नदीः एक लम्बी कविता

20 Dec 2012
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आंखों की नमी
बचा सको तो बचाओ
पर्वत पुत्र

यह समय की धार
लोहे को जलाकर
कुदाली बनाये या तलवार
तय करना है यही

जैसे
कांच की तरह
चट्टानों से बहती धार

नदी बने या भाल
मुनाफा बने या
संस्कृति का हार

इस नदी का काम बहना है
वह बह रही है
उसके जंगल, उसके लोग

भाषा में उसकी ही
कह रहे हैं

पत्थर नदी की भीतरी सतह के
रेत और शैवाल
मछलियां-जल जंतु

और यह गर्वीला पहाड़
सब नदी का है

पर नदी है तो किसकी है?
अपनी ही कहां है वह इसीलिए सबकी है।
सख्त दिखने वाले पर्वतों का भीतरी संसार
बेहद तरल है

उनमें पानी भरा है
स्रोत है अविराम बहते
पेड़ों की जड़ों से घुले स्रोत
कौन जाने
कैसी है नदी की भीतरी दुनिया
कौन जाने
कैसा है पर्वतों का अगम और अचूक संसार
बोलियां अब
लग चुकी हैं नदियों को बेचने की
पर्वत को खरीद चुके हैं लोग
चुप हैं सरकारों के नंगे दलाल कुछ
चुप हैं गांव का आने वाला समय
चुप है बहाव नदियों और समय का बहाव
चुप है हर जुबान
चुप है आने वाले समय की वीरान और सूखी नदी
चुप हैं पुरस्कारों के तमगे पहने मुखौटे
चुप हैं नदी और पहाड़ से कुछ लोग
चुप हैं पृथ्वी के हर संकट के श्वेत पत्र पर
हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवियों की
अनर्गल बहसें
बोलती है तो बस नदी
बोलती है तो नदी की आवाज
बोलती है तो लगातार तटों के पास आती

और उनको छोड़ती
चली जाती
नदी

एक नदी है अनेक नदियां
अनेक नदियां हैं अनेक जमीनें
अनेक जमीनें हैं अनेक जंगल
अनेक जंगल हैं बादल अनेक
नदी, नदी के लिए है, जमीन, जमीन के लिए,
जंगल, जंगल के लिए
ये देते हैं सबको बिन मांगे
इनका कानून सबसे ऊपर
थोपो मत अपने को इन पर
नदी के ऊपर
कोहरे की नदी
कोहरे में डूबा-बोलता जंगल

हवाओं की तरह
शिराओं में बहता खून

ऑक्सीजन का भंडार
भरा-पूरा संसार

हर नदी का उद्गम यह
बोलियों और गीतों का उद्गम यह
नृत्यों और गाथाओं की अटल गहराई यह

ढोल बजाने वाले
हाथों से नहीं
दिल से बजाते हैं ढोल
भाषा है उसकी
भाषा ये है उसकी
बोल है अलग-अलग
संदेश है एक उसका

नदियों के किनारे
झरनों के पास
कभी उठाओ गीत
लगाओ आवाज
तो टूट जायेगा भ्रम
बन जायेगी यह प्रकृति की ऊर्जा
हमारा होना – नदी के होने के भीतर है कहीं
हमारा होना – दुनिया की नदियों के इर्द-गिर्द है कहीं
नदी की नमी
बचा रही हैं पर्वत पुत्रियां
मायके को छोड़कर जाती हुई।
जाती हुई
पर्वत पुत्रियों के हाथ
अभी भी पकड़े हुए हैं
मायके की हथेली
रोज-रोज
तोड़ते हैं नदी का मायका जो
तोड़ रहे हैं वे
अपने को

अपने भीतर की नदी को
अपने भीतर की नदियों को

यह कैसा विकास
जो मुझे भी चाहिये और तुम्हे भी
फूल को भी चाहिये और फल को भी
गांव को भी चाहिये और शहर को भी
आकाश को भी चाहिये और पृथ्वी को भी

विकास
चाहिये हमें

पर चाहिये हमें उससे भी पहले
सांस

सांसो की नदी
चाहिये सबसे पहले हमें
सांसों का घना जंगल
सदियों के लिये

नदियों के लिए जंगल
और जंगल के लिये
चाहिये हमें नदियां

समुद्र को
सबसे ज्यादा चाहिये नदियां

और नदियों को
सबसे ज्यादा चाहिये
कई समुद्र

समुद्र का भीतरी
अबूझा जंगल

तय करता है
पृथ्वी के जंगल का स्वाभाविक आकार
स्वाभाविक
हां स्वाभाविक भी
और आकार भी

