नदी की कहानी : नदी की जुबानी

River
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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष


मैं नदी हूँ, कुछ लोग मुझे शैलजा तो कुछ गिरिजा कहते हैं। कुछ के लिये मैं वनजा या सरिता भी हूँ। पहाड़ों पर मेरा जन्म हुआ है इसलिये तो लोग मुझे शैलजा या गिरिजा कहते हैं। पहाड़ मेरे पिता हैं। वह हिमालय हो या अन्य कोई दूसरा पहाड़, वही मेरा पिता है। उसी ने आसमान से बरसती बूँदों को अपनी झोली में समेटकर मुझे जन्म दिया है। इसलिये वही मेरा जन्मदाता है। वही मेरा शंकर है। उसी की जटाओं से निकलकर ही तो मैं धरती पर आई हूँ।

मैं अकेली नहीं हूँ। सारी दुनिया में मेरी बहनों का अस्तित्व है। उनका जन्म दुनिया के विभिन्न भागों में पाये जाने वाले पहाड़ों पर हुआ है इसीलिये हमें अनेक नाम मिले हैं। मैं नील भी हूँ, मैं मिसीसिपी-मिसौरी भी हूँ, मैं ही टेम्स हूँ। आप दुनिया के किसी भी पहाड़ का नाम लो, स्थानीय समाज आपको उसकी बेटी का नाम बता देगा।

भारतीय ऋषि-मुनियों, लेखकों और कवियों ने मुझे अनगिनत नाम दिये है पर शैलजा या गिरिजा जैसे नाम मुझे बहुत भाते हैं। ये नाम ही दुनिया से मेरी पहचान कराते हैं। मैं उनकी लाडली बेटी हूँ। पहाड़ों पर फैले घने जंगल मेरा आँगन है। इसी आँगन में जीव-जन्तुओं के सानिध्य में अठखेलियाँ करती हूँ, जीवन का अमृत पाकर पुष्ट होती हूँ इसलिये मैं वनजा भी हूँ।

मेरा बचपन पहाड़ों की गोद में बीतता है। हर साल बरसात में, आसमान से जीवन का अमृत (पानी/बर्फ) बरसता है। मेरे पिता उसे, मुझे उपलब्ध करा कर कर पुष्ट करते हैं। सूखे दिनों में, बर्फ, पिघलकर या पहाड़ अपना तन काट कर, शरीर में संचित समूची ममता (भूजल) मुझ पर लुटाता है। वही ममता मेरा अविरल प्रवाह बनती है।

मैं हरियाली या बर्फ से ढँके पहाड़ों की बेटी हूँ। अपने आँगन में खेलकूद कर जब थोड़ा पुष्ट हो जाती हूँ तो मेरे पिता मुझे नई जिम्मेदारियों के साथ मैदानों में भेज देते हैं। मैदान मेरा कार्यक्षेत्र है। उसे लोग मेरा कछार भी कहते हैं। मेरे कछार में बसे लोग, मेरे पानी में पलने वाले जीव-जन्तु तथा वनस्पतियाँ मेरा परिवार है। मैदान में पहुँचकर मैं उनके योगक्षेम की जिम्मेदारी सम्भालती हूँ। यह जिम्मेदारी सतत् चलने वाली जिम्मेदारी है।

मैं अपने परिवार के सदस्यों को शुद्ध जल, आजीविका और जीवन रक्षक परिवेश उपलब्ध कराती हूँ। जब जीवन यात्रा का अन्तिम पड़ाव आ जाता है तो समुद्र तट पर पहुँचकर अपनी सारी पूँजी, अपना सारा स्नेह, अपना सारा अमृत समुद्र को सौंपकर परोपकारी जीवन की सार्थकता का अनुभव करती हूँ। यह मेरे जीवन का एक पक्ष है।

मेरे जीवन का एक उजला पक्ष भी है जो जीवधारियों के योगक्षेम के लिये किये जाने वाले दायित्वों से जुड़ा है। यह दायित्व मुझे प्रकृति ने सौंपा है। इस दायित्व के अर्न्तगत मैं पहाड़ों से उतरते समय अपने साथ बड़ी मात्रा में रेत, बोल्डर, मिट्टी, वृक्षों के अवशेष और घुलित रसायन लाती हूँ। उपजाऊ मिट्टी को मैदान में जमा करती हूँ। धरती को उर्वरा बनाती हूँ। उसकी परतों में नमी संचित करती हूँ। अविरल धारा की मदद से जीवधारियों के निरापद जीवन के लिये हानि रहित परिवेश उपलब्ध कराती हूँ।

समुद्र में उस अपशिष्ट को जमा करती हूँ। भूगर्भीय हलचलों के कारण धरती का भूगोल बदलता है पर धरती के भूगोल को बदलने की इबारत के लिये पटकथा मैं ही लिखती हूँ। इसी दायित्व के निर्वाह के कारण धरती पर अनेक पहाड़ों का जन्म हुआ है। आप को याद दिला दूँ, आज जहाँ हिमालय पर्वत माला है वहाँ कुछ करोड़ साल पहले विशाल टैथिस समुद्र था।

