार’ की गई है। बकौल श्री रघुराजसिंह चौरड़िया- “जल ईश्वर का प्रसाद होता है और हम इसे जनता में वितरित करने का प्रयास कर रहे हैं। नीमच में नालों की जल संरक्षण परम्परा की वापसी को कृत्रिम नदी, तालाब या झील कुछ भी नाम दिया जा सकता है। लेकिन मक्सद एक ही है- जल संरक्षण।”

मंडी के पीछे वाले हिस्से में ‘नाले के पुनर्जन्म’ पर तो कोई भी आश्चर्यचकित हो सकता है। यहाँ अब एक तालाब है। इसके भीतर जमीन के टीले भी हैं। यह पानी की अब एक सुंदर संरचना बन गई है। इसके पीछे बगीचा भी बनाया जाएगा। बोटिंग भी शुरू की जाएगी। पूरे नाले के जीर्णोद्धार को-सागर परियोजना’ नाम दिया गया है।

...नाले के जीर्णोद्धार से जल संरक्षण के क्षेत्र में जनता को क्या लाभ मिला?

....जहाँ 700 फुट पर भी खुदाई के बाद पानी नहीं मिलता था, वहाँ अब 20-25 फुट पर पानी मिलने लगा है। गिरते भूजल स्तर की सुर्खियों के बीच यह जानकारी ‘धमाके’ जैसी है। इस नाले के आस-पास के रहवासियों की कुण्डियाँ, कुएँ अब भीषण गर्मी में भी जिन्दा रहने लगे हैं- बरसों पुरानी पानी की परम्परा का इतिहास यहाँ वर्तमान बनने लगा है। इन क्षेत्रों में अब पानी परिवहन के लिए टैंकर नहीं भेजे जा रहे हैं- यह दावा रहवासियों के साथ-साथ नगर पालिका अध्यक्ष चौरड़िया भी करते हैं। पानी रहने से आस-पास के किसान रबी की फसल लेने लगे। स्थानीय स्तर पर सब्जी उत्पादन भी बढ़ गया। इन क्षेत्रों में कुएँ व ट्यूबवेल सूखने की समस्या प्रायः समाप्त होने लगी।

मध्यप्रदेश में कुछ और स्थानों पर भी नालों की परम्परा को जिन्दा करने के प्रयास किए जा रहे हैं- हालाँकि, वे नीमच जितने बड़े पैमाने पर नहीं हैं। उज्जैन जिले की तराना तहसील के गाँव छापरी में सात नाले हैं- जो इस गाँव के नामकरण से ही जाहिर है। कल्पना कीजिए- गाँव का नाम रखते समय कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि सात नालों वाले गाँव में भी जल संकट हो जाएगा, लेकिन काल के प्रदूषण ने इस गाँव को भी नहीं बख्शा। जंगल कटे। तालाब सूखे। पानी गायब होने लगा। समाज ने यहाँ किसी नाले को रोक कर तालाब बना दिया तो किसी नाले में जगह-जगह पानी रोकने की संरचनाएँ बना डालीं। पानी रुका। परम्परा लौटी। लोग अब यहाँ जिन्दा रहने लगे जलस्रोतों के बाद रबी की फसल लेने लगे। महिदपुर के खजुरिया मंसूर में रामदेवजी का नाला- पुराने ‘वैभव’ को प्राप्त कर रहा है।

इसकी मनुहार के बाद यहाँ भी कुँओं आदि में पानी रहने लगा। यहाँ के आड़िया खाल और बंडिया खाल भी पुरानी कहानी रचने लगे। मालवा में नालों को ‘खाल’ भी कहते हैं। गाँव समाज इनसे इतना प्यार करता था कि इन्हें परिजनों की तरह नाम से बुलाते थे। मसलन, रामदेवजी का नाला नाम इसलिए रखा था, क्योंकि बरसों पहले से यहाँ दो खजूरों के बीच रामदवजी का मंदिर है। आड़ा खाल- इसलिए कि यह पहाड़ी से ही आड़ा-तिरछा बहकर आ रहा है। बंडिया खाल में बहाव तेज रहा करता था। बरसात में इसे पार करना मुश्किल होता था। इसके ‘तेज’ के कारण ही गाँव समाज इसे बंडिया कहता था। बंडिया याने तेज। इन सब नालों में अलग-अलग तरह से पानी रोका जा रहा है। इस वजह से आस-पास के जलस्रोत जिन्दा रहने लगे हैं।

......ये कुछ चुनिंदा चावल हैं, मध्यप्रदेश की हांडी में नालों की परम्परागत और निराली दुनिया के।

.....क्या आपके पास भी कोई नाला बहता है।
.....कृपया उसे ‘गटर’ भर मत समझिए।
.....उसकी परम्परा के इतिहास में झांकिए....
......जल संरक्षण के कई यादगार पृष्ठ आपके हाथ लग सकते हैं।

 

मध्य  प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जहाज महल सार्थक

2

बूँदों का भूमिगत ‘ताजमहल’

3

पानी की जिंदा किंवदंती

4

महल में नदी

5

पाट का परचम

6

चौपड़ों की छावनी

7

माता टेकरी का प्रसाद

8

मोरी वाले तालाब

9

कुण्डियों का गढ़

10

पानी के छिपे खजाने

11

पानी के बड़ले

12

9 नदियाँ, 99 नाले और पाल 56

13

किले के डोयले

14

रामभजलो और कृत्रिम नदी

15

बूँदों की बौद्ध परम्परा

16

डग-डग डबरी

17

नालों की मनुहार

18

बावड़ियों का शहर

18

जल सुरंगों की नगरी

20

पानी की हवेलियाँ

21

बाँध, बँधिया और चूड़ी

22

बूँदों का अद्भुत आतिथ्य

23

मोघा से झरता जीवन

24

छह हजार जल खजाने

25

बावन किले, बावन बावड़ियाँ

26

गट्टा, ओटा और ‘डॉक्टर साहब’

 

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