चाहिये
अपनी तरह से जीने वाली पृथ्वी
दूसरों के लिए बनी पृथ्वी
मंदिर की तरह
प्यास का विकल्प बनती बावड़ियां
अमृत है नदी
पहेली की तरह बहती चली दूर तक
उसके भीतर भी लहरें
उसके बाहर भी लहरें
कोई भी नहीं गिन पाया इन्हें

गिनती से बहुत आगे हैं
नदी की लहरें

उत्तरों से परे हैं नदी के सवाल
इतिहास और भूगोल
विज्ञान और भूगर्भीय तथ्य

यह सभी
हां यह सभी तो
नदी की देन है
न सोचकर भी लगता है भयावह
कि
कैसा होगा नदी के बिना संसार
शायद अगर मृत्यु है तो
यही है
बिना नदी का संसार
शायद ही नहीं निश्चित है
कि जीवन के बढ़ते चरण अगर बोल रहे हैं
तो नदी के कारण ही बोल रहे हैं
नदी की भाषा की वर्णमाला
पढ़ पायें हैं तो
उसे जीवित रखने वाली गांव की सुबह और
गांव की शाम और गांव की रात
सूर्य प्रणाम है नदी की भाषा
वही है योग का आधार एक

पानी


पर बहता हुआ पानी
छोटे-बड़े स्रोतों का पानी
पानी पर सियासतें करते लोगों पर
तरस खाता है
मुस्कराता हुआ पानी

पानी बहता हुआ
गम्भीर और गहरा पानी
कहानियों और कविताओं से भरा-भरा
चुप-चुप और उदास भी

आंसुओं से भरी नदी
नदियों में
आंसू के दर्द भरे गीत

कम ही सुनाई पड़ते हैं, जिन्हें
वे ही हैं
हां वह ही
जो मार रहे हैं
नदियों को
मार रहे हैं खुद को

बूंद को मार रहे हैं
खुल रहे हैं तभी बाजारों में
कुछ और समय तक
जीवित रखने के लिए अस्पताल

नदी, पहाड़, लोग, जंगल, जानवर
और हवा के साथ
तोड़ दी जब से दोस्ती
तब से मंहगी हो गई जिंदगी
और सस्ती हो गई सियासती मुनाफाखोरी
बाजार की नदी है यह
या नदियों का बाजार है

जहां बिक रही है नदी
जहां बिक रही है सदी
जहां पैदा हो रहा है युद्ध
पानी में बहता युद्ध

बहती हुई आग की नदी
शिराओं में बहती
है कैसी यह
मानसिकता
घसीट लाये
मुनाफाखोर नदी को

नीलामी के लिए
सूखी नदियों में भी
चल रही है चोरियां
बहस जारी है
कि नदी कैद है
बहस जारी है
कि कैसे बचायें इसे
बड़े-बड़े लोग घूम आये विदेश
बड़े-बड़े लोग
हाथ मिला चुके नदियों की खरीदारों से
यह समय बहुत खतरनाक है
यहां
नदियों के साथ
हमारे हाड़, मांस के चीथड़े
शांति वार्ताओं के शिष्ट मंडल
प्लेटों में सजाकर
खा रहे हैं
और तो और