उस कालखण्ड में एशिया और भारतीय प्रायद्वीप की नदियाँ टैथिस को पर्वत-निर्माणी मलबा सौंपती थीं। उसी मलबे से हिमालय का जन्म हुआ और ऊँचाई मिली। हिमालय का उद्भव, नदियों के प्रयासों का सबसे ताजातरीन नतीजा है। वह उदाहरण है नदी की मलबा विस्थापित करने की असीम क्षमता का। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र हर दिन औसतन लगभग 10 लाख टन से अधिक मलबा समुद्र को सौंपता है।

पिछले कुछ सालों से मैं, अपनी अस्मिता, अपनी बिगड़ती सेहत तथा दायित्वों के निर्वाह में आ रही कठिनाईयों को लेकर चिन्तित हूँ। मनुष्य ने, मुझे बिना समझे-बूझे, मेरा लगभग सर्वनाश करना प्रारम्भ कर दिया है। पिता के घर अर्थात पहाड़ों पर वह मेरा बचपन छीन रहा है। मेरे स्वच्छन्द विचरण को बेड़ियों में जकड़ रहा है। पिता को उसकी हरियाली और पानी सहेजने वाली माटी से विमुख कर रहा है। जब पिता दुखी होगा तो बेटी कैसे सुखी रहेगी? वह मुझमें प्रवाहित जल को गन्दा और जहरीला कर रहा है। सिन्धु नदी लगभग 10 लाख टन और गंगा नदी तंत्र उससे थोड़ा कम मलबा समुद्र को हर दिन सौंपता है। यह मात्रा बरसात में बहुत अधिक तथा बाकी दिनों में कम हो जाती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि मलबे के साथ बड़ी मात्रा में घुलित रसायन भी समुद्र में पहुँचाए जाते हैं।

अमेरिका की मिसीसिपी नदी द्वारा घुलित रसायनों की तुलना में 2.5 गुने से अधिक ठोस मलबा समुद्र में जमा किया जाता है। मैं यह सब धरती की अस्मिता और उसके निरापद परिवेश को सुरक्षित रखते हुये पूरा करती हूँ। क्या मनुष्य मेरी उपर्युक्त क्षमता की बराबरी कर सकता है?

दुनिया में हर महाद्वीप पर मेरा अस्तित्व है। भारत में भी मैं, गंगा, यमुना, चम्बल, बेतवा, ब्रह्मपुत्र, मेघना, सिन्धु, सतलुज, व्यास, झेलम, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, सोन जैसी अनेक नदियों के नाम से मौजूद हूँ। वे सब एक दूसरे की छोटी-बड़ी बहनें हैं। उनका जन्म एक ही समय में नहीं हुआ। वे अलग-अलग कालखण्डों और परिस्थितियों में पैदा हुईं हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियों की उम्र सबसे कम है। उनकी तुलना में दक्षिण भारत की नदियों की उम्र अधिक है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि दक्षिण भारत की अनेक नदियाँ, अपने निचले हिस्से में, प्रौढ़ावस्था में पहुँच गई हैं जबकि हिमालयीन नदियाँ अभी भी अपनी शैशव अवस्था में हैं पर सभी के जन्म की कहानी और जिम्मेदारियाँ लगभग एक जैसी है।

पिछले कुछ सालों से मैं, अपनी अस्मिता, अपनी बिगड़ती सेहत तथा दायित्वों के निर्वाह में आ रही कठिनाईयों को लेकर चिन्तित हूँ। मनुष्य ने, मुझे बिना समझे-बूझे, मेरा लगभग सर्वनाश करना प्रारम्भ कर दिया है। पिता के घर अर्थात पहाड़ों पर वह मेरा बचपन छीन रहा है। मेरे स्वच्छन्द विचरण को बेड़ियों में जकड़ रहा है।

पिता को उसकी हरियाली और पानी सहेजने वाली माटी से विमुख कर रहा है। जब पिता दुखी होगा तो बेटी कैसे सुखी रहेगी? वह मुझमें प्रवाहित जल को गन्दा और जहरीला कर रहा है। मेरे दायित्वों और समुद्र के हिस्से के पानी को जलाशयों में कैद कर रहा है। मेरे पानी की साफ-सफाई से बेखबर है। मैं, सोचती हूँ, मेरी चिन्ता से विकासोन्मुखी समाज को हर हाल में अवगत होना चाहिए क्योंकि हकीक़त में मेरा जीवन तो कुदरत के नियमों के पालन करते हुये प्राणीमात्र की खुशहाली के लिये ही हुआ है।

कुदरत के नियमों की अनदेखी या अवहेलना मेरी बर्बादी है। मेरी बर्बादी, अकेले मेरा ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवधारियों के अन्त का कारण बनेगा। वैज्ञानिक तो इसे समझ रहे हैं। वे लोगों को सचेत भी कर रहे हैं पर बहुत से लोग संकट की गम्भीरता को नहीं समझ रहे हैं। मुझे लगता है कि बेटी बचाओ अभियान चलाने वाले संस्कारी समाज को, पहाड़ों की बेटी के बचाने को, अपने अभियान में सम्मिलित करना चाहिए।

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