नदी जोड़ एक स्वप्न चित्र

8 Jan 2015
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अन्तरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं को एक ओर छोड़ते हुए सरकार ने सम्भवतः अन्तरप्रान्तीय राजनीति एवं संघर्ष को भी नजरअंदाज करना चाहा है। कावेरी जल विवाद पर ध्यान दिया जाना चाहिए। नई दिल्ली को यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस योजना के संबंध में असम की जनता, गैर सरकारी संस्थायें तथा तथा राजनेतागण चुप बैठे रहेंगे। किसी को यह जरूर स्वीकार करना चाहिए कि असम के लोगों के लिये ब्रह्मपुत्र केवल एक नदी नहीं है बल्कि उस घाटी की जीवन-रेखा है। ‘लुइत’ अथवा ‘लोहित’ नाम से प्रचलित ब्रह्मपुत्र नदी असम के साहित्य, संस्कृति एवं परंपराओं में विद्यमान है।

बाढ़ और सुखाड़ की बढ़ती हुई समस्या को कम करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री का छः बड़ी नदियों गंगा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी एवं ब्रह्मपुत्र को जोड़ने का प्रस्ताव आज एक विमर्श का विषय है। परन्तु इस पर समीक्षात्मक वाद-विवाद अभी तक नहीं आरंभ हुआ है।

यद्यपि कोई भी व्यक्ति नदियों के अतिरिक्त पानी को लेने एवं सूखे प्रक्षेत्र में स्थानान्तर करने का विरोध नहीं करेगा, फिर भी यह प्रस्ताव गहराई से जांच-पड़ताल खोजता है। इसके प्रस्तावक कहते हैं कि यह योजना बाढ़ और सुखाड़ की समस्या हल करने के अलावा 150 मिलियन हेक्टेयर खेत की सिंचाई का रास्ता खोल देगी। इससे पैदावार में प्रतिवर्ष 450 मिलियन टन अनाज की वृद्धि होगी। इस योजना से 35,000 मेगावाट अतिरिक्त बिजली पैदा होगी तथा एक राष्ट्रीय जलमार्ग का भी निर्माण हो सकेगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र को 2016 तक नदियों को जोड़ने से संबंधित अग्रतर कार्य के लिए निर्देश दिया था। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री बीएन कृपाल, न्यायमूर्ति श्री वाईके सभरवाल एवं न्यायमूर्ति श्री अरिजीत वसायत के त्रिसदस्यीय न्यायपीठ ने एक जनहित याचिका पर अन्तरिम नियमन दिया था। इनके बाद इस पर विस्तृत योजना तैयार करने एवं राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए श्री सुरेश प्रभु, सांसद तथा पूर्व ऊर्जा मंत्री के नेतृत्व में एक कार्यबल (टास्क फोर्स) गठित किया गया। किन्तु राष्ट्रीय सहमति वाले पक्ष पर कम ध्यान दिया गया तथा योजना से संबंधित सूचनाएं भी अपर्याप्त थीं, जिससे राष्ट्रीय सहमति की बात तो दूर की है थोड़ी भी सहमति नहीं हो पाई। लोगों में विशेषकर नदी पर निर्भर समुदायों में इस योजना के परिणाम के संबंध में भय व्याप्त रहने के बावजूद भी ऐसा प्रतीत होता है कि केन्द्र रास्ता निकालने के लिये दृढ़प्रतिज्ञ है।

केन्द्रीय मंत्रालय के जल संसाधन विकास विभाग ने 1980 में एक राष्ट्रीय संदर्भित (नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान) योजना की रूपरेखा तैयार की थी। अतिरक्त जल वाली नदी से जल को अभाव वाले क्षेत्र में स्थानांतरित करने के उद्देश्य से 1982 में राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण की स्थापना की गई थी। अभिकरण के अनुसार जल का जुड़ाव उत्तर में सतलुज से लेकर दक्षिण में वैप्पर तथा पूरब में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में माही नदी तक फैला हुआ होगा।

अब पहला बड़ा प्रश्न यह है कि इस बड़ी योजना के लिए पैसा कहां है? श्री प्रभु ने हाल ही में बताया है कि इसमें 112 बिलियन डाॅलर से अधिक का खर्च आयेगा, परन्तु अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति ऐसी महंगी योजना का वहन नहीं कर सकती है चूंकि इसकी राशि भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की लागत के एक चौथाई के करीब है। बिना बाहरी सहायता के सरकार के लिये इस योजना के निमित्त राशि की व्यवस्था करना असंभव हो सकता है।

इस कार्य के लिए अगर एक बार सरकार कर्ज ले लेती है तो इसके ऊपर ऋण वापसी का एक बड़ा बोझ आ जायेगा। इस कर्ज का वार्षिक ब्याज 200 से 300 बिलियन रुपये के करीब होगा, जो ऋण वापसी की व्यवस्था से संबंधित प्रश्न खड़ा करेगा। कर्ज देने वाली संस्था सरकार पर किस तरह की शर्तें लगायेगी, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है एवं इसे जनता के सूचना-अधिकार क्षेत्र में आना चाहिए। इसका प्रभाव नदी-अधिकारिता पर किस प्रकार पड़ेगा?