लहुलुहान नदी
मेरे शरीर से मिलती जुलती है

यह उनके लिये
स्वादिष्ट भोज है
यह बहुत खतरनाक समय है
जब लोग नहीं जानते नदियों की परिभाषा
यह बहुत खतरनाक समय है
जब लोग अपने को बेच रहे हैं और खुश हैं
यह बहुत खतरनाक समय है
कि समझ आने लगी है विनाश की इबारत
यह बहुत खतरनाक समय है
जब सब कुछ कहना मना है
मना है अधूरेपन के साथ जीना भी
मना है
आंसुओं में डूबी है रात
रात भर जागी है नदी
समय के पहियों को चलाने वाले मजदूरों की तरह
लहुलुहान और भौंचक्की
दिन भर घुमाती ही रहती है
समय का चक्र
काट डाले हैं नदी के हाथ
काट डाले हैं नदी के पैर
काट डाले हैं नदी के अंग
रोयेगी नदी
दिन-रात घुमाती हुई
जीवन का पहिया
नदी के हाथ नहीं होते
नदी के पैर नहीं होते
नदी का जिस्म नहीं होता
इसीलिये वह आदमी और
पृथ्वी और आकाश से बड़ी होती है
और
बेवकूफी और समझदारी के बीच
सच के पक्ष में
खड़ी होती है
नदी
एक लड़ती हुई पीढ़ी है
नदी एक बोलती हुई पीढ़ी है
हर सजा उसके लिये अधूरी है
हम कुछ साधनहीन लोगों के लिये
नदी एक हथेली है
इस किनारे से उस किनारे तक पहुंचाने वाली
नाव है नदी
हमारा हर साधन है नदी
हमारी साधना है नदी
गायब होती चिट्ठियों की तरह
गायब होती नदियों वाले इस समय में
अधूरेपन की भाषा सिखा रही है किताबें
हिमालय के लिये
नीतियां बन रही है
जानते होंगे शायद
हिमालय को
हिमालय
जानने की नहीं, जीने की किताब है
उसकी अपनी एक हिमालय नीति है
नीतियों को
तोड़ने वालों को पढ़ने होंगे नये पाठ
तय करनी होगी उनके लिये सजा
जो बेच रहे हैं हिमालय को
नदी को
खुद को
हिमालय जीवन है
उसे अपने हाल पर
अपनी चाल से चलने दो बस
इतना अहसान करो

तुम्हें
तुम्हारे ब्रह्मांड की कसम
दुनियां को अगर सबसे ज्यादा खतरा है
तो वह दुनिया से ही है
इसलिये
आज और अभी
बहते रहने दो नदियां
होने दो बरसात
होने दो गर्मियां
पड़ने दो बर्फ
और
तोड़ सको तो उनके दिमाग
जो
प्रकृति की किताब पर
करना चाहते हैं अपने हस्ताक्षर
उनके लिये हो फांसी की सजा मुकर्रर
नदी के उखड़ने से
उखड़ गये हैं बांध
जंगल के पास के गांव
हो गये हैं जंगल विहीन
क्यों नहीं हम बह पाते समय के साथ
लहरों के साथ
लहरों के रंगों के साथ
अनेक रंगों के साथ
बादलों के बिना
जैसा होता है आकाश
वैसा और ठीक वैसा ही होता है
हमारा न होने की तरह होना
समझ की लहरों से परे
जीवन की सांस
जिस लय से होकर गुजर जाती है
उसे कहां तक
रेखांकित करेगी कविता

कविता के साज पर
कब तक गाता रहेगा मौसम
कब के समाप्त हो चुके नदी के किनारे के गीत
कम्बल बनाते हुए कहते रहना कहानियां
नदी की धारा से विपरीत
पैदल चलते हुए
जीवन के खोजे जा सकते हैं अर्थ
नदी का बहाव
बहाव के भीतर जो
पत्थरों की दुनिया है
कितने दिनों बाद
तैयार हुई है
एक पत्थर
कितनी सदियों में हुआ है तैयार
नदी अपने लिये
रास्तों की जगह नहीं मांगती
रास्ते बनाती है
गहरे रास्ते
बहते रास्ते
बनाती है नदी

आस-पास
रास्ते और घर
घर और परम्पराओं के पुल
नई-नई तकनीकी
छोटे-छोटे घराट
गर्म आटा और बिजली

मेले और संस्कार
प्यार का विकल्प नदी का हर किनारा
नदी ही है जो
अगर बची रही
तो बची रहेगी कविता की
बहती हुई धारायें
बची रहेगी कविता
तो बची रहेगी पगडंडियां
घर से लेकर दूसरे घरों को मिलती हुई

पगडंडियां और कवितायें
ठोस सड़क और बाजार तक
अखबार के कोने में छपी खबर तक
कितनी दूर चलते रहना है
कितनी पास आती रहती है जानकारियां
इसके पीछे बहुत कुछ के साथ
है
प्रवाह
प्रवाह समय और
नदी का प्रवाह
रोक मत देना प्रवाह
गति रुकी नहीं कि
रुक जायेगा प्रवाह रक्त का
संघर्ष फिर सृजन के लिए
मांगेगा घाव कुछ

जैसे घाव
इतिहास में मिलते हैं बहुत
वैसा
लाल रंग
फिर उभरा तो कहीं दूर तक
गूंजेगी उसकी आवाज
आवाज में होगी घुटन भयावह
तोड़ देगी वो कड़ियां सब
जो जुड़ी है
बरसों से बरसों तक
मानव इतिहास
ढोता रहेगा
कई दर्द भरी आवाजें
यातना शिविर में है नदी
एक और नया युग
सुरंगों में डालता
बहता हुआ गहरा पानी
पूजा और अर्चना के
बदल न दे अर्थ
उठ न जाये
जातियों से बंधी दुनिया में मुट्ठियां
नदियां भी न हो जायें
सीमाओं की मोहताज
बस यहीं से शुरू होगी
नई कहानी
यहीं से शुरू होगी
अर्थ भरी कविता
यहीं से शुरू होगी
आधार में
एक भयानक हलचल
फिर से एक
सूखी नदी का तट
दिखाई न देने लगे
यहीं से शुरू होगी
एक पेंटिंग
जिसमें सब कुछ होगा
खूब सूरत दृश्यों से लेकर
रोशनी की अंधेरी दुनिया इसमें होंगे कुछ अमूर्त
रंगों के गहरे संयोजन
जो कभी मिले होंगे नदियों से

बादल
नदियों पर बरसा रहा है पानी
पानी
बरसा रहा है आग
आग से झुलस रही है नदी
आग आ रही है तो कहां से आ रही है
कहां से बरस रहा है तेजाबी पानी
पानी नदी का
कारखानों का जहर पीते हुये भी
अगर जिंदा है तो
तो जिंदा है अपने प्रवाह के बल पर
ये बांध अवैज्ञानिक
छीन रहे हैं उसके प्रवाह
लोग मांग रहे हैं
एक प्रवाह
जो आज से कल तक तरलता से बहे
ऐसा प्रवाह
नहीं है पुश्तैनी और
परम्परागत आधुनिकतम विचारों के
संवाद कार्य
बंद हो गये हैं
नदी के किनारे
बहुत जगह है
किनारों पर बिछी
नदी की मौत के सामान
पसरी पड़ी हैं योजनायें
योजनाओं में धन्ना सेठों के
खनकते सिक्कों के
ताश महल
उनके पास हैं सुविधायें अनेक
उनके पास हैं
दुनिया को समाप्त करने के इंतजाम बहुत
उनके पास हैं बहुत सारे कर्जे
बांटने के लिए
गुलामी की एक जहर घुली दुनियां
बनाने के इरादे
यूरेनियम के
चरागाहों में आते हुए
यम के पंजे धीरे-धीरे दबे पांव हैं
खुलेआम
आमने-सामने बैठकर
बिकने को तैयार या मजबूर
देशों के बीच
कहीं जम गई है
नदी
कहीं जम गई है
झील
जमी हुई नदी का
सौदा करते हैं लोग
यह कैसा सुखी संसार
बाजार में खड़ा बिकने को तैयार
लगाई जा रही हैं बोलियां

कैसा यह आंसू से भरा भविष्य
बच्चों का खिलखिला चेहरा

आने वाले समय के सिर पर
कफन बांधकर
जी भी नहीं सकते लोग
मर भी नहीं सकते लोग

तब

लौटना होगा
नदी होने के लिये
करनी होगी तैयारी

अभी से
शुरू कर देना होगा
नदी के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान

नदी यानि जड़ों के लिये अभियान
धरती के कागज पर
जंगलों के सहारे खड़े मनुष्य
पूर्वजों की अनाम शिराओं में
बहती हुई नदी के बीच खड़े हो जाओ
किनारों-किनारों
आखिर कब तक

शिविर लगाने होंगे अब
नदी किनारे ही बसाने होंगे बसेरे
नदी की हथेलियां हैं यह लहरें
जो
जाने कितने समय के स्पर्श से
बनाती चली गई हैं
अमृत
है कहां अमृत तो
गति में है
गति कहीं है तो बस नदी में
एक ओर असहयोग आंदोलन सरयू के तट पर
गंगा के मुहाने पर
यमुना के दर्द भरे गीतों में
वोल्गा से लेकर मिसीसिपी तक
लोहित किनारों से नर्मदा तक
मंदाकिनी, अलकनंदा तक
कोसी से भागीरथी तक