इसी प्रकार जल विशेषज्ञ यह आशंका व्यक्त करते हैं कि योजना बाढ़ रोकने में कोई सहायता नहीं कर पायेगी। जैसे, ब्रह्मपुत्र नदी वर्षा ऋतु के समय 30,000 घनमीटर प्रति सेकेंड की दर से पानी छोड़ती है, यदि इसमें से 15,000 घनमीटर पानी स्थानान्तरित भी कर दिया जाए तो भी बाढ़ की भीषणता में कोई कमी नहीं आयेगी।

नदियों को जोड़ने की अवधारणा नई नहीं है। सत्तर के दशक में भारत ने ‘ब्रह्मपुत्र-गंगा ग्रेविटी लिंक कैनाल’ का प्रस्ताव दिया था जिसके द्वारा एक लाख घनमीटर प्रति सेकेंड पानी निकाला जा सकता था। लेकिन उक्त प्रस्ताव को बांग्लादेश द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया था और उसने इस विलय पर अपना पक्ष अभी तक नहीं बदला है। बांग्लादेश के जल संसाधन मंत्री श्री एलके सिद्दीकी ने इस योजना की आलोचना की है, चूंकि उनका देश निचली सतह वाला क्षेत्र है।

ऊपरी क्षेत्र ‘सांग्पो’ कहलाता है जो तिब्बत में है। तिब्बत से उतर कर यह नदी उत्तरी-पूर्वी भारत, इसके बाद बांग्लादेश से गुजरती हुई अंत में बंगाल की खाड़ी से जा मिलती है। इस प्रस्ताव पर चीन की प्रतिक्रिया अभी तक मालूम नहीं है। सिद्दीकी ने कहा ‘जबकि भारत के दो राज्य कर्नाटक एवं तमिलनाडु कावेरी नदी के जल की हिस्सेदारी पर निर्णय नहीं कर पाते हैं तो भारत सरकार यह कैसे मान लेती है कि बांग्लादेश सरकार इस योजना के प्रति मूकदर्शक बनी रहेगी।’

अन्तरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं को एक ओर छोड़ते हुए सरकार ने सम्भवतः अन्तरप्रान्तीय राजनीति एवं संघर्ष को भी नजरअंदाज करना चाहा है। कावेरी जल विवाद पर ध्यान दिया जाना चाहिए। नई दिल्ली को यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस योजना के संबंध में असम की जनता, गैर सरकारी संस्थायें तथा तथा राजनेतागण चुप बैठे रहेंगे। किसी को यह जरूर स्वीकार करना चाहिए कि असम के लोगों के लिये ब्रह्मपुत्र केवल एक नदी नहीं है बल्कि उस घाटी की जीवन-रेखा है। ‘लुइत’ अथवा ‘लोहित’ नाम से प्रचलित ब्रह्मपुत्र नदी असम के साहित्य, संस्कृति एवं परंपराओं में विद्यमान है। लोग इस कारण भी केन्द्र के विरोध में जा सकते हैं।

ब्रह्मपुत्र के विशेषज्ञों ने मांग की है, अतिरिक्त जल को स्थानांतरित करने से संबंधित अंतिम निर्णय लेने के पूर्व एक विषद अध्ययन किया जाना चाहिए। गौहाटी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष प्रो. हुलाल गोस्वामी ने कहा है कि ब्रह्मपुत्र नदी को अन्य नदियों से जोड़ने से संबंधित सामाजिक, आर्थिक तथा पर्यावरणीय पक्ष सहित विभिन्न पहलुओं को समेकित करते हुए एक व्यापक अध्ययन पूरा किया जाना चाहिए।

गौहाटी में भूगोल विभाग के श्री अबनी कुमार भगवती ने कहा है कि बाढ़ के नाम पर असम से जल को स्थानान्तरित करने की पहल का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने कहा कि ब्रह्मपुत्र एवं बराक बेसिन में अतिरिक्त जल की अवधारणा भ्रामक है। आगामी 50 वर्षों में यहां की आबादी की जीविका तथा आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इन दोनों बेसिनों में अतिरिक्त जल की उपलब्धता के संदर्भ में अभी तक व्यवस्थित रूप से मूल्यांकन नहीं किया गया है।

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