अनजानी या जानी पहचानी
नदियों के विरुद्ध लोगों के प्रतिकार
कि तरफ असहयोग के मुखर शब्द ही
होंगे अब जिंदा और बुलंद स्वर
वरना रख लो इन नदियों का
थोड़ा जल कलशों में
और रख दो
काल पात्रों और
संग्रहालयों में
चित्रों में ही बताना आने वाले बच्चों को
नदियों के नाम
अगर भूल न जाओ तो याद की बैसाखी
साथ रखना
भूल सकते हैं लोग
जब अपने परदादाओं के नाम
याद नहीं रहती दादियों की आवाज
ऐसे में
पीढ़ियों को अपनी
गोद में निःस्वार्थ
पालती ही रही हैं नदियों की पीढ़ियां

बदलते

तटों के चेहरे बदलते हैं
अचम्भे में हूं
कि रोज बदलते पानी का
एक ही चेहरा है
नदी।

तट पर उससे लड़ने को तैयार हैं लोग
उदास है शहर और गांव के
समझदार लोग
बस उदास है केवल
अभी तक नहीं बना सके वे
नदी को बचाने के लिये
शिविर
बैठ नहीं सके
पानी को बचाने के संकल्प के लिये
पानी पर भी है

कब्जा
समझ आ जायेगा जिस दिन
कि
बूंदों के भीतर जो बूंदे हैं
वे भी उन्हीं के लिये हैं
जिन तक आई है
बस उसी दिन
बन जायेगी समझ

समझ बोलने की
समझ जीवन के बदलते संदर्भों में
बदलती परिभाषाओं की।
नदी की परिभाषा
अगर खून से होकर लिखी जाएगी
तो क्या लिखी जाएगी
नदी की परिभाषा

अगर सूखे से घिरकर
लिखी जायेगी
तो क्या लिखी जायेगी
नदी की परिभाषा
नदी से पूछकर लिखी जाये अगर
तो वहीं और वहीं होगी
नदी की परिभाषा
जिसके लिये
होना होगा तरल बहुत
जिसके लिए होना होगा सरल बहुत
जिसके लिये होनी होगी
नदियां बहुत
नदी होने के बाद
जरूरत ही नहीं होगी परिभाषा की
जूते-चप्पल उतारकर
बहते पानी के पास जाते लोगों
मैं याद करता हूं तुम्हें
याद करता हूं तुम्हें
आंसू से भरी राहों में
सूनी बावड़ियों की तरह
गायब होते लोगों को
मैं निरंतर याद करता हूं

याद करता हूं
क्यों तब मैं
अपने को याद करता हूं
अपने को दूसरों में देखने की समझ
जो हम में नहीं थी
उसे याद करते हुए
लिखना चाहता हूं एक
आस्थाओं से भरी कविता
जो जंगलों, पहाड़, नदियों और सभ्यताओं को
सिखाती रही उनके होने के अर्थ
नदी इसलिये है नदी
क्योंकि
वह अपने से भी सीखती है रोज
बहती नदी के साथ बहता
यह समय
आता हुआ
छूटती हैं दूर तक
लहरों से बनी कृतियां
शब्दों से दूर बसी
नदी की गहराई में कविता
पर्वतों के बीच से
सबसे तरल दिल
बह रहा है
धड़कनों के साथ
किनारों पर
मिल रहा है जो
बस छूटता है
फिर भी अकेली
जंगल और पर्वतों के
गांव प्यासे हैं
दूर है अब भी नदी
नदी के होंठ से
मिल नहीं पा रहे हैं
होंठ गांवों के

बहने दो नदी को, कहने दो
कहने दो उसे भी एक कहानी

जो रोज सहती
और बहती और बहती

बहने दो
रोक मत देना प्रवाह
पहाड़ पर नजरें गड़ाये
यह कौन से पंजे

यह कौन सी आंखें बढ़ रही है नदी के पास
रोकने को
प्रवाह नदियों का
सूख जायेगी नदी तो
सूख जायेगी सदी

यह कौन
नजरें गाड़कर
इन पर्वतों को घूरता है

धीरे-धीरे नर्म चारागाहों को रौंदकर
बढ़ रहा है

आंखें हैं
कि जैसे लोमड़ी की

बढ़ रहा है फाइलों के बीच से
हाकिमों के साथ

हुआ, वही हुआ
नदी बिक गई

बिक गई गांव चौकन्ने निहत्थे

प्रकृति के सामने शर्मिंदा
बेच दी, हां बेच दी तुमने नदी
बेच दी है सांस
जंगल और जमीन से उठती हुई आवाज
मुनाफे के लिये बांटते हैं
दलाल नदियों के
सत्ता की दलीलें
फाइलों में बंद है अब
भविष्य नदियों का, फाइलों में बंद
फाइलों से
एक गोमुख जन्म लेगा
भ्रष्टाचार की लहरें उछालेंगी
ठहाके
डूबे हुये शहर के ऊपर
तैरेंगी
भ्रष्टाचार की नदियां

स्वच्छ पानी आज संकट में है
संकट में पड़ी बेचैन
इधर-उधर बिखरी हुई है
नदी की आत्मा
संकट में है समय
गांव संकट में
मौसम और दुनिया
संकट में है नदी

नदी को सुरंगों में बहाकार
बनेगी बिजलियों की ऊर्जा
पर विज्ञान के हाथों में हो डोर उसकी
बुनियादी हक न मारे जायें
गांवों के
डगमगा न जाये
कहीं दुनियां

हो रहा है आज ऐसा ही
होता रहेगा ठीक ऐसा ही
इससे पहले कि
टूटे बांध, न हो प्रलय का रूप
जहरीला
स्रोत के लिये
नक्काशीदार मुंह वाले वन्य प्राणी
कला का पानी से ये रिश्ता

डोर रिश्ते की

ले गये कुछ लोग
इस कला को

संस्कृति जल की
जल गई

साखनीधार का वो शेर
बैठा हुआ

मुंह से उसके लगातार बहती धार जल की

व्यासी के बाद
देव प्रयाग से पहले ठीक

ऊंचाई से भरे मोड़ पर

बैठा शेर
सफेद संगमरमर से बना खूबसूरत शेर

सबकी प्यास बुझाता

अब नहीं दिखता शेर
गायब है धार पानी की
सूनी है ऊंचाईयों की
मोड़ भरी सूनी-सूनी सी सड़क

पगडंडी
नीचे पहाड़
पहाड़ के ऊपर भी पहाड़
जंगल की पिरूल
हवा और बरसात कहां गायब इन सबके बीच से

संगमरमर का शेर और पानी

कहां सूख गयी

आंखों की नमी

शताब्दियों पहले से

कुमाऊं गढ़वल की
जल धारक नक्काशियों के

अब भी हैं सुरक्षित
सैकड़ों चिन्ह

दुनिया भर
पानी की
इसी तरह की जाती रही है इज्जत
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी गांव
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी है संभावनायें
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी
जंगल एक पाठशाला
आज भी है चिन्ह
क्योंकि आज भी
पहाड़ी नृत्यों में लोग
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी पहाड़ पर
झूमते हुये
माफ कर रहे हैं लोग
एक-दूसरे की बातें
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी है
संगीत और कविता
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी
है बाल मिठाई और सिंगोरी

आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी है
पठाल
आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी हैं सीढ़ीदार खेतों
में फसलें

आज भी हैं चिन्ह
क्योंकि आज भी है
पानी

आज भी है नदी
आज भी है नदी की भीतरी
संगीत भरी धुनें
आज भी है
जरूरत
आज भी है
जरूरत के लिये बेचैन मां
आज भी है रोटी गर्म
आज भी है बर्फ
आज भी है याद
आज भी है गांव
आज भी है बुरांस और फ्यूंली
कुलांचे भरती हवायें
दुःख-दर्द
खुदेड़
खिलखिलाहट और
शहर का पहाड़ में
चश्में के साथ घुस जाना
रामलीलायें और
रातभर बैठे लोग
चौपाइयां और दोहे
संवाद और चरित्र
कहानियों में पहाड़
पहाड़ में कहानियां

कविताओं का संसार
और संसार में कवितायें

एक-दूसरे का हाथ थामे
नाचते हुए लोग
लोगों में बहती नदियों की आरती
आरती में पहाड़

अपने मौसम के अनुरूप
मकान

इंतजाम हर मौसम का

सुबह के शाम तक
औरतों की पीठों पर श्रम का
अनूठा संसार

स्कूल से लौटती
दीदी की पीठ पर बोझ का गट्ठर
रस्सी में खो सी गई दरांती
दरांती के साथ खो सी गई किताबें
हवाओं के साथ उड़ते बादलों के आकार
सूरज के साथ
बदलती पहाड़ी के चित्रों के
बर्फीले रंग

इन सबके बीच से
निकलती हुई
समय की ऊंचृनीची धार
जाती अनजाने पथ पर
भूकम्प की छाती पर बसे बहादुर लोग
बड़े खतरे बोती व्यवस्थायें
नये-नये तट बोती
नदियों के गदरये बदन
बहन की तरह नदी
मां की तरह नदी
दादी, दादा और तमाम रिश्तों की तरह
नदी

बिल्कुल भी नहीं है
नदी की तरह हैं रिश्ते

नदी के नाम पर
चल रही है
पैसों की लूट-खसोट
चल रही हैं दुकानें
पिघलेगी एक दिन बर्फ
जीना होगा आसान
आसान जीवन के लिये
मुश्किल दिन काटने भी जरूरी हैं
बर्फ जरूरी है
जरूरी है
जरूरी है उससे जुड़ी बातें
सूर्य उगने से पहले
इस जमीन पर उतर आया है धूप के बहाने
धूप
जब
नदी की
बहती हुई धारा
पर पड़ती है
तो
सूरज बहने लगता है
ब्रह्मांड के अबूझ रास्तों से
बनता है नदी का रिश्ता
नदी से रिश्ता है
समय से, जीवन के कण से
अणु से
शब्द से लेकर
लंबी यात्रा अर्थ तक
चलती ही रहती है
नदी से रिश्ता बनाती हुई

कभी इस तरफ भी
आयेगी नदी
इसका है जिसे इंतजार

बस वही है नदी से अनजाना

नदी सभी के पास है
नदी को नदी बनाये रखने के लिये
जो हाथ मिलाये हुए हैं लोगों से
उनसे हथेलियां मिलाकर
चलता ही रहता है
हमारा प्रयास
व्यस्त है नदी
अपनी ही मस्ती में खोई
चलती हुई सफर में
सोती हुई
सोये हुए समय में अकेली
बह रही है

इसे बहने दो
नदी के अंग कटेंगे

तो सदी रोयेगी

सच कहता है मेरा गीत यात्री
खोते हुए भी पाती हुई
चलती हुई
रोशनी को मुट्ठियों में बांधे
तो चल अब
तेरी गहराई और अपनी गहराई को
नापें
खोजे कहीं
अपनी भीतरी कोनों को
कितने पत्थर हैं हमारे भीतर

हमारे भीतर कितने जंगल
कितनी बावड़ियां
छोटी-बड़ी झीलें

जरा-जरा तलाश तो उन्हें
जरा संवारे तो

बनाये रखें
सांसे लेते हुए नदी
जैसे बढ़ रही है
वैसे ही

काफिलों में बहुत सारी बूंदों से बनी
विशाल नदी
कहती है
बहती है
कि विशाल है बूंद
आई जो तुम्हारी हथेली में
उसे थामे रहे
बनाये रखें अपने लिये
सबके लिये
सबके लिए जैसी बातों की समझ है
नदी

कहीं पर पहुंच जाने से पहले
चलना पड़ता है जैसे

ठीक वैसे ही
हवओं को बाहों में भरकर
शब्दों की आंखों में समाकर
प्यार करें

प्यार करें हम
आंखों से
जो देख लेती है
नदी

खारे समुद्र की तरह
खारे आंसू भरी
आंखों को
सम्भाल ले
अभी सम्भाल ले

जिसे भी
दृश्यों के साथ जीना है
उसे

पानी बचाना ही होगा
पर्वत पर वर्षा
ढलानों में रूक कर

जमीन के पक्ष में
पौधों के परचम लहरायेगी

प्यास के न जाने कितने विकल्प
वर्षा को
रोकने के विकल्पों में
मिल जायेंगे
हमें जरा सा
बारिश और जमीन के बीच

दोस्त की तरह खड़ा रहना भर है
दोस्तों की तरह

पहाड़ ही क्यों
मैदानों में भी

पूरी पृथ्वी पर
दोस्त की तरह

समुद्र की ऊंचाई
और पर्वत की गहराई तक

पानी से धरती की
दोस्ती जरूरी है

एक आग के गोले से
टुकड़ा आग का अलग हुआ

सदियां बीती
परिवर्तन के ज्वालामुखी फूटे बने

परिवर्तन ही परिवर्तन
आग में, हवा में, पानी में
परिवर्तन
सदियों के भी सदियों बाद

परिवर्तन की सांसे चलती रही यहां
इस पृथ्वी पर

तरह-तरह के जीवन उगे
समाप्त हुये

इस यात्रा में धीरे-धीरे दिमाग उगा
जिसने पहचाना
आग को और उसकी दुनिया बदल गई उसने सदियों बाद
इशारे से छलांग मार कर
भाषा तक पहुंचने का जो सफर किया तय

उससे गूंजा
समय

नदियों को अपनी ही
भाषा में नदियां कहते
पानी की इज्जत करते

पनचक्कियों तक पहुंचे जो
वो हम जैसे ही लोग थे
हमारे पूर्वज

आज अगर
खतरा है तो
उसे
बचाने के लिये करोड़ों लोग
देश और परदेश के

स्रोतों पर
पानी ऊर्जा
सिर पर लादे रोज
पर्वत पुत्रियां
चढ़ती जाती पर्वत के वन में
लाती और गाती
बादल और कोहरे में देवदार के साथ
रोज-रोज का यह क्रम
तब से
जब सामने
पहाड़ों से आती नदियां बहकर
जाती सामने

वे पवित्र नदियां
गांव-गांव में
पहुंचेंगी कब
सोच रहे हैं खेत
खेतों में
काम कर रही हथेलियां खुरदुरी

इंतजार करती बच्चों की आंखें
बूढ़ी हो गई
पर नदियों का पानी
आया नहीं अभी गांवों तक
और प्रतीक्षा और प्रतीक्षा और प्रतीक्षा
कब तक

पानी के लिये प्रतीक्षा कब तक
जो है उसको ही बचाने के लिये
प्रतीक्षा
कब तक

पीढ़ियां बीत गई

नदी-नदी की तरह
पहाड़-पहाड़ की तरह
जंगल-जंगल की तरह
जमीन-जमीन की तरह

नहीं रहे
पीढ़ियां बीत गई

जल प्रवाह
बर्फ के भीतर प्रवाह
बूंदों का प्रवाह

बूंदों से लहरों तक का
खामोश प्रवाह
साफ-साफ प्रवाह

पानी के रंग जैसा

मौलिक रंग
पानी का रंग

बर्फ से कुछ दूर

झरनों और गदेरों में
सामूहिक बूंद
लहरें और प्रवाह

गहरी और उफनती
लहरों का प्रवाह

और जुड़ी हुई कथायें
गीत और जीवन

जमीन के भीतर तक
नमी का प्रवाह
जमीन के ऊपर
प्रवाह

झीलों में बदला
प्रवाह नदी पर लहरों
की चर्चायें

प्रवाह
न तेज, न धीमा
बस प्रवाह

प्रवाह है नदी

किनारे और
किनारों का विराट रूप

आवाजों का संसार
जिसकी भाषा के ऊपर और नीचे
बस पाना
बहता चला जा रहा पानी
और

अगर जीवन है तो प्रवाह है
जब तक प्रवाह

नदी को प्रवाह के बिना
नदी नहीं कह सकते जैसे

विचार के बिना नहीं हो सकती कविता
लक्ष्यों के बिना होना न होना बराबर रास्तों का

किताबों का पलटना

पढ़ना प्रवाह
प्रवाह लिखना

समझना प्रवाह
मछली, पत्थर, काई के

जंगल
जंगल के अमर गीत
पानी के भीतर के गीत
प्रवाह को ही ले लिया
मुनाफे के लिये
विकास यह कैसा
दो जांघों को फाड़कर
फेंक देने जैसा
नदी के किनारे सी
हवाओं पर

सरकारों का कब्जा
पानी पर
बिजली पर
कब्जों के सरगनाओं ने
छीन लिये प्रवाह

छोड़ देते
गांवों के लिये पानी पीने का

दुनिया की सबसे बड़ी जरूरत
छोड़ देते
दुनिया के लिये

अब होंगे गांव के संसार
विस्थापित

उखड़ेंगे उनके पैर
जहां भी जमाया जायेगा उन्हें

उग पायेंगे अपनी भाषा में
अलग-थलग

मोटे चश्में से भी
नहीं देख पायेंगे

साफ-साफ दृश्य।
बड़े-बड़े लोग घूम आए विदेश
बड़े-बड़े लोग
हाथ मिला चुके नदियों के खरीदारों से

यह समय बहुत खतरनाक है
यहां नदियों के साथ
हमारे हाड़-मांस के चीथड़े
शांतिवार्ताओं के शिष्टमंडल
प्लेटों में सजाकर
खा रहे हैं

और तो और

लहूलुहान नदी
मेरे शरीर से मिलती-जुलती है
यह उनके लिए
स्वादिष्ट भोज हैं।

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